जानिए समझिए क्या है ऋतु परिवर्तन?

कल्पना करें कि ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान आप पिकनिक के लिए जा रहे हैं। आप यह सोच कर ही पसीने-पसीने हो जाते हैं। और यह भी सोच कर कि आपके माता-पिता ने बचपन में इससे बेहतर और कुछ नहीं चाहा होता। सच, पिछले कुछ दशकों के दौरान हुआ ऋतु परिवर्तन वाकई विस्मयकारी है।

पृथ्वी के अस्तित्व में आने के समय से ही एक व्यवस्था रही है। किसी स्थान का ऋतु औसत मौसम है जो एक निश्चित समय में उसको प्रभावित करता है। वर्षा, सूर्य की किरणें, वायु, आद्रता एवं तापमान ऐसे कारक हैं जो किसी स्थान की ऋतु को प्रभावित करते हैं।

मौसम में परिवर्तन अचानक हो सकता है एवं इसका अनुभव किया जा सकता है, जबकि ऋतु परिवर्तन होने में लंबा समय लगता है इसलिए इसे अनुभव करना अपेक्षाकृत कठिन है। पृथ्वी के पूरे इतिहास के दौरान ऋतु परिवर्तन होता रहा है। हमेशा ही स्पष्ट रूप से परिभाषित ग्रीष्म एवं शीत ऋतु रही है एवं इस परिवर्तन के प्रति सभी जीवन रूपों ने अपने आप को ढाल लिया है।

गत 150-200 वर्षों के दौरान यह परिवर्तन अधिक तेजी से हो रहा है एवं कुछ विशेष प्रजाति के पौधों एवं जंतु इसके अनुसार स्वयं को नहीं ढाल पाएं हैं। मानवीय गतिविधियां परिवर्तन की इस गति के लिए जिम्मेदार है एवं वैज्ञानिकों के लिए यह चिंता का एक कारण है।

पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल मुख्यत: नाइट्रोजन (78:), आॅक्सीजन (21:) तथा शेष 1: में सूक्ष्ममात्रिक गैसों (ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये बिल्कुल अल्प मात्रा में उपस्थित होती हैं) से मिलकर बना है, जिनमें ग्रीन हाउस गैसें कार्बन डाईआॅक्साइड, मीथेन, ओजोन, जलवाष्प, तथा नाइट्रस आॅक्साइड भी शामिल हैं। ये ग्रीनहाउस गैसें आवरण का काम करती है एवं इसे सूर्य की पैराबैंगनी किरणों से बचाती हैं। पृथ्वी की तापमान प्रणाली के प्राकृतिक नियंत्रक के रूप में भी इन्हें देखा जा सकता है।

हम परवाह क्यों करें?

यदि विश्व के सभी देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं करते तो 21 वीं शताब्दी के अंत तक निम्नलिखित संभावित परिदृश्य हो सकता है:-

जनसंख्या और आर्थिक वृद्धि के आधार पर तापमान 1-3.50ब् तक बढ़ जाएगा। समुद्र तल 15-90 सें. मी ऊँचा हो जाएगा जिससे 9 करोड़ लोगों को बाढ़ का भय होगा। वर्षा कम होगी एवं खाद्य फसलों में कमी होगी। तो क्या यह सही समय नहीं है कि विश्व समुदाय इस समस्या की गंभीरता के प्रति जागरूक हो?

 वर्षों से, मानवीय गतिविधियों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि की है, इतना कि प्रकृति में अपने सामान्य स्तर से वे कहीं अधिक हैं। ग्रीनहाउस गैसों के उत्पादन में महत्वपूर्ण कुछ मानवीय गतिविधियाँ हैं:- औद्योगिक क्रिया-कलाप, ऊर्जा संयंत्रों से उत्सर्जन एवं परिवहन/ वाहन। ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि ने पृथ्वी का तापमान बढ़ा दिया है, एक ऐसी प्रक्रिया जिसे सामान्यत: भूमंडलीय तापन (ग्लोवबल वार्मिंग) कहा जाता है। कार्बन डाइआक्साइड को ग्रहण कर हमारी मदद करने वाले पेड़ों और वनों को काटने से यह समस्या और बदतर हो गई है।

ऋतु परिवर्तन के कारण

पृथ्वी का ऋतु चक्र गतिशील है एवं प्राकृतिक रूप से उसमें एक चक्र में सतत परिवर्तन होता रहता है। विश्व इस बात से अधिक चिंतित है कि आज घटित हो रहे परिवर्तनों में मानवीय गतिविधियों के कारण तेजी आई है। इन परिवर्तनों का पूरे विश्व के वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है, जो पेड़ के चक्रों, पराग नमूनों, बर्फ के किनारों एवं समुद्र की तलहटियों से साक्ष्य प्राप्त कर रहे हैं। ऋतु परिवर्तन के कारणों को दो भागों में बांटा जा सकता है- एक जो प्राकृतिक कारण हैं तथा दूसरे जो मानवीय कारण हैं।

