आर्थिकी का दिल और डायलिसिस

 

(हरी शंकर व्यास)

हाल में एक सर्वे पढ़ने को मिला कि यदि किसी को एक लाख रुपए मिले तो वह क्या करेगा? इसके जवाब में भारत की मौजूदा आर्थिक मनोदशा में 62 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे उसे बचा कर रखना चाहेंगे! क्या कार-मोटरसाइकिल खरीदेंगे- नहीं। क्या मकान खरीदेंगे- नहीं। 17 प्रतिशत लोगों ने कहा- वे अपना कर्ज चुकाना चाहेंगे। केवल 21 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे खर्च करना चाहेंगे मगर रोजमर्रा की जरूरत, किराने की दुकान, खाने-पीने के सामान और जरूरी चीजों पर। मतलब खर्च की इच्छा वाले 21 प्रतिशत लोगों में से भी कोई 54 प्रतिशत ने जरूरी किराना खरीदारी में दिलचस्पी बताई, कोई 28 प्रतिशत ने मकान-जमीन खरीदने में दिलचस्पी बताई तो 6-7 प्रतिशत ने कपड़े-जूते और फिर पांच प्रतिशत से नीचे फ्रिज, एसी, कार, सैर-सपाटे पर खर्च करने का रूझान बताया। सोचें, इससे सवा सौ करोड़ लोगों की समग्र सोच, मनोवृत्ति क्या जाहिर होती है? पहली बात लोग ठहरे दृ ठिठके – दुबके और डरे हुए हैं। उनमें भरोसा नहीं है कि पैसा खर्च करेंगे, पैसा निवेश करेंगे तो कमाई होगी! दूसरी बात सबका सपना देखना, गाड़ी-कार-मकान आदि को खरीदने का सपना देखते हुए जोखिम लेना आज खत्म प्राय है।

तीसरी बात बेसिक, रोजमर्रा के सामान की जरुरत में ही घर का बजट व खर्च सिमटा हुआ है। लोग कर्ज ले कर खर्च करने के बजाय कर्ज चुकाने की चिंता में ज्यादा हैं। एक छोटा प्रतिनिधी उदाहरण नाई की दुकान से समझे। दिल्ली के मेरे वसंत कुंज को अपेक्षाकृत उच्च मध्यवर्गीय कॉलोनी माना जाता है। नोटबंदी के बाद मैंने कई बार अपने बारबर से पूछा इन दिनों कैसा काम चल रहा है तो उसके यहां2015 से यह रूटिन जवाब मिलता रहा है कि पहले लोग फेसियल,मसाज कराने के लिए खूब पैसा खर्च करते हुए फुरसत से घंटा-दो घंटा गुजराते थे। हजार, दो हजार रू खर्च कर देते थे। अब बाल, दाढी से अधिक सोच कर आते ही नहीं है। कई-कई दिन अब फेसियल याकि हजार-दो हजार रू खर्च करने वाला ग्राहक नहीं आता है।

जाहिर है घर-घर में मितव्ययता है, भरोसा-विश्वास बुझा हुआ है और मूड वक्त काटने का है। इसलिए लाख टके का सवाल है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कल लोगों को, उपभोक्ताओं को, निवेशकों-उद्यमियों और ठेकेदारों के लिए चाहे जितना खजाना खोलें उससे खरीदने-बेचने, उपभोग और उत्पादन की गतिविधियों को पंख भला कहां लगने वाले हैं? अपने खर्च से सरकार गतिविधियां (सड़क-बिल्डिंग-इंफास्ट्रक्चर बनाना-बनवाना) चाहे जितनी बढ़ाए, चाहे जितना आर्थिकी के दिल पर वह पंप करे शरीर उठ कर दौड़ने वाला तो नहीं है!

