आखिर फैज़ अहमद फैज़ कौन थे?

 

(बलबीर पुंज)

दस जनवरी से देशभर में लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और भविष्य में संभावित तैयार होने वाले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ धरना-प्रदर्शन, टीवी स्टूडियो पर बहस के दौरान गाली-गलौच और समाचारपत्रों में आलेखों के माध्यम से अपनी पक्ष-विपक्ष में बात रखने को अब एक माह से अधिक हो गया है। सवाल है कि आखिर इस प्रकार का आक्रमक प्रदर्शन या सीएए-एनआरसी का विरोध क्यों हो रहा है? इसे करने वाले कौन है?

इसमें संदेह नहीं कि आंदोलन करने वाले अधिकांश प्रदर्शनकारी मुस्लिम समाज से है। स्वाभाविक रूप से इन प्रदर्शनकारियों को वे राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर अपना प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन दे रहे है, जो गत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में फिर पराजित हो गए थे। इस तथाकथित जन-आंदोलन में हर प्रकार के वामपंथी (सीपीआई-सीपीएम से लेकर शहरी नक्सली तक) की भी भागीदारी दिख रही है।

सीएए-एनआरसी के खिलाफ लामबंद होने वालों की मानसिकता क्या है?- यह उनके जुलूसों के चरित्र और उसमें लगने वाले नारों से स्पष्ट है। इस संदर्भ में सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल है, जिसमें प्रदर्शनकारियों को अल्लाह हू अकबर, ला इलाहा..इलल्लाह. . ., हमें क्या चाहिए आजादी, हिंदुओं से चाहिए आजादी, जिन्नाह वाली आजादी जैसे नारे लगाते हुए सुना गया, तो कई तख्तियां हिंदू प्रतीक-चिन्हों (ओउम सहित) को विकृत कर लहराई गई, जिसमें करोड़ों हिंदुओं की आराध्य मां दुर्गा को हिजाब पहने हुए भी दर्शाया गया। कुछ जगहों पर तिरंगा लहराकर राष्ट्रगान भी गाया गया।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर (आईआईटी) के कुछ छात्रों ने 17 दिसंबर को परिसर में सीएए विरोधी प्रदर्शन किया था और उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रवादी और प्रसिद्ध शायर फैज़ अहमद फैज़ की नज्म- हम भी देखेंगे को गाया था। इसकी कुछ पंक्तियों- लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से, सब बुत उठाए जाएंगे. . . हम अहल-ए-वफा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे. . .. बस नाम रहेगा अल्लाह का. . .

पर जब एक पक्ष ने आपत्ति जताई, तो एकाएक स्वघोषित सेकुलरिस्टों के साथ वामपंथियों का कुनबा फैज़ के बचाव में खड़ा हो गया। देश के प्रसिद्ध गीतकार और पूर्व राज्यसभा सांसद जावेद अख्तर ने कहा, फैज़ ने अपना आधा जीवन पाकिस्तान के बाहर गुजारा, उन्हें वहां पाकिस्तानी विरोधी कहा गया। हम देखेंगे नज्म उन्होंने जिया-उल-हक की सांप्रदायिक, प्रतिगामी और कट्टरपंथी सरकार के खिलाफ लिखा था। क्या जावेद साहब ने सच कहा या फिर सुविधा अनुरूप पूरा सच बताने से पीछे हट गए?

आखिर फैज़ कौन थे, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि और जीवनशैली क्या थी? उनका जन्म 13 फरवरी 1911 में अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ। फैज़ के पिता सुल्तान मोहम्मद खान बैरिस्टर (अधिवक्ता) थे, जिनके जीवन का अधिकांश हिस्सा अंग्रेजों की सेवा में बीता। वे सर सैयद अहमद खान के विचारों से खासे प्रभावित थे और चाहते थे कि फैज़ भी उन्हीं के पद्चिन्हों पर चलें। सैयद अहमद ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद के नाम पर दो राष्ट्र-सिद्धांत के विकृत दर्शन का बीजारोपण किया, जिसके गर्भ से 1947 में पाकिस्तान का जन्म हुआ।

मस्जिद से मजहबी दीक्षा प्राप्त करने के बाद फैज़ ने ब्रितानियों द्वारा संचालित मिशनरी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और बाद में अंग्रेजी साहित्य व अरबी भाषा में स्नातकोत्तर उपाधि ली। वे मोहम्मद इकबाल के विचारों से प्रभावित थे, जिन्हे वर्तमान पाकिस्तान का आध्यात्मिक पिता भी कहा जाता है। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान फैज़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और उसके एक मुख्य सदस्य बन गए।

वामपंथ के प्रति सेवानिष्ठ रहने के कारण उन्हे 1963 में तत्कालीन वाम-शासित सोवियत संघ द्वारा लेनिन शांति पुरस्कार भी दिया गया। फैज़ वामपंथी थे और चिंतन में कट्टर इस्लाम था। वर्ष 1941 में ब्रितानी महिला आयल्स जार्ज से उन्होंने जब श्रीनगर में निकाह किया, तब एक सच्चे मुसलमान का सबूत देते हुए उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी का सर्वप्रथम इस्लाम में मजहब परिवर्तन करवाया। इस विवाह के गवाह घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला भी थे।