प्राकृतिक कारण

ऋतु परिवर्तन के लिए अनेक प्राकृतिक कारक उत्तरदायी हैं। उनमें से कुछ प्रमुख हैं महाद्वीपीय अपसरण, ज्वालामुखी, समुद्री लहरें, पृथ्वी का झुकाव एवं धूमकेतु तथा उल्कापिंड। आइए इन्हें विस्तार से जानें।

महाद्वीपीय अपसरण

विश्व के मानचित्र पर दक्षिण अमेरिका एवं अफ्रीका के संबंध में आपने कुछ असाधारण पाया होगा- एक चित्रखंड पहेली की तरह क्या वे एक-दूसरे में समाहित होते प्रतीत नहीं होते?

बीस करोड़ वर्ष पहले वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। वैज्ञानिक मानते हैं कि उस समय पृथ्वी वैसी नहीं थी जैसी कि आज हम देखते हैं, परंतु सभी महाद्वीप एक बड़े भूभाग के टुकड़े थे। इस का प्रमाण पौधों एवं जानवरों के जीवाश्मों तथा दक्षिण अमेरिका की पूर्वी तटरेखा तथा अफ्रीका की पश्चिमी तटरेखा जिन्हें अटलांटिक महासागर अलग करता है, से प्राप्त विशाल शैल पट्टियों से उपलब्ध होता है। ऊष्णकटिबन्धीय पौधों के जीवाश्मों (कोयले के रूप में) की खोज से यह निष्कर्ष निकलता है कि भूतकाल में यह भूमि निश्चित रूप से भूमध्य रेखा के निकट रही होगी जहाँ का मौसम ऊष्णकटिबन्धीय था तथा यहाँ दलदली व पर्याप्त हरियाली थी।

आज जिन महाद्वीपों से हम परिचित हैं वे करोड़ों वर्ष पहले तब बने जब भूभाग शनै:-शनै: अलग होने लगे। इस विखंडन का प्रभाव मौसम पर भी पड़ा क्योंकि इसने भू-भाग की भौतिक विशेषताओं, उनकी अवस्थिति एवं जल निकायों का स्थान परिवर्तित कर दिया। भू-भाग के इस विलगाव ने समुद्री लहरों की धार व हवा में परिवर्तन किया जिसने मौसम को प्रभावित किया। महाद्वीपों का यह विखंडन आज भी जारी है; हिमालय श्रृंखला 1 मि0मी0 प्रत्येक वर्ष उपर बढ़ रही है क्योंकि भारतीय भू-भाग धीरे-धीरे परंतु लगातार एशियाई भू-भाग की ओर बढ़ रहा है।

ज्वालामुखी

जब कोई ज्वालामुखी फटता है तो यह वातावरण में बहुत अधिक मात्रा में सल्फर डाइआॅक्साइड, जल वाष्प, धूल एवं राख फेंकता है। यद्यपि ज्वालामुखी की गतिविधि कुछ दिनों तक ही रहती है तथापि, गैस एवं धूल की वृहद् मात्रा कई वर्षों तक मौसम रचना को प्रभावित कर सकती है। किसी प्रमुख विस्फोट से सल्फर डाइआॅक्साइड गैस लाखों टन में वायुमंडल की ऊपरी परत (समतापमंडल) में पहुँच सकती है। गैस एवं धूल सूर्य से आने वाली किरणों को आंशिक रूप से ढक लेते हैं जिससे शीतलता छा जाती है। सल्फर डाइआक्साइड जल के साथ मिल कर सल्फ्यूरिक एसिड यानी गंधक के अम्ल के छोटे कण बनाता है। यह कण इतने छोटे होते हैं कि वर्षों तक ऊँचाई पर रह सकते हैं। सूर्य की किरणों के ये सक्षम प्रत्यावर्तक हैं एवं भूमि को उस ऊर्जा से वंचित रखते हैं जो सामान्यत: सूर्य से प्राप्त होती। वायुमंडल की ऊपरी परत, जिसे समताप मंडल कहते हैं, की हवा वायु-विलयों (एयर होल्सी) को तेजी से पूर्व या पश्चिम की दिशा में ले जाती है। वायु-विलयों का उत्तर या दक्षिण की दिशा में जाना हमेशा ही बहुत धीमा होता है। इससे आपको उन उपायों का अंदाजा हो जाना चाहिए जिसके द्वारा किसी प्रमुख ज्वालामुखी विस्फोट के बाद शीतलता लाई जा सकती है।

