समुद्र तट पर कैसे तैयार हुआ भगवान जगन्नाथ जी का मंदिर यह जानिए . . .

भगवान जगन्नाथ जी की संपूर्ण कथा को जानिए विस्तार से . . .
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एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला। पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है।
रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले।
तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी। वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया।
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सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना। माता ने कथा सुनानी आरम्भ की। सुभद्रा द्वार पर तैनात थी। थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया।
इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ। वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे। बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे।
कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ। उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे। तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे।
बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे। सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे। भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे।
कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले। आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें।
भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा।
कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई।
राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे। प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी। प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें।
दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो। इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें।
राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा। एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए। नीद में राजा ने एक सपना देखा। सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी।
इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो। मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो। उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी। राजा नीद से जाग उठे। सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई।
राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ। वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ।
राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई। सभी इसमें योगदान देने पहुंचे। दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए। कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ।
सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी। राजा फिर से चिंतित होने लगे। एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए।
राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं। मार्ग दिखाइए। आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे।
राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है। प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया। हे प्रभु मार्ग दिखाइए।
राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए। उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा। सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है। तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे।
इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई। सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी। उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा।
भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया। प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले।
उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति। वह चारों में सबसे कम उम्र के थे। प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई।
पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले। कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया। वन भयावह था। विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे। उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की।
भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी। प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे। जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था।
विद्यापति संगीत के जान कार थे। उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी। यह संगीत उन्हें दिव्य लगा। संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले।
वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए। पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे। विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे। सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी।
अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे। बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था। बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे।
बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया। स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा।
बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है। युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा।
वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी। वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी। ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा।
सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का। कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी। उन्हें जल पिलाया गया। विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे।
ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे। आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं।
विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था। ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें। जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें।
विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए। विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया। विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए।
विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके। वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे। उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे। ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया।
विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे। अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए। ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की।
इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया। विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले। विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया।
कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते। ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था। यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी।
इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली। विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्याेदय के बाद ही लौटता था। कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था।
विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ। उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई। आखिर विश्वावसु जाता कहां है। एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा। ललिता यह सुनकर सहम गई।
आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए।
विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्याेदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा। विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो।
ललिता के सामने धर्म संकट आ गया। वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था।
ललिता ने कहा- स्वामी! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं।
यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं। उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं। यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए। उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं।
इसके उपरांत की शेष कथा अगले एपीसोड में आपको सुनाएंगे . . . हरि ओम, जय जगन्नाथ जी,
अगर आप जगत को रोशन करने वाले भगवान भास्कर, भगवान विष्णु जी देवाधिदेव महादेव ब्रम्हाण्ड के राजा भगवान शिव एवं भगवान श्री कृष्ण जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी एवं भगवान कृष्ण जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय सूर्य देवा, जय विष्णु देवा, ओम नमः शिवाय, जय श्री कृष्ण, हरिओम तत सत, ओम नमो भगवते वासुदेवाय नमः लिखना न भूलिए।
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