सभी पार्टियों के राजनेता अब इस बात पर एकराय हैं कि बड़ी टेक कंपनियों की शक्तियों में कटौती की जाए। लोकतंत्र के लिए निगरानी अर्थव्यवस्था एक खतरे के रूप में देखी जाती है। पर स्व-नियमन अब नाकाफी हो गया है। डिजिटल, कल्चर, मीडिया ऐंड स्पोर्ट सेलेक्ट कमेटी की सोमवार की रिपोर्ट ने एक रास्ता तय किया है। पर इस काम में उसे उन कंपनियों की कोई मदद नहीं मिली, जिनके विनियमन की जरूरत कमेटी महसूस करती रही है। खासतौर से, फेसबुक का रवैया निहायत दंभ और बेईमानी भरा रहा। कमेटी के मुताबिक, फेसबुक न तो विनियमन को तैयार है और न ही निगरानी की इच्छुक।
यह कंपनी जान-बूझकर डाटा गोपनीयता और एंटी-कंपीटीशन कानूनों का उल्लंघन कर रही है। हमारा मानना है कि पैसे के लिए डाटा ट्रांसफर फेसबुक का बिजनेस मॉडल है और मार्क जकरबर्ग का यह बयान कि हमने कभी पैसे के लिए किसी का डाटा नहीं बेचा, सरासर झूठ है। पर समस्या एक कंपनी से ज्यादा बड़ी है। गूगल और यू-ट्यूब जैसी कंपनियों का इस रिपोर्ट में भले बहुत जिक्र न हुआ हो, लेकिन ऑनलाइन गलत सूचनाओं के प्रसार में इनकी अहम भूमिका है और इससे होने वाली कमाई से ये बेहद खुश हैं। जैसा कि सूचना कमिश्नर एलिजाबेथ डेनहम ने आगाह किया है कि जिस तकनीक से जूतों और छुट्टियों की ऑनलाइन खरीद-बिक्री होती है, उसी तकनीक से अब हम राजनीतिक विचार भी बेच रहे हैं। और चूंकि गलत सियासी विचारों की खरीदारी की कीमत फैशन से बाहर हो गए जूतों से भी कम होती है, इसलिए राजनीतिक खरीद-बिक्री आसानी से हो जाती है।
एक बार जब जर्मनी सरकार ने फेसबुक को धमकी दी कि यदि उसने नफरत फैलाने वाले भाषण फौरन नहीं हटाए, तो उसे भारी जुर्माना भरना पड़ेगा, तब यह पाया गया कि ऐसा हो सकता है। फेसबुक के छह मॉडरेटरों में से एक अब जर्मनी में काम करता है। सरकारों को इंटरनेट को पूरी तरह नियंत्रित नहीं करना चाहिए, हमें समाज की सुरक्षा के लिए उनकी वैसे भी जरूरत है। (द गार्जियन, लंदन से साभार)
(साई फीचर्स)
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