फिलीपीन्स द्वीप में स्थित माउंट पिनाटोबा में अप्रैल 1991 में विस्फोट हुआ एवं इससे वायुमंडल में हजारों टन गैस उत्सर्जित हुई। ऐसे विशाल ज्वालामुखी विस्फोट पृथ्वी पर पहुँचने वाली सौर विकिरणों को रोक सकते हैं, वायुमंडल के निचले स्तर (क्षोम मंडल) में तापमान को कम कर सकते हैं एवं वायुमंडलीय संचलन परिवर्तन कर सकते हैं। ऐसा किस सीमा तक हो सकता है, यह एक जारी रहने वाला विषय है।

दूसरा आश्चर्यजनक घटना 1816 ईस्वीह में हुई जिसे अक्सर ग्रीष्म ऋतु विहीन वर्ष कहा जाता है। न्यू इंग्लैन्ड एवं पश्चिमी यूरोप में महत्वपूर्ण मौसम-संबंधी विघटनाएं घटी तथा संयुक्त राज्य अमेरिका एवं कनाडा में जानलेवा शीतलहर चली। इन अनोखी घटनाओं का कारण 1815 में इंडोनेशिया में टम्बोरा ज्वालामुखी में विस्फोट को माना जाता है।

पृथ्वी का झुकाव

प्रत्येक वर्ष पृथ्वी सूर्य के चारों एक पूरी परिक्रमा करता है। यह अपने परिक्रमा मार्ग पर 23.50 के कोण पर लम्बवत झुकी हुई है। वर्ष के आधे समय जब गर्मी होती है उत्तरी भाग सूर्य की तरफ झुका होता है। दूसरे आधे समय जब ठंड होती है, तो पृथ्वी सूर्य से दूर होती है। यदि झुकाव नहीं होता तो हमें मौसम का अनुभव नहीं होता। पृथ्वी के झुकाव में परिवर्तन मौसम की तीव्रता को प्रभावित कर सकता है- अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी और कम ठंड; कम झुकाव का अर्थ है कम गर्मी और अधिक ठंड।

पृथ्वी की धुरी कुछ-कुछ अंडाकार है। इसका अर्थ हुआ कि एक वर्ष में सूर्य और पृथ्वी की दूरी बदलती रहती है। हम सामान्यत: सोचते हैं कि पृथ्वी की धुरी निर्धारित है क्योंकि यह हमेशा ही पोलैरिस (जिसे ध्रुव तारा या नॉर्थ स्टार भी कहा जाता है) की तरफ इंगित करता प्रतीत होता है। वास्तव में यह एकदम स्थिर नहीं हैं. धुरी भी प्रति शताब्दी आधे डिग्री से कुछ अधिक की गति से घूमती है इसलिए पोलैरिस हमेशा ही उत्तर की तरफ इंगित करता हुआ न तो रहा है और न ही रहेगा। जब 25000पू0 वर्ष पहले, पिरामिड का निर्माण हुआ था, तो थुबन तारा (अल्फा ड्रैकोनिस) के निकट ध्रुव था। पृथ्वी की धुरी की दिशा में यह धीमा परिवर्तन, जिसे विषुवतीय अयन भी कहा जाता है, ऋतु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है।

समुद्री लहरें

ऋतु व्यवस्था का एक प्रमुख घटक समुद्री लहरें हैं। पृथ्वी के 71: भाग में ये फैले हुए हैं एवं वायुमंडल या भूमि से दोगुना सौर विकिरणों को अवशोषित करते हैं। समुद्री लहरें ताप की एक बड़ी मात्रा को ग्रह के अन्य भागों में फैलाते हैं- यह मात्रा वायुमंडल के लगभग बराबर है। लेकिन समुद्र भू-भाग से घिरे हुए हैं, अत: जल द्वारा ताप का संचरन मार्गों से होता है।

वायु समुद्र तल के क्षैतिज स्तर पर बहती है एवं समुद्री लहरें बनाती है। विश्व के कुछ भाग अन्य भागों की अपेक्षा समुद्री लहरों से अधिक प्रभावित होते हैं। पेरू का तट एवं अन्य निकटवर्ती क्षेत्र हम्बोल्ट लहरों से प्रभावित है जो पेरू के तट के किनारे बहती है। प्रशान्त महासागर में अब नीनो की घटना दुनिया भर की मौसमी परिस्थितियों को प्रभावित कर सकती है।

उत्तरी अटलांटिक ऐसा दूसरा क्षेत्र है जो समुद्री लहरों से बहुत प्रभावित है। यदि हम उसी अक्षांश पर स्थित यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका के स्थानों की तुलना करें तो प्रभाव तत्काल स्पष्ट हो जाएगा। इस उदाहरण पर गौर करें- तटीय नॉर्वे के कुछ भागों का जनवरी में औसत तापमान- 20 सेंटीग्रेट व जुलाई में 400 सेंटीग्रेट है, जबकि इसी अक्षांश पर अलास्का के प्रशांत तट का स्थान अत्यंत ठंडा है- 150 सेंग्रे जनवरी में एवं केवल 100 सेंटीग्रेट जुलाई में। नॉर्वे के तटों पर बहने वाली गर्म लहरें ठंड में भी ग्रीनलैंड नॉर्वे के समुद्र में बर्फ जमने नहीं देती। आर्कटिक महासागर का शेष भाग दक्षिण से सुदूर होते हुए भी जमा रहता है।

