लिमटी की लालटेन 625
एक ही बार में पूरी जानकारी देने से हिचक क्यों रहा एसबीआई! बिना नंबर के कैसे भुना लिए गए चुनावी बॉण्ड!
(लिमटी खरे)
एक महीने से ज्यादा समय से भारतीय स्टेट बैंक के द्वारा इलेक्टोरल बॉण्ड योजना को लेकर भारतीय स्टेट बैंक के द्वारा जिस तरह की लुकाछिपी खेली जा रही है वह किसके इशारों पर हो रही है यह शोध का विषय ही मानी जा सकती है। कितने आश्चर्य की बात है कि शीर्ष अदालत के द्वारा एक के बाद एक स्पष्ट आदेशों को न तो भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन ही समझ पा रहा था और न ही भारतीय स्टेट बैंक के काबिल वकील ही उसकी शायद व्याख्या कर पा रहे थे! अब शीर्ष अदालत के द्वारा यह आदेश दिया गया है कि चुनावी बॉण्ड से जुड़ी हर जानकारी 21 मार्च तक चुनाव आयोग के तक भेजी जाए। शीर्ष अदालत ने यह निर्देश भी दिए हैं कि भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन यह हलफनामा भी दायर करें कि उनके द्वारा कोई जानकारी छिपाई नहीं गई है।
विधि के जानकारों के अनुसार एक के बाद एक स्पष्ट आदेशों के बाद अब 21 मार्च तक जानकारी देने के आदेश के बाद भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन को अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था। देश के सियासी दलों को दिए जाने वाले चंदे के मामले में उद्योग संगठनों की ओर से एक अधिवक्ता ने बॉण्ड नंबर जारी करने के आदेश को रद्द करने की अर्जी लगाने की बात कहना भी अपने आप में कमाल है। अगर किसी ने किसी राजनैतिक दल को चंदा दिया है तो उसे देश की जनता को बताने में आखिर हर्ज ही क्या है!
भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन के रवैए को भी नोटिस करते हुए उन्हें भी दण्डित किए जाने की मांग उठाना वक्त का तकाजा ही होगा, क्योंकि 15 फरवरी को शीर्ष अदालत के द्वारा दिए गए स्पष्ट निर्देशों के बाद बार बार माननीय न्यायालय का समय किसी ओर के द्वारा नहीं, वरन भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन के द्वारा ही जाया किया जा रहा है। इस मामले में माननीय न्यायालय का जितना भी वक्त बर्बाद हुआ है उसकी भरपाई भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन के वेतन भत्तों से ही की जाना लाजिमी होगा।
आखिर क्या वजह है कि भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन के द्वारा लोकतंत्र के साथ ही साथ भारत की उस न्याय व्यवस्था जिस पर हर भारतीय पूरा भरोसा करता है के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। साथ ही उन वजहों को भी खोजना चाहिए जिन वजहों के चलते भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन के द्वारा चुनावी बॉण्ड्स की पूरी जानकारी सार्वजनिक किए जाने से बचा जा रहा है। हालात देखकर अगर आम भारतीय को यह लगने लगे कि कहीं भारतीय स्टेट बैंक के प्रबंधन को इन चुनावी बॉण्ड्स से व्यक्तिगत लाभ हो रहा होगा अथवा प्रबंधन खुद ही चुनावों में किस्मत आजमाने का विचार कर रहा हो, तो अतिश्योक्ति नहीं होगा।
सबसे बड़ा सवाल तो आज भी अनुत्तरित ही है कि भारतीय स्टेट बैंक की एक शहर की शाखा से किसी के द्वारा चुनावी बॉण्ड खरीदे जाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया गोपनीय रखी जाती है। दूसरे शहर में भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में इन बॉण्ड को भुनाया जाता है, तब भारतीय स्टेट बैंक को यह कैसे पता चला कि जो बॉण्ड भुनाए जा रहे हैं वे असली हैं! जाहिर है बैंक की दोनों शाखाओं को उन बॉण्ड्स के बारे में विस्तार से जानकारी रही होगी। जब बैंक की दो शाखाओं के पास पूरी पूरी जानकारी थी अथवा है तो यह जानकारी 15 फरवरी को शीर्ष अदालत के द्वारा दिए गए निर्देशों के उपरांत चुनाव आयोग को क्यों नहीं दे दी गई! आखिर क्या वजह थी कि भारतीय स्टेट बैंक के द्वारा पहले समय चाहा गया, फिर शीर्ष अदालत के कठोर रूख के चलते एक ही दिन में आधी अधूरी जानकारी उपलब्ध करा दी गई। अब शीर्ष अदालत के द्वारा 21 मार्च तक पूरी जानकारी चुनाव आयोग को देने के संबंध में निर्देश भारतीय स्टेट बैंक को दिए हैं। आशंका यही है कि 21 मार्च के पहले भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन फिर से कोई नई कहानी न गढ़ ले।
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देश के हर नागरिक के मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा हो कि भारतीय स्टेट बैंक के इस तरह आत्मविश्वास के जलते लट्टू के तार किस बैटरी से जुड़े हैं कि उसे लोकतंत्र में सर्वोच्च मानी जाने वाली न्यायपालिका के निर्देशों की भी परवाह नहीं है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारतीय स्टेट बैंक के द्वारा जो जानकारी चुनाव आयोग को दी गई है और चुनाव आयोग के द्वारा जो जानकारी अपनी वेब साईट पर डाली गई है वह दो हिस्सों में है। दोनों ही जानकारियों का आपस में कोई सीधा संबंध नहीं है, फिर किस आधार पर मीडिया में सीना ठोंककर यह दावा किया जा रहा है कि किसके दबाव में किसके द्वारा किस राजनैतिक दल को कितना चंदा दिया गया है!
भारतीय स्टेट बैंक तो इस मामले को वस्तुनिष्ठ प्रश्न के मानिंद ले रहा है कि उसे जो जानकारी देना है देगा, जो जानकारी नहीं देना है वह उसमें टालामटोल करेगा, समय चाहेगा। आखिर क्या वजह है कि शीर्ष अदालत को एक ही मामले में बार बार निर्देश जारी करना पड़ रहा है फिर भी भारतीय स्टेट बैंक प्रबंधन इस बारे में अपना रवैया सुधारने को तैयार नहीं है। आखिर यूनिक नंबर जिसे अल्फा न्यूमेरिक नंबर कहा जाता है उस बारे में भारतीय स्टेट बैंक स्पष्ट जानकारी देने से बचना क्यों चाह रहा है। भारतीय स्टेट बैंक की साख बहुत अच्छी मानी जा सकती है। लोगों का विश्वास आज भी भारतीय स्टेट बैंक पर बरकरार है, किन्तु चुनावी बॉण्ड योजना में अदालत के आदेशों के बाद अब भारतीय स्टेट बैंक की छवि अगर प्रभावित हो रही हो तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, इस पूरे मामले में देश की शीर्ष अदालत के द्वारा जो कुछ भी कहा जा रहा है वह वास्तव में भविष्य के लिए नज़ीर से कम नहीं होगा। इस पूरे मामले में भारतीय स्टेट बैंक के अड़ियल रवैए और जानकारियां, शीर्ष अदालत के द्वारा दिए गए निर्देश आदि सालों साल तक जनता के बीच चर्चित रहें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
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