भाजपा क्यों चिंता में नहीं है?

 

 

(तन्मय कुमार)

भारतीय जनता पार्टी के नेता दिल्ली के चुनाव नतीजों से बहुत परेशान नहीं हैं। वैसे ही जैसे झारखंड के नतीजों के बाद भी नहीं हुए। भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया वैसी ही रही, जैसी कांग्रेस की रहती थी या अब भी रहती है। नतीजे आए-गए हो गए हैं। न तो पार्टी ने इस पर कोई गंभीर चिंतन किया है, न हार के कारणों की पड़ताल की है और नेताओं की जवाबदेही तय की गई है। सब कुछ रूटीन के अंदाज में चलता रहा। पार्टी नेतृत्व में घबराहट देखने को नहीं मिली। याद करें 2009 मे दूसरी बार कांग्रेस के सरकार बनने पर कांग्रेस नेताओं के अहंकार और उनके अति आत्मविश्वास को। उसके दस साल बाद बिल्कुल उसी अंदाज की राजनीति का दोहराव होता दिख रहा है।

दोनों में क्या समानता है इस पर विचार करेंगे उससे पहले यह देखना जरूरी है कि पिछले डेढ़ साल में भाजपा ने क्या खोया है। लोकसभा चुनाव की तैयारी में जिस समय पार्टी लगी हुई थी उसी समय तीन राज्यों की सत्ता उसके हाथ से निकली। नवंबर 2018 में भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुई। इनमें से दो राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा 15 साल से सत्ता में थी। फिर लोकसभा चुनाव के बाद तीन राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए। इनमें महाराष्ट्र में भाजपा और शिव सेना का गठबंधन जीता पर चुनाव के बाद यह गठबंधन टूट गया और भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई। भाजपा ने हरियाणा में जैसे तैसे दुष्यंत चौटाला की पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाई और उसके बाद झारखंड में हार कर सत्ता से बाहर हो गई। यानी एक साल में भाजपा के हाथ से पांच बड़े राज्यों की सत्ता निकल गई। इनमें से चार राज्यों में अकेले उसकी सरकार थी।

दिल्ली में भाजपा की सरकार नहीं थी पर उसके नेताओं ने जिस अंदाज में यह चुनाव लड़ा उससे ऐसा लग रहा था कि पार्टी इसे जीवन-मरण का सवाल मान रही है। अपने सारे संसाधन और सारी ताकत लगा कर लड़ने के बाद भी भाजपा सिर्फ आठ सीट जीत पाई। इसके बाद भी पार्टी नतीजों को लेकर कोई आत्मचिंतन करेगी, इसमें संदेह है। भाजपा के नेता इस भरोसे में हैं कि केंद्र में उनकी सरकार है और नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे अब भी देश के लोगों की पहली पसंद है और दूसरे, विपक्ष के पास मोदी को चुनौती देने वाला कोई चेहरा नहीं है। यह बात काफी हद तक सही है पर राजनीति में लोकप्रियता कम होने और चेहरा उभर जाने के लिए बहुत ज्यादा समय की जरूरत नहीं पड़ती है, इस हकीकत को भाजपा के नेता अनदेखा कर रहे हैं।

असल में ऐसी ही स्थिति 2009 की जीत के बाद कांग्रेस की हो गई थी। कांग्रेस नेताओं का अहंकार तो और इसलिए भी बढ़ गया था कि उसके बाद वे लगातार विधानसभा के चुनाव भी जीत रहे थे। तब लोकसभा के तुरंत बाद कांग्रेस ने महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव जीता था और झारखंड में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था। लोकसभा के साथ ही आंध्र प्रदेश में भी उसे जीत मिली थी। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, केरल, कर्नाटक जैसे तमाम राज्यों में कांग्रेस जीती। 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले मई 2013 में कांग्रेस ने कर्नाटक में शानदार जीत दर्ज की थी। इसी जीत के अहंकार में कांग्रेस ने सहयोगियों की पूछ बंद कर दी है और उसके बाद उनकी हार का सिलसिला शुरू हो गया।

इस बार उलटा हो रहा है। भाजपा दूसरी बार केंद्र में जीतने के बाद राज्यों में लगातार हार रही है या खराब प्रदर्शन कर रही है और उसके सहयोगी भी उसे छोड़ कर जा रहे है। शिव सेना, आजसू जैसी सहयोगी पार्टियां छोड़ गई हैं तो अकाली दल, अपना दल जैसी कई पार्टियां अलग अलग मुद्दों को लेकर अलग राय जाहिर कर रही हैं। इसके बावजूद भाजपा को इनकी परवाह नहीं दिख रही है। असल में भाजपा को अपने सहयोगियों से ज्यादा अपने वैचारिक मुद्दों पर भरोसा दिख रहा है। पार्टी के नेता सोच रहे हैं उनके पास ऐसे ब्रह्मास्त्र जैसे मुद्दे हैं, जिनके दम पर उनका जीतना मुश्किल नहीं होगा।

हालांकि अनुच्छेद 370 खत्म करने, राम मंदिर निर्माण, नागरिकता कानून आदि के बावजूद भाजपा चुनाव हारी है। पर इससे भाजपा को चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि जिन राज्यों में भाजपा हारी है वे प्रयोगशाला की तरह के राज्य नहीं हैं। दूसरा कारण यह है कि भाजपा समझ रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राज्यों में भी उसकी सत्ता की वापसी शुरू हो जाएगी। यानी समय का चक्र उसके पक्ष में घूमने लगेगा।

सबसे पहले प्रयोगशाला जैसे राज्यों को समझना होगा। भाजपा को लग रहा है कि अनुच्छेद 370, नागरिकता कानून और राम मंदिर का मुद्दा हरियाणा, झारखंड या दिल्ली में भले नहीं चला पर पश्चिम बंगाल, असम में उसके बाद उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में जरूर चलेगा। गुजरात भी यह मुद्दा चलेगा। जिन राज्यों में भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है वहां लोकसभा से ठीक पहले चुनाव होंगे। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पिछली बार भाजपा हारी और उसे यकीन है कि अगली बार फिर ये राज्य उसके पास आ जाएंगे। और इस तरह लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी होगी और उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा हुआ होगा। तभी भाजपा के नेता इस समय चिंता में नहीं हैं। वे अभी अपने वैचारिक मुद्दों को और धार देने में लगे हैं। उन्हें लग रहा है कि जब अयोध्या में राम मंदिर बन जाएगा और एनआरसी का मुद्दा आएगा तब बाकी सारे मुद्दे नेपथ्य में चले जाएंगे।

(साई फीचर्स)

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