अभिव्यक्ति की पीठ पर खड़ी पत्रकारिता और प्रतिष्ठा के मौन में थरथराता न्याय : डिजिटल युग का द्वंद्व

(अभिमनोज)

जब पत्रकार अपने शब्दों से सत्ता की चुप्पियों को तोड़ता है, तो वह केवल सूचनाएँ नहीं बाँटता, वह सत्य की संभावनाएँ खोलता है। पर यही पत्रकार, जब डिजिटल माध्यम के अनियंत्रित तूफ़ान में खड़ा होता है, तो उसके शब्द तलवार बन सकते हैं—जिसका एक छोर जनहित की रक्षा करता है, और दूसरा अनजाने में किसी की प्रतिष्ठा को लहूलुहान कर सकता है। यही वह गहरी रेखा है, जहाँ भारत का संवैधानिक अधिकार—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता—और एक नागरिक का मौलिक सम्मान—प्रतिष्ठा की रक्षा—एक दूसरे से टकराने लगते हैं।

डिजिटल पत्रकारिता, जो आरंभ में स्वराज और स्वतंत्र संवाद की भूमि थी, अब एक ऐसा मंच बन गई है, जहाँ शब्दों की रफ़्तार सच्चाई से तेज़ और जिम्मेदारी से हल्की हो चली है। पारंपरिक मीडिया के पास संपादकीय अनुशासन, कानूनी समीक्षा और नैतिक मर्यादाएँ होती थीं; परंतु अब एक स्वतंत्र यूट्यूबर पत्रकार या ब्लॉग लेखक महज एक क्लिक में करोड़ों लोगों तक पहुँच सकता है। पर इसी शक्ति के साथ, उसकी एक असावधान अभिव्यक्ति समाज, कानून और व्यक्ति तीनों को प्रभावित कर सकती है।

शब्दों की अदालत: जब पत्रकारिता न्याय के कटघरे में होती है

पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा है, और उसकी सबसे बड़ी शक्ति उसका शब्द है। पर आज वही शब्द कई बार एफआईआर बन रहा है, और वही आवाज़ अदालतों में अपराध के कटघरे में खड़ी हो रही है। विशेषतः डिजिटल पत्रकारिता के इस नए युग में, जहाँ कोई स्वतंत्र पत्रकार अपने मोबाइल कैमरे या यूट्यूब चैनल के ज़रिये सत्ताधारी वर्ग को कटघरे में खड़ा कर सकता है, वहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानहानि के कानून के बीच का द्वंद्व एक तीखा और जटिल रूप ले चुका है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) हर नागरिक को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, किंतु अनुच्छेद 19(2) इस स्वतंत्रता पर कुछ “यथोचित प्रतिबंधों” की अनुमति देता है—जिनमें “मानहानि” प्रमुख है। यही वह संवैधानिक द्वंद्व है जहाँ पत्रकार का कलम और किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा एक-दूसरे के आमने-सामने आ खड़े होते हैं।

नए आपराधिक कानून—भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS)—में मानहानि को दंडनीय अपराध बनाए रखा गया है। BNS की धारा 356 (पूर्ववत IPC की धारा 499) मानहानि की परिभाषा देती है और धारा 357 (पूर्व IPC की धारा 500) इसके लिए दंड का प्रावधान करती है—जिसके अंतर्गत अधिकतम दो वर्ष की कारावास, जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है। साथ ही, IPC की धारा 500 (अब BNS की धारा 357) लंबे समय से यह स्थापित करती आई है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य की मानहानि करता है, तो यह एक आपराधिक अपराध होगा, और इसमें अदालत द्वारा दोष सिद्ध होने पर सजा दी जा सकती है।

इसके अतिरिक्त, यदि डिजिटल पत्रकारिता के किसी कृत्य में जानबूझकर झूठी सूचना फैलाने का उद्देश्य हो, तो BNS की धारा 197(1) (पूर्व IPC की धारा 505) भी लागू हो सकती है, जो सार्वजनिक शांति भंग करने वाली झूठी या भ्रामक खबरों को रोकने के लिए प्रयोग में लाई जाती है।

यहीं से प्रश्न उठता है: जब एक डिजिटल पत्रकार किसी मंत्री या प्रशासनिक अधिकारी के भ्रष्टाचार का खुलासा करता है, और उसके तुरंत बाद उस पर मानहानि का मुकदमा दर्ज होता है, तो क्या यह न्याय का अनुपालन है, या सत्य को दबाने का रणनीतिक प्रयास?

