सच्चे सतगुरु का पाठ

एक बार एक सच्चे सतगुरु के शिष्यों में स्वयं को महाज्ञानी दिखाने की होड़ लगी हुई थी। एक दिन सच्चे सतगुरु ने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया। सतगुरु के पास अंगीठी में दहक रहे कोयले गर्मी की तपन दे रहे थे। उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि इसमें दहक रहा सबसे बड़ा कोयला निकाल कर मेरे पास रख दो ताकि मैं उसकी तपन को नजदीक से प्राप्त करूं।

गुरु की आज्ञा मानकर शिष्यों ने तुरंत एक बड़ा अंगारा निकाल कर सतगुरु के पास रख दिया। थोड़ी देर में जो अंगारा तेजस्वी दिख रहा था और दहक रहा थावह धीरे-धीरे ठंडा होने लगा और उस पर राख जमने लगी। कुछ देर बाद वह पूरी तरह से मुरझा कर कोयला बन कर रह गया।

सतगुरु ने वह कोयला शिष्यों को दिखाते हुए कहा कि तुम सब लोग चाहे जितने तेजस्वी एवं ज्ञानी क्यों न होपर अपने जीवन में कोयले जैसी भूल ना कर बैठना। यह कोयला अगर अंगीठी में रहता तो देर तक गर्मी देतापरंतु अकेले यह ज्यादा देर तक न टिक सका। अब न तो इसका श्रेय रहा और न ही इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सकते हैं। मयार्दाओं की वह अंगीठी ही वह अंगीठी है जिसमें प्रतिभाएं संयुक्त रूप से सार्थक होती हैं।

(साई फीचर्स)