समुद्री लहरें या तो अपना मार्ग बदल लेती हैं या धीमी पड़ जाती हैं। समुद्र से निकलने वाली उष्मा का एक बड़ा भाग जल वाष्प के रूप में होता है जो कि पृथ्वी पर प्रचुरता में पाया जाने वाला ग्रीनहाउस गैस है। तथापि जल वाष्प बादल बनाने में भी मदद करते हैं जो स्थल को ढक कर शीतल प्रभाव देते हैं। इनमें सभी या किसी एक घटना का प्रभाव ऋतु पर पड़ सकता है जैसा कि 14,000 वर्ष पहले प्रथम हिम युग की समाप्ति पर हुआ माना जाता है।

मानवीय कारण

19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के दौरान औद्योगिक क्रिया-कलापों के लिए बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का प्रयोग देखने में आया। इन उद्योगों से रोजगार सृजन हुआ एवं लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर प्रस्थान किया। यह परम्परा आज भी चल रही है। पेड़-पौधों से भरी अधिक-से-अधिक भूमि को भवन निर्माण के लिए साफ किया गया। प्राकृतिक संसाधनों का विस्तीर्ण उपयोग निर्माण, उद्योगों, परिवहन एवं उपभोग के लिए किया जा रहा है। उपभोक्तावाद (भौतिक वस्तुओं की हमारी तृष्णा) में तीव्रतर वृद्धि हुई है जिससे कूड़ा-करकट का अंबार लग गया है। साथ ही हमारी जनसंख्या अविश्वसनीय सीमा तक बढ़ गई है।

इन सब से वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि हुई है। वाहनों को चलाने, उद्योगों के लिए विद्युत उत्पन्न करने के लिए, घर इत्यादि के लिए जीवाश्म ईंधन जैसे तेल, कोयला एवं प्राकृतिक गैसों से अधिकांश ऊर्जा की पूर्ति होती है। ऊर्जा क्षेत्र तीन चौथाई भाग कार्बन डाइआक्साइड, 1/5 भाग मिथेन एवं नाइट्रस आक्साइड की बड़ी मात्रा में उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी है। यह नाइट्रोजन आक्साइड एवं कार्बन मोनोक्साइड भी उत्पन्न करता है जो यद्यपि ग्रीनहाउस गैसें नहीं है परंतु इनका वायुमंडल के रसायन चक्र पर असर पड़ता है जो ग्रीनहाउस गैसें नष्ट करती हैं।

ग्रीनहाउस गैसें

कार्बन डाइआक्साइड निश्चित तौर पर वायुमंडल में सबसे महत्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस है। भू-उपयोग पद्धति, वनों का नाश, भूमि साफ करने, कृषि इत्याति जैसी गतिविधियों ने कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन की वृद्धि में योगदान किया है।

वायुमंडल में दूसरी महत्वपूर्ण गैस मीथेन है। माना जाता है कि मीथेन उत्सर्जन का एक-चौथाई भाग पालतू पशुओं जैसे डेरी गाय, बकरियों, सुअरों, भैसों, ऊँटों, घोड़ों एवं भेड़ों से होता है। ये पशु चारे की जुगाली करने के दौरान मीथेन उत्पन्न करते हैं। मीथेन का उत्पादन चावल और धान के खेतों से भी होता है जब वे बोने और पकने के दौरान बाढ़ में डूबे होते हैं। जमीन जब पानी में डूबी होती है तो आॅक्सीजन-रहित हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में मीथेन उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया एवं अन्य जंतु जैव सामग्री को नष्ट कर मीथेन उत्पन्न करते हैं। संसार में धान उत्पन्न करने वाले क्षेत्र का 90: भाग एशिया में पाया जाता है, चूंकि चावल यहाँ मुख्य फसल है। संसार में धान उत्पन्न करने वाले क्षेत्र का 80-90 प्रतिशत भाग चीन एवं भारत में है।

भूमि को भरने तथा कूड़े-करकट के ढ़ेर से भी मीथेन उत्सर्जित होता है। यदि कूड़े को भट्टी में रखा जाता है अथवा खुले में जलाया जाता है तो कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जित होती है। तेल शोधन, कोयला खदान एवं गैस पाइपलाइन से रिसाव (दुर्घटना एवं घटिया रख-रखाव) से भी मीथेन उत्सर्जित होती है।

उर्वरकों के उपयोग को नाइट्रस आक्साइड के विशाल मात्रा में उत्सर्जन का कारण माना गया है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस प्रकार के उर्वरक का उपयोग किया किया है, कब और किस प्रकार उपयोग किया गया है तथा उस के बाद खेती की कौन सी पद्धति अपनाई गई है। लेग्युमिनस पौधों जैसे बीन्स एवं दलहन, जो मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाते हैं, भी इसके लिये जिम्मेवार हैं।