सुप्रीम कोर्ट ने ‘सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ’ (2016) में इस प्रश्न का उत्तर दिया था। न्यायालय ने कहा, “लोकतंत्र केवल राजनीतिक संरचना नहीं, विचारों का क्षेत्र है, और आलोचना उसकी प्राणवायु है। केवल इसलिए कि कोई सार्वजनिक व्यक्ति असहज होता है, उसे मानहानि का मामला बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” परंतु जमीनी हकीकत इस निर्णय के प्रतिकूल ही दिखाई देती है।

2021 में मध्यप्रदेश में एक स्वतंत्र पत्रकार ने फेसबुक पर एक मंत्री के ज़मीन विवाद की रिपोर्ट साझा की, और तुरन्त उसके विरुद्ध मानहानि की एफआईआर दर्ज हो गई। ठीक उसी वर्ष, उत्तर प्रदेश में पत्रकार मनोज सिंह ने कोविड काल में ऑक्सीजन की भारी कमी पर रिपोर्टिंग की, और उन पर न केवल मानहानि, बल्कि BNS की धारा 150 (पूर्व IPC की धारा 124A, राजद्रोह) भी लगा दी गई। यह घटना स्पष्ट करती है कि कुछ शक्तिशाली संस्थाएँ पत्रकारिता को चुनौती नहीं, अपराध मानने लगी हैं।

इस विधिक दमन की एक खतरनाक प्रवृत्ति है—SLAPP (Strategic Lawsuits Against Public Participation) यानी ऐसा मुकदमा जो पत्रकारों को चुप कराने और डराने के लिए दायर किया जाता है। भारत में इसके उदाहरण तेजी से बढ़ रहे हैं, जहाँ बड़े कारोबारी समूह, राजनेता और अधिकारी जानबूझकर मानहानि के मुकदमे का उपयोग कर रहे हैं ताकि पत्रकार दबाव में आकर रिपोर्टिंग से पीछे हट जाए।

इन मामलों में मानहानि एक औजार बन जाती है—अभिव्यक्ति को डराने का, न कि प्रतिष्ठा की रक्षा का। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर भी टिप्पणी की है कि “प्रेस की स्वतंत्रता केवल उसके अस्तित्व की बात नहीं, बल्कि उसकी निर्भीकता की भी रक्षा होनी चाहिए।”

लेकिन इस संवाद में केवल पत्रकारों को पीड़ित मान लेना भी न्याय नहीं होगा। डिजिटल पत्रकारिता में तथ्य-जांच, द्वितीय पक्ष की राय और भाषा की मर्यादा अक्सर उपेक्षित होती है। कई यूट्यूब पत्रकार रिपोर्ट नहीं, निर्णय सुना देते हैं। अगर कोई पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग में किसी को “भ्रष्ट”, “अपराधी” या “हत्यारा” घोषित करता है—बिना अदालत के निर्णय या स्पष्ट प्रमाण के—तो यह केवल मानहानि नहीं, पूर्वग्रहपूर्ण अभियोजन और BNS की धारा 73 (झूठा आरोप) के अंतर्गत दंडनीय हो सकता है।

न्यायपालिका का दृष्टिकोण और डिजिटल पत्रकारिता की चुनौती

उच्च न्यायालयों ने इस स्थिति पर कई बार स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाया है। बॉम्बे हाईकोर्ट का यह कथन कि “असुविधा पैदा करना अपराध नहीं होता” और सुप्रीम कोर्ट का यह रुख कि “पत्रकार की स्वतंत्रता लोकतंत्र की अनिवार्यता है”—इन दोनों ने यह सिद्ध किया है कि न्यायपालिका पत्रकारिता के मूल्यों को केवल शब्दों में नहीं, संवैधानिक दायित्व में भी पहचानती है। यही बात अर्णब गोस्वामी बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020) मामले में न्यायालय ने दोहराई थी, जहाँ स्वतंत्र रिपोर्टिंग को लोकतंत्र का अनिवार्य स्तंभ बताया गया।

