सांप्रदायिक धु्रवीकरण लोकतंत्र के लिए खतरा

 

(अजित द्विवेदी)

यह सनातन सवाल है कि चुनाव कैसे मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए और वोटिंग किस आधार पर होनी चाहिए। इसका जवाब आसान नहीं है। दिल्ली जैसे छोटे राज्य में, जहां सहज रूप से कहा जा रहा है कि आम आदमी पार्टी अपनी सरकार के काम के आधार पर लड़ी और जीती है, वहां भी यह बात पूरी तरह से सही नहीं है। अरविंद केजरीवाल की सरकार ने आम लोगों के लिए काम किया, यह एक पहलू है पर दूसरा और बड़ा पहलू सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है, जिसने आप की राह बहुत आसान कर दी। हालांकि हैरानी की बात है कि उसे लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है।

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास किया। उन्होंने भड़काऊ भाषण दिए, चुनाव को गृहयुद्ध में तब्दील करना चाहिए, इसे भारत-पाकिस्तान के मुकाबले की तरह लड़ा और उसके नेताओं ने गद्दारों को गोली मारो का नैरेटिव बना कर चुनाव को देशभक्त बनाम देशद्रोही बनाने का प्रयास भी किया। पर इससे किसको फायदा हुआ? भाजपा को पांच फीसदी वोट का फायदा हुआ। उसे पिछली बार के मुकाबले पांच फीसदी वोट ज्यादा मिल गए, जो निश्चित रूप से सांप्रदायिक चुनाव प्रचार की वजह से मिले। पर भाजपा से कम फायदा आम आदमी पार्टी को नहीं हुआ। भाजपा नेताओं के भाषण ने और नागरिकता कानून के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शन ने अल्पसंख्यक समुदाय को पूरी तरह से आम आदमी पार्टी के पक्ष में गोलबंद कर दिया।

इससे वोटिंग का एक खास ट्रेंड दिल्ली में देखने को मिला। मुस्तफाबाद सीट को मिसाल के तौर पर देख सकते हैं। पिछले चुनाव में भाजपा जिन तीन सीटों पर जीती थी यह उनमें से एक सीट थी। कांग्रेस और आप के मुस्लिम उम्मीदवारों के बीच वोट बंटने से भाजपा के जगदीश प्रधान छह-सात हजार वोट के अंतर से जीत गए थे। पर इस बार वे 20 हजार से ज्यादा वोट से हारे। गिनती के 14वें राउंड तक वे 28 हजार वोट से आगे थे। पर आखिरी छह राउंड में उनको सिर्फ 1540 वोट मिले और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को 41 हजार वोट मिला। सोचें 41 हजार और डेढ़ हजार! इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार को कुल 17 सौ वोट मिले। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इससे बड़ी मिसाल संभव नहीं है। ऐसी कहानी दिल्ली की कई और सीटों पर देखने को मिली। शाहदरा सीट पर 13वें राउंड तक आगे चल रहे भाजपा उम्मीदवार को सिर्फ एक इलाके खुरेजी के मतदाताओं ने हरा दिया। ऐसे ही कृष्णानगर, ओखला, मटियामहल, बल्लीमारान, चांदनी चौक जैसी कई सीटों पर देखने को मिला।

मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर भाजपा को हराने के लिए वोट किया। उन्होंने कोई कंफ्यूजन नहीं रखा। इस बार कांग्रेस को छिटपुट वोट देने की बजाय सबने आम आदमी पार्टी को वोट किया। अल्पसंख्यक मतदाताओं की मतदान की यह प्रवृत्ति सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नमूना तो है ही पर एक तरह से यह भाजपा के एजेंडे को ही पूरा करती है। मतदान की इस प्रवृत्ति से भाजपा के उन तमाम वैचारिक मुद्दों को धार मिलती है, मजबूती मिलती है, जिनके बारे में उसके नेता कहते हैं कि हिंदुओं को बचाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। इस किस्म के ध्रुवीकरण से चुनाव उस दिशा में बढ़ गया है, जहां आर्थिक मुद्दों का कोई मतलब नहीं है, देश के विकास और नागरिकों के वैयक्तिक विकास का कोई मतलब नहीं गया है।

ध्यान रहे भाजपा ने हम और वे के सिद्धांत को लोगों के दिलदिमाग में बैठाया है। भाजपा को हराने की जिद ठान कर वोटिंग करने वाला मुस्लिम समुदाय उसके इस सिद्धांत को ज्यादा मजबूती और विस्तार दे रहा है। दिल्ली में मुस्लिम मतदाताओं का एक लक्ष्य था, भाजपा को हराना। उन्होंने सिर्फ इसी मकसद से वोट किया। अगर आम आदमी पार्टी अच्छा काम नहीं कर रही होती तब भी वे उसको ही वोट करते। चुनाव नतीजों के बाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ओर से किए गए कई ट्विट से यह संकेत भी मिला है कि आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल कोई बहुत स्वाभाविक पसंद नहीं हैं क्योंकि वे भी भारत माता की जय के नारे लगाते हैं और वंदे मातरम बोलते हैं। किसी भी नेता का ऐसा बोलना मुस्लिम समुदाय को पसंद नहीं है। नतीजों के बाद एक मुस्लिम बुद्धिजीवी ने ट्विट किया कि भले मुसलमानों ने आप को वोट कर दिया है पर याद रखना चाहिए कि केजरीवाल ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया था। यानी केजरीवाल भी अच्छे नहीं हैं पर वे भाजपा के मुकाबले कम बुरे हैं इसलिए उन्हें समर्थन दिया गया।

केजरीवाल इस बात को समझते थे कि दिल्ली में मुसलमान के पास कोई और विकल्प नहीं है इसलिए वे उनके वोट को पक्का मानते हुए हिंदू मतदाताओं को खुश करने वाले भी कुछ काम करते रहे। जैसे हनुमान मंदिर चले गए। भारत माता की जय के नारे लगा दिए। वंदे मातरम बोल दिया। अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन कर दिया। नागरिकता कानून के मामले में गोलमोल रवैया रखा और शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन के मामले में चुप्पी साधे रहे। इसके बावजूद मुस्लिम मतदाताओं ने आक्रामक अंदाज में एकमुश्त वोट उनको दिया तो मकसद भाजपा को हराना था। केजरीवाल से प्रेरणा लेकर दूसरे क्षत्रप भी नरम हिंदुत्व की ऐसी ही राजनीति अपनाएंगे पर लंबे समय में यह अंततः उग्र हिंदुत्व की राजनीति को ही मजबूत करेगा।

यह लोकतंत्र के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है कि कोई एक समुदाय एक खास पार्टी को हराने के लिए इस अंदाज में वोट करे। इसका सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि कामकाज का या कोई भी सकारात्मक एजेंडा इसके आगे नहीं चलेगा। दूसरा खतरा यह है कि भाजपा को बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं के सामने यह बताने का मौका मिलेगा कि उसकी विचारधारा के विरोधी किस तरह से चुनावी राजनीति में उसका विरोध कर रहे हैं। मतदान के समय होने वाला मुस्लिम ध्रुवीकरण अंततः बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण का अनिवार्य कारण बन सकता है। इसका एक खतरा यह भी है कि चुनाव के समय का यह ध्रुवीकरण समाज में पहले से मौजूद विभाजन को और बढ़ाता जाएगा। यह स्थिति लोकतंत्र और भारतीय समाज दोनों के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकती है।

(साई फीचर्स)