हमारा योगदान

दैनिक जीवन में हम में से प्रत्येक का हाथ ऋतु के इस परिवर्तन में है। इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करें:

शहरी क्षेत्रों में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत विद्युत है। हमारी सभी घरेलू मशीनें विद्युत से चलती हैं जो ताप विद्युत संयंत्रों से उत्पन्न होती है। ये ताप विद्युत संयंत्र जीवाश्म ईंधन (मुख्यत: कोयला) से चलते हैं एवं बड़ी मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें एवं अन्य प्रदूषकों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।

कार, बसें एवं ट्रक वे प्रमुख साधन हैं जिनके द्वारा अधिकांश शहरों में लोग यातायात करते हैं। ये मुख्यत: पेट्रोल अथवा डीजल, जो जीवाश्म ईंधन हैं, पर कार्य करते हैं। हम प्लास्टिक के रूप में बहुत बड़ी मात्रा में कूड़ा उत्पन्न करते हैं जो वर्षों तक वातावरण में विद्यमान रहता है एवं नुकसान पहुँचाता है।

हम विद्यालय एवं कार्यालय में कार्य के दौरान बहुत बड़ी मात्रा में कागज का उपयोग करते हैं। क्या कभी हमने यह सोचा है कि एक दिन में हम कितने पेड़ों का उपयोग करते हैं? भवनों के निर्माण में बड़ी मात्रा में लकड़ी का उपयोग किया जाता है। इसका मतलब है कि वन के विशाल भू-भाग की कटाई।

बढ़ती जनसंख्या का मतलब है अधिक-से-अधिक लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था। चूंकि कृषि के लिए बहुत सीमित भू-भाग है (वास्तव में, पारिस्थिकी विनाश के कारण यह संकुचित होती जा रही है) अत: किसी एक भू-भाग से अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊं फसलों किस्में उगाई जा रही हैं। तथापि, फसलों की ऐसी उच्च उपज वाली नस्लों के लिए विशाल मात्रा में उर्वरक की आवश्यकता होती है, अधिक उर्वरक उपयोग का अर्थ है नाइट्रस आक्साइड का अधिक उत्सर्जन जो खेत, जहाँ इसे डाला जाता है, व उत्पादन स्थल, दोनों ही स्थानों से होता है। उर्वरकों के जल निकायों में मिश्रण से भी प्रदूषण होता है।

ऋतु परिवर्तन के प्रभाव

ऋतु परिवर्तन मानव के लिए खतरा है। 19वीं शताब्दी के अंत के बाद से पृथ्वी का औसत 0.3-0.60 सें. तक बढ़ गया है। पिछले 40 वर्षों के दौरान, यह वृद्धि 0.2-0.30 सें. रही है।

1860 के बाद से, जब से नियमित सहायक अभिलेख उपलब्ध है, हाल के कुछ वर्ष बहुत गर्म रहे हैं। 1995 में, 2000 अग्रणी वैज्ञानिकों का एक समूह आईपीसीसी (ऋतु परिवर्तन पर अंत:शासकीय पैनल) एकत्र हुए और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भूमंडलीय तापन वास्तविक है, गंभीर है एवं यह तेजी से बढ़ रहा है। उन्होंने यह अनुमान लगाया कि अगले 100 वर्षों के दौरान पृथ्वी का औसत तापमान 1.4-5.80 सें. तक और बढ़ सकता है। घोषित चेतावनी का महत्व नगण्य प्रतीत हो सकता है लेकिन पिछले 10,000 साल के दौरान देखी गई किसी भी अन्य से इसकी दर कहीं अधिक है। मौसम प्रणाली में परिवर्तनों से हमारे जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलू भी प्रभावित हो सकते हैं एवं उनमें से कुछ पर यहाँ चर्चा की गई है।

कृषि

धीरे-धीरे बढ़ रही जनसंख्या ने खाद्यान्न की अधिक माँग को जन्म दिया है। भूमि को कृषि-योग्य बनाने के साथ ही प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र पर दवाब बढ़ेगा। प्रत्यक्षत: तापमान एवं वर्षा में परिवर्तन तथा अप्रत्यक्षत: मिट्टी की गुणवत्ता, कीटों एवं बीमारियों के कारण कृषि की उपज प्रभावित होगी। विशेष रूप से, भारत, अफ्रीका एवं मध्य-पूर्व में अनाज के उत्पादन में कमी संभावित है। तापमान बढ़ने के साथ परिस्थितियां कीटों विशेष रूप से टिड्डों के लिए सहज हो जाएंगी और वे कई प्रजनन चक्र पूरा कर अपनी जनसंख्या बढ़ा सकेंगे। ऊँचे अक्षांशों में (उत्तरी देशों में) तापमान के बढ़ने से कृषि को लाभ होगा क्योंकि शीत ऋतु छोटी होगी एवं शरद ऋतु लंबी होगी। इसका यह भी मतलब है कि तापमान में वृद्धि के साथ कीट उच्चतर अक्षांशों की तरफ बढ़ेंगे। चरम मौसम परिस्थितियां जैसे उच्च तापमान, भारी वर्षा, बाढ़ सूखा इत्यादि भी फसल उत्पादन को प्रभावित करेंगे।