लेकिन इस संवाद में केवल पत्रकारों को पीड़ित मान लेना भी न्याय नहीं होगा। डिजिटल पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसकी परिभाषा और उसकी सीमा दोनों अब भी स्पष्ट नहीं हैं। भारत सरकार द्वारा 2021 में बनाए गए डिजिटल मीडिया आचार संहिता और आईटी नियमों में ज़रूर कुछ दिशानिर्देश हैं, लेकिन ये मुख्यतः संगठित मीडिया मंचों के लिए बने हैं। व्यक्तिगत पत्रकार, स्वतंत्र यूट्यूबर और छोटे डिजिटल चैनल अभी भी एक अनिश्चित कानूनी क्षेत्र में काम कर रहे हैं—जहाँ उनके पास आत्मनियमन की शक्ति है, पर उस शक्ति को दिशा देने वाला कोई स्पष्ट कानून नहीं।

इसी शून्य में, न तो पत्रकार अपने दायरे को ठीक से समझ पाता है, और न ही कानून उसे अपराधी और उत्तरदायी के बीच के अंतर में सटीक जगह दे पाता है। फलस्वरूप, पत्रकार कभी सत्ता के सामने असहाय दिखता है, और कभी अपने ही पूर्वाग्रह का शिकार बन, दूसरों की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है। डिजिटल पत्रकारिता में तथ्य-जांच, द्वितीय पक्ष की राय और भाषा की मर्यादा अक्सर उपेक्षित होती है। कई यूट्यूब पत्रकार रिपोर्ट नहीं, निर्णय सुना देते हैं। अगर कोई पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग में किसी को “भ्रष्ट”, “अपराधी” या “हत्यारा” घोषित करता है—बिना अदालत के निर्णय या स्पष्ट प्रमाण के—तो यह केवल मानहानि नहीं, पूर्वग्रहपूर्ण अभियोजन और BNS की धारा 73 (झूठा आरोप) के अंतर्गत दंडनीय हो सकता है।

इसलिए यह प्रश्न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि उसकी गरिमा, मर्यादा और विधिक चेतना का भी है। लोकतंत्र में यदि पत्रकार अपने शब्दों से सच्चाई को उभारता है, तो उसे विवेक और संवेदनशीलता का दायित्व भी उठाना होगा। और यदि कोई नागरिक अपमानित होता है, तो उसे न्याय मिलना चाहिए—परंतु वह न्याय बदले का माध्यम नहीं होना चाहिए।

डिजिटल युग का पत्रकार अब केवल एक सूचना दाता नहीं, संविधान की आत्मा का संवाहक है। उसके शब्द लोकतंत्र की धमनियों में बहते हैं—पर यदि वे शब्द विवेकहीन हो जाएँ, तो वे न केवल प्रतिष्ठा, बल्कि अभिव्यक्ति को भी संकट में डाल सकते हैं। इसी कारण समय की आवश्यकता है एक व्यापक, न्यायोचित और संतुलित डिजिटल मीडिया कानून की—जो अभिव्यक्ति की रक्षा करे, परंतु अपमान को अनदेखा न करे।

पत्रकार को भय नहीं, दिशा की ज़रूरत है। कानून को शक्ति नहीं, संतुलन की आवश्यकता है। और समाज को यह बोध कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मान-सम्मान एक-दूसरे के शत्रु नहीं, लोकतंत्र की दो आँखें हैं। जब दोनों आँखें खुली होंगी—तभी यह राष्ट्र सच को देख सकेगा।

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साइबर विधि के अध्येता हैं।)

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(साई फीचर्स)

अखिलेश दुबे

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