कोई माने या न माने अपना निष्कर्ष है कि नोटबंदी ने भारत की आर्थिकी की किडनी फेल कर दी है। आर्थिकी डायलिसिस पर निर्भर हो गई है। सरकार उसे अपने तरीकों से नया खून डाल कर जैसे-तैसे जिंदा रखे हुए है। झूठे आंकड़ों, आधार वर्षों की फेरबदल, रिपोर्टों को दबा कर और रिजर्व बैंक से पैसा ले कर, सामाजिक मद के खर्च घटा कर, पीएसयू बेचने से लेकर तमाम तरह के जरियों से सरकार डायलिसिस पर बैठी आर्थिकी में खून डाल उसे जिंदा-स्वस्थ दिखलाने के जितने भी उपाय कर रही है वह सब बिना जन रक्त संग्रहण के है। जनता या तो मूक दर्शक है या घायल-किडनी फेल से बीमार है। भारत राष्ट्र-राज्य के सवा सौ करोड़ लोगों की आर्थिकी की किडनी और दिल-दिमाग तीनों नोटबंदी के बाद उन क्रमिक चरणों की मारी है, जिसमें क्रमशः इकॉनोमी को सिकुड़ना ही है, उसे दुबला बनना ही है!

एक और गजब फिनोमिना है। एक सर्वे के अनुसार सवा सौ करोड़ लोगों की आबादी में से बीच के, याकि मध्य वर्ग व मध्य वर्ग में मध्यम, निम्नवर्गीय आबादी सर्वाधिक निराश और घायल है। इस आबादी से नीचे की निम्नवर्गीय जनता और दूसरी तरफ समाज का सर्वाधिक उच्च-अमीर वर्ग भी उतना निराश-दुखी नहीं है, जितना मध्यम वर्ग है। इसका अर्थ क्या है? अपनी राय में अर्थ यह है कि जिनके पास अथाह पैसा है, सरकारी नौकरी, कॉरपोरेट पेशेवरों की जिनकी सुरक्षित आय और बचत है वे निश्चिंत हैं। उन्हें परेशानी नहीं है। इनमें यह मूड है कि अपने को क्या है। जैसे पहले था वैसे अब है। मतलब पिछले साल, 2018, 2017, 2016, 2015 में जैसा था वैसा अब है। सब ठीक है। इसे पॉजिटिव व संतोषदायी मूड कह सकते हैं मगर क्या ये अपनी बचत से, अपने बैंक एकाउंट से पैसा निकाल मकान-जमीन-जायदाद-शेयर बाजार में निवेश का जोश और जोखिम उठाने का मूड लिए हुए हैं, तो जवाब होगा-नहीं।

अब निम्न वर्ग पर विचार करें। याकि गरीब-किसान, दिहाड़ी पर काम करने वाला आबादी का हिस्सा। सर्वे के अनुसार वह उतना परेशान, दुखी, निराश नहीं है, जितना मध्यम वर्ग है। कह सकते हैं कि मोदी सरकार ने नकद खैरात बांटने का जो डिजिटल-बैंक खातों को बंदोबस्त बनाया है उससे गरीब को सीधे पैसा पहुंच रहा है तो गरीब के दिल-दिमाग में संतोष है। उसे रोजगार पहले जैसा भले न हो, मनरेगा की मजदूरी सुकड़ी हुई है मगर किसानी-मजदूरी में जीवन जीने जितना पैसा मिल ही जाता है। तभी वह कुल मिला कर आर्थिकी में पॉजिटिव, संतोष का रूख लिए हुए है। अपना भी मानना है कि गरीब का मनोविज्ञान उसका रोजमर्रा का जीवन है, छोटी-छोटी राशन-खाने-पीने की जरूरत है। झुग्गी-झोपड़ी में लाइट-पानी-सस्ता राशन-मोबाइल फोन अपने आपमें जीवन का संतोष है, विकास और समृद्धि है। बावजूद इसके क्या गरीब तीन-सौ पांच सौ रुपए की जिंस खरीदने, कपड़ा, साइकिल-मोटरसाइकिल खरीदने की 2015 से पहले वाली मनोवृति लिए हुई है? अपना मानना है कि नहीं। जबकि 2015 से पहले की हकीकत है कि ग्रामीण खर्च की डिमांड से बिहार-ओड़िशा में सस्ता कपड़ा भी ज्यादा बिक रहा था तो पंचों-सरपंचों-मनरेगा के चलते गांवों में मारूति कार, मोटरसाइकिलें भी अथाह बिक रही थीं। मैन्यूफैक्चरिंग-ऑटो सेक्टर की कंपनियां देहात-गरीब में मांग की नेचुरल खून सप्लाई से दम पाए हुए थीं!