मौसम

गर्म मौसम से वर्षा एवं हिमपात में परिवर्तन, सूखा एवं बाढ़ में वृद्धि, हिमानी एवं ध्रुवीय हिम पट्टियों का पिघलना एवं समुद्र-तल के उठने में तेजी से वृद्धि आयेगी। गर्मी में वृद्धि से स्थलीय जल के वाष्पीकरण स्तर में बढ़ोतरी होगी, वायु में विस्तार के कारण नमी धारण करने की इसकी क्षमता में वृद्धि होगी। बदले में इससे जल संसाधन, वन एवं अन्य पारिस्थितिक तंत्र, कृषि, उर्जा उत्पादन, आधारभूत संरचना, पर्यटन, एवं मानव स्वास्थ्य प्रभावित होगा। पिछले कुछ वर्षों के दौरान अंधड़ एवं चक्रवात की संख्या में वृद्धि का कारण तापमान में परिवर्तन माना जा रहा है।

समुद्र स्तर में वृद्धि

तटीय क्षेत्र एवं छोट द्वीप दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से है। भूमंडलीय तापन के कारण समुद्र स्तर में वृद्धि से सबसे अधिक खतरा भी उन्हें ही है। समुद्रों के गर्म होने तथा ध्रुवीय हिम पट्टियों के पिघलने के कारण अगली शताब्दी तक समुद्र का औसत स्तर आधा मीटर तक बढ़ने का अनुमान है। समुद्र स्तर में वृद्धि का तटीय क्षेत्रों पर अनेक प्रभाव पड़ सकते है जिसमें आप्लावन एवं अपरदन, बाढ़ में वृद्धि एवं खारे पानी के प्रवेश के कारण भूमि का नाश शामिल है। यह सब तटीय खेती, पर्यटन, अलवणीय जल संसाधन, मत्स्यपालन, मानव स्थापना एवं स्वास्थ्य को विपरीतत: प्रभावित कर सकता है। समुद्रों के बढ़ते स्तर से नीचे स्थित अनेक द्वीप राष्ट्रों जैसे मालदीव एवं मार्शल द्वीप के अस्तित्व को खतरा है।

वर्षा एवं हिमपात के कारण बहुत सी नदियों में जल की उपलब्धता की बहुत कमी हो सकती है। कुछ में हिमानियों के पिघलने के कारण मात्रा बढ़ सकती है जैसे, हिमालय से निकलने वाली नदियां। जल उपलब्धता में परिवर्तन जल-विद्युत उत्पादन एवं कागज, औषधि एवं रसायन उत्पादन जैसे उद्योग को प्रभावित कर सकता है जिनमें अधिक मात्रा में जल का उपयोग होता है। भवन एवं अन्य आधारभूत संरचना आंधी एवं अन्य तीव्र घटनाओं के कारण असुरक्षित हो जायेगें जिसके कारण परिवहन मार्ग भी अस्त-व्यस्त हो सकते है।

स्वास्थ्य

भूमंडलीय तापन मानव स्वास्थ्य को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करेगा, जैसे- ताप-जनित तनाव की घटनाओं को बढ़ाकर।

वन एवं वन्य जीवन

पारिस्थितिक तंत्र पृथ्वी पर जीवों एवं जैविक विविधता के समग्र भंडारघर का पोषण करता है। प्राकृतिक माहौल में पौधे एवं पशु मौसम में परिवर्तन बहुत संवेदनशील होते हैं। इस परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित उच्च अक्षांश पर स्थित टुंड्रा वन का पारिस्थितिक तंत्र है। महाद्वीपों का आंतरिक भाग तटीय क्षेत्रों से अधिक गर्मी का अनुभव करेगा।

