राहुल गांधी व मल्लिकार्जुन खड़गे मिलकर लौटा सकते हैं कांग्रेस का स्वर्णिम काल!

राहुल गांधी के लिए बनाए गए रोडमेप पर ही चलते दिख रहे मल्लिकार्जुन खड़गे!
(लिमटी खरे)


भारत के लोकतंत्र का उदहारण विश्व भर में दिया जाता है। देश के राजनैतिक दलों के अंदर भी अगर लोकतंत्र कायम रहे तो यह सोने में सुहागा ही माना जा सकता है। वैसे भी कांग्रेस के खाते में देश को ब्रितानी गोरों के जुल्म से आजादी का सूर्योदय करवाने में महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस के अंदर अध्यक्ष पद को लेकर कई बार कड़ा संघर्ष हुआ है।
आज के कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं को कांग्रेस का इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि कांग्रेस का योगदान क्या रहा है और कांग्रेस के अंदर की लोकतांत्रिक व्यवस्था किस तरह की रही है। कांग्रेस का इतिहास अगर खंगाला जाए तो आजादी के पहले 1938 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए किन्तु उसके अगले ही साल कुछ कारणों से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था, इसके बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष बनाया गया था।
आजादी के उपरांत सबसे पहले 1950 में कड़ा संघर्ष हुआ था अध्यक्ष पद के लिए। उस समय कांग्रेस के कद्दावर नेता आचार्य जीवट राम भगवान दास कृपलानी को पराजित कर राजऋषि पुरूषोत्तमदास टंडन ने अध्यक्ष पद पाया था। इसके बाद उनके द्वारा नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की, किन्तु पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ उनके मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने पद से त्यागपत्र दिया और अगले दो सालों तक पंडित जवाहर लाल नेहरू पार्टी के अध्यक्ष बने रहे।


स्व. इंदिरा गांधी जब कांग्रेस में सबसे शक्तिशाली बनकर उभरीं थीं, उस समय कांग्रेस का एक और विभाजन हुआ था। इसके बाद भी 1978 से 1983 तक वे कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। अध्यक्ष के साथ ही 1980 में प्रधानंमत्री पद पर भी काबिज हुईं एवं दोनों पद उन्होंने अपने पास ही रखे थे। इसके उपरांत राजीव गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए और वे प्रधानमंत्री बने। दोनों पद उन्हीं के पास रहे। यही उदहारण पी.व्ही नरसिंहराव ने भी प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्ष का पद अपने ही खाते में रखा।
1998 में कांग्रेस ने जब सोनिया गांधी पर विश्वास जताया और उसके बाद 1999 में केंद्र में भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार काबिज हो गई। 2001 की बात है जब चुनाव हुए तब जितेंद्र प्रसाद ने कांग्रेस की सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र श्रीमति सोनिया गांधी के खिलाफ ताल ठोंककर सबको चौंका दिया था। देखा जाए तो यह सब कुछ जितेद्र प्रसाद के द्वारा एक रणनीति के तहत किया गया था, ताकि सोनिया गांधी के खिलाफ विपक्षी दलों के द्वारा जो विषवमन किया जा रहा था उस पर अंकुश लग सके।
हालिया स्थिति में मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के बीच मुकाबला है। मल्लिकार्जुन खड़गे के लंबे सियासी अनुभवों और शशि थरूर के जोश के बीच मुकाबला होना है। निश्चित तौर पर इसमें खड़गे का पड़ला ही भारी दिख रहा है। कांग्रेस के चाणक्य माने जाने वाले राजा दिग्विजय सिंह के द्वारा जिस तरह की रणनीति अपनाई जा रही है उससे खड़गे की विजय में शायद ही शंका हो। मल्लिकार्जुन खड़गे दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के मूल निवासी हैं, एवं वे दलित समुदाय से हैं।
भाजपा के द्वारा पिछले दिनों आदिवासी समुदाय से ज्योति मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर सभी को असमंजस में डाल दिया था। अब सभी की नजरें 2024 के आम चुनावों पर हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को बेहतर प्रतिसाद मिल रहा है। इस लिहाज से कांग्रेस के अंदर अंडर करंट महूसस होने लगा है। अब सवाल यही है कि 2024 में विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा! इसके पीछे वजह यह है कि नरेंद्र मोदी की देश भर में लोकप्रियता के सामने टिकना आसान बात नहीं है।
शशि थरूर इन सारे समीकरणों को बेहतर तरीके से समझ तो रहे होंगे पर वे इसलिए कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होंगे क्योंकि खड़गे के पास 51 साल का संसदीय अनुभव जो ठहरा। इस लिहाज से राहुल गांधी के लिए जो रोडमेप उनके सलाहकारों ने बनाया होगा, उसे मूर्तरूप सिर्फ और सिर्फ मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे सारथी ही देने की स्थिति में नजर आ रहे हैं।
(साई फीचर्स)