दुःखद है खुले में शौच!

 

(शरद खरे)

यह वाकई दुःखद ही माना जायेगा कि आज़ादी के साढ़े छः दशकों के बाद भी सिवनी जिले और सिवनी शहर में नागरिक खुले में शौच करने को मजबूर हैं। मैला ढोने की प्रथा पर जैसे-तैसे लगाम लगी है, पर खुले में शौच पर अंकुश न लग पाना वाकई दुःखद ही माना जायेगा।

खुले में शौच से मुक्ति के लिये सरकारों के द्वारा तरह-तरह के अभियान चलाये गये और खुद ही अपनी पीठ थपथपायी गयी। जमीनी हालात देखने की फुर्सत शायद किसी को भी नहीं रही। जिले में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के माध्यम से पहले शौचालयों के निर्माण के लिये अनुदान भी दिया गया, किन्तु नतीज़ा सिफर ही निकला।

खुले में शौच करने से क्या हानि है, इसे रेखांकित करने के लिये सरकारों द्वारा समय-समय पर मीडिया के माध्यम से विज्ञापन भी चलाये जाते रहे हैं। वर्तमान में रूपहले पर्दे की अदाकारा विद्या बालान के द्वारा खुले में निस्तार की हानियों को गिनाया जा रहा है। जमीनी हालात देखकर यही कहा जा सकता है कि यह सब कुछ असरकारी नहीं है।

एक समय था जब निस्तार के लिये लोग सुबह सवेरे ही हाथ में पानी के बर्तन लेकर खुले में निकल जाया करते थे। सरकारों ने इस पर रोक लगाने के लिये अनुदान भी दिया। आज के हालात देखकर यही लगता है कि सरकारी अनुदान कागज़ों में तो सही-सही है, किन्तु वह जरूरत मंदों के पास पहुँच नहीं सका है।

यह कुनैन की गोली के मानिंद कड़वी सच्चाई ही मानी जा सकती है। जमीनी स्तर पर किसी भी अधिकारी ने भौतिक सत्यापन करने की जहमत नहीं उठायी है। जिले में यह काम जिला पंचायत को करना चाहिये था, किन्तु जिला पंचायत भी अन्य जरूरी कामों में ही अपने आप को उलझाये रखने का स्वांग करती नज़र आती है।

दो तीन सालों के अंतराल में घंसौर सहित जिले भर में हज़ारों की तादाद में शौचालय कागज़ों में बने पाये जाने की बात प्रकाश में आयी है। यह वाकई चिंता की बात मानी जा सकती है। अगर जिले में हज़ारों की तादाद में शौचालय कागज़ों पर बने हैं तो जब ये बन रहे थे और इनका सत्यापन हो रहा था तब आला अधिकारी क्या कर रहे थे!

जिला मुख्यालय की झुग्गी बस्तियों में आज भी पक्के शौचालय न होने के कारण महिलाओं को भी खुले में शौच के लिये जाने पर मजबूर होना पड़ रहा है। मनचलोें और शोहदों द्वारा इस आवश्यक दैनिक नित्यकर्म के दौरान भी महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की जाती है। महिलाएं खामोश रहतीं हैं, क्योंकि यह नैसर्गिक आवश्यकता है और उन्हें इसके लिये रोज़ाना ही बाहर जाना है।

मुसीबत तो तब होती है जब किसी को दस्त लगें, अथवा पेट खराब हो। सुबह सवेरे तो अंधेरे में लोग नित्यकर्म के लिये बाहर जा सकते हैं, पर दिन ऊगने के बाद उनके लिये यह एक परेशानी का ही सबब साबित होता है। इसके लिये शासन की इमदाद पर्याप्त नहीं मानी जा सकती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि जिला प्रशासन के द्वारा इस योजना के मद में आयी राशि का पूरा उपयोग हुआ है अथवा नहीं, इसकी जाँच ईमानदारी से करवायी जाये, ताकि इस भयावह व्यवस्था पर अंकुश लग सके।