नेशनल पार्क का उद्देश्य वन्य जीवों को मानव जाति द्वारा प्रकृति के विनाशकारी कार्य से सुरक्षा प्रदान करना है। लेकिन कोई भी पार्क या संरक्षण नियम पारिस्थिक तंत्र को ऋतु परिवर्तन से बचा नहीं सकता है। डब्ल्यूडब्यलूएफ द्वारा हाल में प्रकाशित रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है कि इस अदृश्य हत्यारे ने सबसे अधिक हरियाली वाले प्राकृतिक क्षेत्रों को भी अपने प्रकोप में ले लिया है। वोलोंग, चीन के विशाल पांडा, अमेरिका के यलोस्टोन नेशनल पार्क के भालू एवं भारत के कान्हा नेशनल पार्क के बाघ ऐसे कुछ जीव हैं जिन्हें भूमंडलीय तापन से खतरा है। पर्वत की चोटियों को ऋतु परिवर्तन के कारण वातावरण में विनाश के कारण विशेष रूप से खतरा है। उंचे स्थानों पर रहने वाली प्रजातियों को अपने निवास स्थान की तलाश में और अधिक उंचे स्थान की ओर प्रवजन करना पड़ा है जिससे उनके लिए स्थान में कमी आई है। यदि ऋतु परिवर्तन की गति तेज रही तो कुछ पर्वतीय पौधों एवं पशुओं का विलोप होना तय है।

प्रव्रजनकारी पक्षी विश्व के ठंडे उत्तरी भाग से गर्म दक्षिणी भाग की ओर जाते हैं। मार्ग में मौसम एवं भोजन ऐसे कुछ कारक है जो उनकी यात्रा के सफल समापन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऋतु परिवर्तन उनके भोजन स्थानों एवं उनकी उड़ान पद्धतियों में परिवर्तन ला सकता है।

समुद्रीय जीवन

प्रवाल को समुद्र का ऊष्णकटिबंधीय वन कहा जाता है एवं यह विविध जीवन रूपों को पोषण प्रदान करते हैं। आयन सीमा में जल के गर्म होने के साथ प्रवाल पट्टियों को नुकसान में वृद्धि होती जा रही है। जल के तापमान में परिवर्तन, जिससे विरंजन होता है, के प्रति ये प्रवाल बहुत संवेदी होते हैं। विरंजन के कारण ही आॅस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ की विशाल पट्टियों को नुकसान पहुंचा है।

समुद्र के सतह पर तैरने वाले प्राणीमंडप्लावक (जोप्लैंकटन्स) की संख्या में कमी हो रही है जिससे इन जंतुओं पर भोजन के लिए निर्भर रहने वाले मछलियों और पक्षिओं की संख्या में कमी हो रही है।

अपने वातावरण तथा हमारे कार्य किस प्रकार इसे परिवर्तित करेंगे के बारे में अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो हम नहीं जानते हैं। लेकिन एक तथ्य तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है:- यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ने में समय नष्ट करेंगे तो शायद बहुत देर हो चुकी होगी।

समाधान

ऋतु परिवर्तन से गंभीर समस्याएं उत्पन्न होंगी जिनका समाधान सभी देशों को मिल कर करना होगा। वर्षों से, पर्यावरण समस्याओं पर चचार्ओं के लिए अनेक सम्मेलन आयोजित किए गए हैं एवं अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए हैं। इस प्रक्रिया की शुरूआत 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन से हुई लेकिन ऋतु परिवर्तन पर वातार्लाप का आरंभ 1990 में हुआ। इन वातार्लापों का परिणाम 1972 में ऋतु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र प्राधार प्रतिज्ञा को अंगीकार करने के रूप में हुआ।

चूँकि मानवीय क्रिया-कलापों का जलवायु पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है, अत: काफी समाधान हमारे अपने हाथों में है। हम जीवाश्म इंधन के उपयोग में कटौती कर सकते हैं, उपभोक्तावाद को कम कर सकते हैं, वन-विनाश को रोक सकते हैं एवं पर्यावरणभिमुख कृषि उपायों के उपयोग को बढ़ा सकते हैं।

ऊर्जा क्षेत्र में, उत्सर्जन कम किया जा सकता है, यदि ऊर्जा की मांग कम की जाए और यदि हम उर्जा के ऐसे परिष्कृत स्रोत अपनाएं जिनसे कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन नहीं होता। इनमें सौर, वायु, भूताप एवं अणु उर्जा शामिल है। अनेक देशों ने कोयले का उपयोग बंद कर दिया है एवं उर्जा के परिष्कृत रूप को अपनाया है। ऊर्जा दक्षता एवं वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास में जापान विश्व में अग्रणी है।

उच्च तकनीकों एवं ईंधन पर चलने वाले वाहनों का परीक्षण किया जा रहा है एवं परिवहन क्षेत्र में कड़े उत्सर्जन नियम अपनाए जा रहे हैं। कुछ देशों ने उद्योगों पर जुमार्ना लगाना आरंभ कर दिया है यानि प्रदूषणकारी उद्योगों को वहां की जनता को जुमार्ना देना पड़ता है।

विश्व भर में सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वन क्षेत्र बरकरार रहे क्योंकि पौधे अपने विकास के लिए कार्बन डाइआक्साइड का उपयोग करते हैं एवं इस प्रकार इसे वातावरण से हटाने में मदद करते हैं। इसीलिए वनों को कार्बन डाइआक्साइड की नली कहा जाता है। यदि वनों की कटाई की जाती है तो अविलंब पौधे लगाए जाने चाहिए। बरसाती जमीन एक अन्य पारिस्थिक तंत्र है जो पारिस्थतिक संतुलन बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका द्वारा पर्यावरण को स्थिर बनाए रखती है। इन क्षेत्रों के संरक्षण को सर्वाेच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