वह स्थिति आज नहीं है। बावजूद इसके निम्न वर्गीय आबादी यदि आर्थिकी को ले कर संतोष-पॉजिटिव भाव में है तो यह बात उतनी ही खतरनाक है, जितना अमीर वर्ग का पॉजिटिव रूख जताना है। कैसे? अपना मानना है कि इन दो वर्गों का संतोष या यथास्थिति में रहना जोश पर पाला है। इससे आर्थिकी का निर्णायक मध्यम वर्ग का रास्ता जाम है। तय मानें कि आर्थिकी का चक्का तब भागता है जब आबादी के बीच का दिल, मध्यम वर्ग खून पंप करे। मध्य वर्ग गतिशील हुआ, उसमें धंधा-काम-अमीर होने की लालसा बनी तो आर्थिकी दौड़ेगी नहीं तो वह ठप्प पड़ी रहेगी। अमीर-सुरक्षित बड़ी आय के लोगों पर विकास ठहरने का, विकास दर घटने का असर नहीं होता। वे तो पहले से ही अमीर हैं या सुरक्षित आय की गारंटी लिए हुए हैं। इस एक्सेस वर्ग के लोगों के लिए पहले पैसे को दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ाने के रास्ते थे अब ये या तो बैंक में सुरक्षित पैसा बचाए हुए हैं या नकद दबा कर पुराने दिनों की वापसी की इंतजार में है। अपनी तरफ से ये जोखिम ले कर न नया निवेश करेंगे और यदि कही एक लाख रुपया आया तो ये भी उसे बचा कर दबा कर बैठे रहेंगे। मतलब इनका पुराना और नया पैसा दोनों उलटे जड़ता बनाने वाला, लक्ष्मीजी की चंचलता को रोकने व ठहराने वाला है।

सो, आर्थिकी में ठहराव से जो अमीर या गरीब चिंतित नहीं हैं, जो आर्थिकी की मौजूदा दशा पर भी खुश या उसमें सकारात्मकता देखते हैं वे भी बुनियादी तौर पर शरीर के बीच के दिल वाले हिस्से में गति-नया खून बनवाने से कतराए हुए हैं, बिना रोल के हैं। कोई माने या न माने मगर नोट रखें कि हर राष्ट्र-राज्य, हर व्यवस्था में, राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिकी में परिवर्तन का वाहक, माध्यम, जरिया मध्यम वर्ग ही होता है। आजाद भारत के आर्थिक इतिहास में पीवी नरसिंह राव के उदारीकरण के बाद पैसे की गति, मोबिलिटी और लोगों के उड़ने का निर्णायक रोल मध्य वर्ग का ही था। मध्य वर्ग ने उड़ान भरी तो करोड़ों अमीर वर्ग में गए और निम्न वर्ग के लोग मध्य वर्ग में शामिल होना शुरू हुए। तथ्य है कि पीवी नरसिंह राव ने साहस दिखाया, उदारीकरण की उड़ान बनवाई तो मध्य वर्ग सबसे ज्यादा उड़ा और उससे मध्यम वर्ग से अमीर वर्ग में जाना संभव हुआ तो गरीब की भी मध्यम वर्ग में शामिल होने की मंजिल बनी। हां, नोट रखे कि पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के वक्त 1991 में अर्थशास्त्री भारत में मध्यम वर्ग की संख्या तीन करोड़ बताते थे जबकि आज यह अनुमान कोई 40 करोड़ लोगों का है। 1991 से 2012 के बीच भारत का जो कायाकल्प हुआ उसका मूल कारण मध्यम वर्ग का विश्वास, उसका दौड़ना और उसका अपने पराक्रम-पुरुषार्थ से नया खून बना कर आर्थिकी में उड़ेलते जाना था। जबकि आज नौबत डायलिसिस पर मध्यम वर्ग का बैठा होना है और सरकार द्वारा खर्च उर्फ अपने खून से किड़नी को चलवाने की है। इसमें भी सरकार के पास अधिक खून व अधिक विकल्प नहीं है!

(साई फीचर्स)