टुकुर-टुकुर देखने वाले हम तमाशबीन

 

(प्रकाश भटनागर)
बात पुरानी है और इसे मेरे एक पत्रकार मित्र ने मुझसे साझा की थी। हम दोनों प्रेस काम्पलेक्स के अलग संस्थानों में काम करते थे। तो उस बड़े अखबार में काम कर रहे पत्रकार साथी ने जो साझा किया वो घटनाक्रम आज याद आ रहा है। सुबह की बैठक में सिटी चीफ ने बताया कि भोपाल में मुस्लिमों का एक संगठन अपने समुदाय की एक शख्सियत को इस्लाम से बेदखल करने का फैसला लेने जा रहा है। उसके अखबार के सिटी चीफ के अपने विशिष्ट शैली वाले गणित थे। लिहाजा यह जानकारी यूं प्रस्तुत की गयी गोया कि मामला तस्लीमा नसरीन अथवा सलमान रुश्दी की तरह का हो सकता है। एक रिपोर्टर को लाम पर भेजने की तरह इसके कव्हरेज के लिए तैयार किया गया। खबर में क्या-क्या होना है, किस-किस से बात की जाना है और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस घटनाक्रम का एक-एक अंश कव्हर किया जाए, इसकी पूरी प्लानिंग हुई। रिपोर्टर शाम को लौटा। वह मायूस कम और मूर्ख बनने के दर्द से अधिक पीड़ित दिखा।

उसने बताया कि जिन हजरत ने इस घटनाक्रम के संदर्भ में प्रेस नोट जारी किया था, उन्होंने एक छोटे-से कमरे में अपने दो समर्थकों के साथ मिलकर वह फैसला कर दिया है। सुबह की सारी सनसनी मूर्खता में सनी रह गयी और अखबार का पूरा जोश एवं रोमांच सूरज ढलते-ढलते महज तमाशे में तब्दील होकर रह गया था। इस पूरे मामले का खास पहलू यह था कि जिन्होंने इतने बड़े धार्मिक निर्णय (जिसका रत्ती भर भी असर नहीं हुआ) का बीड़ा उठाया था, खुद उनकी आवाज में कोई दम था ही नहीं ना उनकी अपने समुदाय में ऐसी कोई हैसियत। जाहिर है समुदाय के भीतर भी उनकी खास स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए जब न्यूज चैनल्स और प्रिंट मीडिया को आज दीपिका पादुकोण की खिदमत में रेड कार्पेट बिछाने में मशगूल देखा, तो यह किस्सा मुझे एकाएक याद आ गया। जेएनयू, सीएए या एनआरसी के लिहाज से पादुकोण में कोई दम है ही नहीं। उन्हें अपनी दस तारीख को रिलीज हो रही फिल्म को शोहरत दिलाना थी, इसलिए वह जेएनयू के आंदोलनरत छात्र-छात्राओं के बीच खालिस फिल्मी अंदाज में पहुंच गयीं।

उनकी जो प्रचार एजेंसी है, उसका रूझान वामपंथी है। जेएनयू के आंदोलन का समर्थन हो या विरोध, पादुकोण आज तक ऐसी शख्सियत के रूप में सामने नहीं आ सकी हैं, जिसके पास इनमें से किसी भी एक पक्ष पर बात रखने के लिए आवश्यक बौद्धिक क्षमता हो। बस हुआ यह कि एक सेलिब्रिटी ने चर्चित मामले में उपस्थित दर्ज करवा दी और मीडियाकर्मियों ने इसे देशव्यापी बदलाव के सूत्रपात के रूप में ग्रहण कर पाठकों/दर्शकों के सामने परोस दिया। अब टीवी चैनलों पर दीपिका को लेकर बहस चल रही है। कोई उन्हें सराह रहा है तो कोई उनकी निंदा कर रहा है। इस सबके बीच यह कोई नहीं देख रहा कि इस शोर-गुल से एक औसत अभिनेत्री की आने वाली फिल्म को वह प्रचार-प्रसार मुफ्त में मिल गया है, जिसके लिए कई करोड़ रुपए लग जाना आम बात हो चुकी है। पदमावती का तमाशा भी कुछ समय पहले देश ने देखा था। पता नहीं निरी मूर्खता वाले इस तड़के के लिए मीडिया दोषी है या फिर ऐसी खबरों को गंभीरता से लेने वाले लोग।

हां, यह जरूर पता है कि ऐसा होना नया नहीं है और न ही भविष्य में ऐसा होना कोई बंद हो जाएगा। मीडिया का इस सारे मामले में खास किस्म का आग्रह दिख रहा है। वरना कोई वजह नहीं थी कि स्वरा भास्कर जैसी दोयम दर्जे की अभिनेत्री के दीपिका को समर्थन वाली बात को भी महत्व के साथ प्रचारित किया जाता। कारण तो इस बात का भी नहीं रह जाता कि जेएनयू में नकाबपोशों के कथित हमले वाली खबर को फर्जी मानने वाले विचारों को भी खास तवज्जो नहीं दी जाती। इन टिप्पणियों को खबरों से सप्रयास दूर रखा जाता कि आखिर देश में गड़बड़ी वाला माहौल बनाने में जेएनयू सहित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या जामिया मिल्लिया इस्लामिया का ही सक्रिय योगदान क्यों है! मीडिया में सीरिया के असंतोष के पीछे के सच की पूरी ईमानदारी से पड़ताल करने की परम्परा तो है, लेकिन सीएए या एनआरसी को लेकर चल रहे विवाद में छिपाए गये सत्य को तलाशने का कोई खास प्रयास वहां नहीं होता दिखता है।

सोशल मीडिया के उन दावों को कोई तवज्जो ही नहीं दी जा रही, जिनमें बताया गया है कि किस तरह इन संस्थानों एवं देश से जुड़े फैसलों के खिलाफ आग उगलने वाले कई चेहरों को कभी विद्यार्थी, कभी आंदोलनकारी और कभी पुलिस कार्रवाई में घायल के तौर पर पेश कर दिया जाता है। सोशल मीडिया पर ऐसे कई लोगों का सच बराबर दिखाया जा रहा है, जो मीडिया की नजर में पूरी तरह महत्वहीन हो गया दिखता है। तो फिर महत्व किस बात का है! एक खास एजेंडे के संचालन का! उसे अफवाह तथा झूठे तथ्यों का खाद-पानी प्रदान करने का! पादुकोण जैसे चेहरे भी इस एजेंडे का अपनी जरूरतों के लिए हिस्सा बन जाते हैं और हम टुकुर-टुकुर सब देखकर यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि परमेश्वर ने हमें भी सच और झूठ के बीच अंतर करने की मानसिक क्षमता प्रदान की है। मीर तकी मीर ने लिखा था, सिरहाने मीरके कोई न बोलो। अभी टुक रोते रोते सो गया है। मीर का टुकसे शायद कुछ अलग आशय था। लेकिन यहां उसी आशंका से ग्रस्त होकर उन्हें याद कर रहा हूं कि कहीं यूं चुप टुकुर-टुकर देखते-देखते वह दिन न आ जाए, जब हमारे पास रोते-रोते सो जाने के अलावा और कोई रास्ता ही न बच सके। बहरहाल, ऐसे लोगों के सिरहाने बोलने का कर्तव्य तो पूरा कर दिया, बाकी आपकी मर्जी कि झूठ का लिहाफ ओढ़कर सो जाएं या फिर पूरी ताकत से आलस को दूर कर सच के सूरज को सलाम कर लें।

(साई फीचर्स)