जैव-तकनीकी का उपयोग फसलों की जलीय आवश्यकता को कम करने, फसल उत्पादन बढ़ाने एवं उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग कम करने के लिए किया जा सकता है। प्रयोगशालाओं में धान की ऐसी विशेष किस्मों का विकास किया जा रहा है जो कम जल में भी विकास कर सकती है एवं जिसके कारण मिथेन का कम उत्सर्जन होता है।

ग्रीनहाउस प्रभाव

पृथ्वी सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती है जो पृथ्वी के धरातल को गर्म करता है। चूंकि यह ऊर्जा वायुमंडल से होकर गुजरती है, इसका एक निश्चित प्रतिशत (लगभग 30) तितर-बितर हो जाता है। इस ऊर्जा का कुछ भाग पृथ्वी एवं सूर्य की सतह से वापस वायुमंडल में परावर्तित हो जाता है। पृथ्वी को ऊष्मा प्रदान करने के लिए शेष (70 प्रतिशत) ही बचता है। संतुलन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि पृथ्वी ग्रहण किये गये ऊर्जा की कुछ मात्रा को वापस वायुमंडल में लौटा दे। चूँकि पृथ्वी सूर्य की अपेक्षा काफी शीतल है, यह दृष्टव्य प्रकाश के रूप में ऊर्जा उत्सर्जित नहीं करती है। यह अवरक्त किरणों अथवा ताप विकिरणों के माध्यम से उत्सर्जित करती है। तथापि, वायुमंडल में विद्यमान कुछ गैसें पृथ्वी के चारों ओर एक आवरण-जैसा बना लेती हैं एवं वायुमंडल में वापस परावर्तित कुछ गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। इस आवरण से रहित होने पर पृथ्वी सामान्य से 300 सें. और अधिक ठंडी होती। जल वाष्प सहित कार्बन डाइआक्साइड, मिथेन एवं नाइट्रस आॅक्साइड जैसी इन गैसों का वातावरण में कुल भाग एक प्रतिशत है। इन्हें ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है क्योंकि इनका कार्य सिद्धांत ग्रीनहाउस जैसा ही है। जैसे ग्रीनहाउस का शीशा प्राचुर्य उर्जा के विकिरण को रोकता है, ठीक उसी प्रकार यह गैस आवरण उत्सर्जित कुछ उर्जा को अवशोषित कर लेता है एवं तापमान स्तर को अक्षुण्ण बनाए रखता है। एक फ्रेंच वैज्ञानिक जॉन-बाप्टस्ट फोरियर द्वारा इस प्रभाव का सबसे पहले पता लगाया गया था जिसने वातावरण एवं ग्रीनहाउस की प्रक्रियाओं में समानता को साबित किया और इसलिए इसका नाम ग्रीनहाउस प्रभाव पड़ा।

पृथ्वी की उत्पति के समय से ही यह गैस आवरण अपने स्थान पर स्थित है। औद्योगिक क्रांति के उपरांत मनुष्य अपने क्रिया-कलापों से वातावरण में अधिक-से-अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहा है। इससे आवरण मोटा हो जाता है एवं प्राकृतिक ग्रीनहाउस प्रभाव को प्रभावित करता है। ग्रीनहाउस गैसें बनाने वाले क्रिया-कलापों को स्रोत कहा जाता है एवं जो इन्हें हटाते हैं उन्हें नाली कहा जाता है। स्रोत एवं नाली के मध्य संतुलन इन ग्रीनहाउस गैसों के स्तर को बनाए रखता है।

मानवजाति इस संतुलन को बिगाड़ती है, जब प्राकृतिक नालियों से हस्तक्षेप करने वाले उपाय अपनाए जाते हैं। कोयला, तेल एवं प्राकृतिक गैस जैसे इंधनों को जब हम जलाते हैं तो कार्बन वातावरण में चला जाता है। बढ़ती हुई कृषि गतिविधियां, भूमि-उपयोग में परिवर्तन एवं अन्य स्रोतों से मिथेन एवं नाइट्रस आक्साइड का स्तर बढ़ता है। औद्योगिक प्रक्रियाएं भी कृत्रिम एवं नई ग्रीनहाउस गैसें जैसे सीएफसी (क्लोरोफ्लोरोकार्बन) उत्सर्जित करती है जबकि यातायात वाहनों से निकलने वाले धुंए से ओजोन का निर्माण होता है। इसके परिणामस्वरूप ग्रीनहाउस प्रभाव को साधारणत: भूमंडलीय तापन अथवा ऋतु परिवर्तन कहा जाता है।

(साई फीचर्स)