यह सब बातें उस दौर की है, जब अंग्रेज और मुस्लिम लीग- वामपंथियों की साहित्यिक सहायता से पाकिस्तान को मूर्त रूप दे रहे थे। स्पष्ट है कि भारत के रक्तरंजित विभाजन में फैज़ भी उन्हीं लोगों में से एक थे, जिन्होंने हिंदुओं के बीच बराबरी के साथ नहीं रहने के नाम पर पाकिस्तान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। विचारों से मार्क्सवादी और चरित्र से कट्टर इस्लामी होने के कारण उनका हिंदू विरोधी चिंतन स्वाभाविक था। यह उनकी एक नज्म से भी स्पष्ट है, जिसमें वह लिखते है- हर हकीकत मजाज हो जाए, काफिरों की नमाज हो जाए। अर्थात- फैज़ की दिली इच्छा थी कि हर गैर-मुस्लिम, मुसलमान हो जाए।

कुछ वर्ष कॉलेज प्राध्यापक की नौकरी करने के बाद 1942 में ब्रितानी भारतीय सेना से जुड़ गए। अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादार रहने के कारण 1944 तक वे न केवल सेकंड लेफ्टिनेंट से लेफ्टिनेंट कर्नल पर पदोन्नत हो गए, साथ ही 1945 में तत्कालीन अग्रेंजी साम्राज्य के ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर के सदस्य भी नियुक्त कर दिए गए।

जब 14 अगस्त 1947 में पाकिस्तान बना, तब भी वे पाकिस्तानी सेना से जुड़े रहे। उसी वर्ष अक्टबूर में उसे कश्मीर में काफिर भारत के हाथों पहली पराजय झेलनी पड़ी। इस हार से बौखलाकर 1951 में पाकिस्तान की प्रथम लियाकत सरकार के सैन्य तख्तापलट की कोशिश हुई, जिसमें फैज़ भी मुख्य भूमिका में थे। परिणामस्वरूप, उन्हे भी सैकड़ों विद्रोहियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और रिहा होने पर वे लंदन चले गए, फिर आयूब खान के सैन्य तानाशाही में 1964 को लौटे।

फैज़ जुल्फीकार अली भुट्टो के बेहद करीबी थे, जिनकी भारत (हिंदुओं) के प्रति घृणा 1965 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में दिए उनके वक्तव्य से स्पष्ट है। तब भुट्टो ने कहा था- पाकिस्तान, भारत से हजार वर्षों तक लड़ता रहेगा और हजारों घाव देकर उसे लहूलुहान करता रहेगा। इस नीति को पाकिस्तान आज भी पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ा रहा है।

1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय तत्कालीन पाकिस्तानी विदेशी मंत्री भुट्टो ने अपने प्रभाव से फैज़ को आयूब खान के सैन्य शासनकाल में सूचना मंत्रालय भेज दिया। स्वाभाविक था कि फैज़ अपने नए अवतार में इस्लाम के नाम पर काफिरभारत (हिंदू) को गरीयाने और पाकिस्तानी आवाम को युद्ध उन्माद में झोंकने के लिए बनाए प्रचार तंत्र के केंद्र में थे।

जब भुट्टो 1972 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तब फैज़ को उस सांस्कृतिक और शिक्षा मंत्रालय का सलाहकार बनाया गया, जिसके कंधों पर विभाजन के बाद भारत की सनातन संस्कृति और परंपराओं से पाकिस्तान की जड़ों को काटने का दायित्व था। इसी उद्देश्य से पाकिस्तान का स्कूली पाठ्यक्रम भी तैयार हुआ, जिसमें आज भी हिंदू-भारत विरोधी साम्रगी की भरमार है। अब क्या यह सत्य नहीं फैज़ भी उसी प्रयास का हिस्सा थे, जिसमें भारत-हिंदू विरोधी पाठ्यक्रम तैयार किया गया?

कालांतर में फैज़ ने घोर इस्लामी जिया-उल-हक का विरोध क्यों किया?- इसका एकमात्र कारण 1977 में भुट्टो को जिया द्वारा अपदस्थ कर उसे फांसी के तख्त पर चढ़ाना था। यह सब इस्लामी पाकिस्तान की विशुद्ध आंतरिक राजनीति की उपज थी, जिसमें फैज़ और उनकी पुस्तकों पर प्रतिबंध भी लगा दिए गए थे। परिणामस्वरूप, फैज़ लेबनान चले गए और 1982 में वापस लौटे।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि फैज़ का जीवन पाकिस्तान नामक विचार और देश को समर्पित था। इसलिए उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान को चुना और वे लाहौर में 20 नवंबर 1984 को अंतिम सांस लेने तक इसी इस्लामी देश के लिए जिए। स्पष्ट है कि फैज़ कभी भी उच्च मूल्यों, मानवाधिकारों और समतापूर्ण समाज के लिए आंदोलित नहीं रहे। उनके जीवन का संघर्ष केवल मुसलमानों की शुद्धभूमि पाकिस्तान के लिए रहा।

इसी सेवा के लिए उन्हे 1990 में पाकिस्तान के सर्वाेच्च नागरिक सम्मानों में से एक निशान-ए-इम्तियाज से नवाजा गया। आज न केवल पंजाब (पाकिस्तान) के साहिवाल कॉलेज में एक खंड फैज़ के नाम पर है, साथ ही वहां कई साहित्यिक सम्मेलनों का आयोजन उन्हीं के नाम पर होता है- जैसे लाहौर का प्रसिद्ध फैज़ इंटरनेशनल फेस्टिवल। अब पाकिस्तान के युवा और सच्चे इस्लामी अनुयायियों के लिए फैज़ प्रेरणास्रोत हो सकते है- यह तो समझ में आता है। किंतु भारत में मानवाधिकार, पंथनिरपेक्षता, संविधान, लोकतंत्र इत्यादि की बात करने वालों को फैज़ में अपना आदर्श क्यों दिख रहा है?

(साई फीचर्स)