राहुल गांधी के चाचा संजय गांधी, पिता राजीव गांधी और माता सोनिया गांधी की परंपरागत सीट रही है रायबरेली . . .

लिमटी की लालटेन 643

अमेठी फिर वायनाड अब रायबरेली, राहुल गांधी के बार बार सीट बदलने के मायने!

(लिमटी खरे)

कांग्रेस के युवराज माने जाने वाले राहुल गांधी इस बार उत्तर प्रदेश से एक बार फिर किस्मत आजमाएंगे। पिछली बार अमेठी लोकसभा सीट पर भाजपा की स्मृति ईरानी से पराजय का अंदेशा शायद राहुल गांधी को रहा होगा, यही कारण है कि उन्होंने अमेठी के साथ ही साथ केरल के वायनाड सीट से भी पर्चा भरा था। अमेठी सीट को राहुल गांधी बचा नहीं पाए पर वायनाड ने उनकी लाज जरूर रखी। इस बार उन्होंने इस बार वायनाड से दावेदारी की और अब अंतिम समय में उन्होंने अपने परिवार की परंपरागत सीट कही जाने वाली रायबरेली से भी पर्चा भर दिया है।

राहुल गांधी अगले माह 54 वर्ष के हो जाएंगे, फिर भी उन्हें अपेक्षाकृत युवा माना जा सकता है, कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की आशा उन पर टिकी है, लगातार दो चुनावों से दो दो सीटों पर पर्चा भरने से कार्यकर्ताओं में बहुत अच्छा संदेश शायद ही जा रहा हो। राहुल गांधी को खुद इस बात पर विचार करना चाहिए था कि आखिर उनसे भूल कहां हो रही है कि वे किसी एक सीट से उम्मीदवारी के लिए आश्वस्त क्यों नहीं हैं! अब गांधी परिवार की प्रतिष्ठा वे संभाल पाते हैं कि नहीं यह बात 04 जून को चुनाव परिणाम के आने के उपरांत ही पता चलेगा। अगर दोनों सीट से वे विजयी होते हैं तो फिर नया सवाल खड़ा होगा कि वे किस सीट को छोडेंगे, क्योंकि एक व्यक्ति दो सीटों पर प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।

चुनाव का तीसरा दौर मंगलवार को जब हो रहा होगा तब आप लिमटी की लालटेन का यह एपीसोड देख रहे होंगे। अबकी बार 400 पार जैसे नारों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परहेज ही करते दिख रहे हैं। इसके अलावा आम चुनावों के पहले दौर में जो मुद्दे थे, वे अब धार विहीन ही प्रतीत हो रहे हैं। मतदान के दो चरणों में कम वोटिंग ने भी नेताओं की नींद उड़ाकर रख दी है। आम धारणा तो यही बनती दिख रही है कि कोई भी नेता किसी भी दल की जीत के प्रति बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं दिख रहा है, क्योंकि मतदाता इस बार पहले की अपेक्षा ज्यादा मौन है और मतदान के प्रतिशत में गिरावट भी दर्ज की जा रही है।

लगभग चार पांच सालों से राहुल गांधी और कांग्रेस के खिलाफ भाजपा के आला नेता जिस तरह आक्रमक रूख अख्तियार किए हुए हैं, उसे देखकर राजनैतिक पण्डितों को तो यही लग रहा था कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की ओर शायद ही रूख करें। इसके पीछे दूसरा कारण यह भी बताया जा रहा है कि अचानक ही सोनिया गांधी ने रायबरेली सीट को तजकर राज्यसभा का रास्ता अपना लिया। लोकसभा हो या राज्यसभा दोनों ही के जरिए सांसद चुने जाते हैं, दोनों के अधिकार, कर्तव्य और वेतन आदि कमोबेश समान ही रहते हैं पर एक बात है कि लोकसभा में आपको मतदाताओं के सामने जाकर अपने आप को साबित करना होता है, पर राज्य सभा में चुने हुए विधायक ही आपकी राह आसान कर देते हैं।

बहरहाल, कांग्रेस के द्वारा राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश से प्रत्याशी बनाकर उत्तर भारत में अपनी पकड़ आज भी बरकरार रहने, इस क्षेत्र के मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए एक तरह से आक्रमक रूख ही अपनाया है। लंबे विचार विमर्श के बाद कांग्रेस के द्वारा अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीटों पर नामों का ऐलान किया है। जिस तरह से इन दोनों सीटों पर कशमकश और सस्पेंस बरकरार था उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के लिए यह महज अमेठी और रायबरेली सीट का मसला नहीं रह गया था। इसके जरिए कांग्रेस के शीर्ष नेता अनेक संदेश भी देना चाह रहे थे।

बात करें अमेठी और रायबरेली सीट की तो इन दोनों सीटों को नेहरू गांधी परिवार की पारंपरिक सीट ही माना जाता रहा है। ये सीटें गांधी परिवार के लिए लंबे समय से अभैद्य गढ़ रहीं हैं। शुरूआत से अब तक नेहरू गांधी परिवार से इतर लोगों ने भी इस सीट का प्रतिनिधित्व किया है, पर इन सीटों को मूल रूप से गांधी परिवार की पसंदीदा सीट ही माना जाता रहा है। पिछले लोकसभा चुनावों में अमेठी में राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने पराजित कर दिया था और इस बार रायबरेली से सोनिया गांधी ने चुनाव लड़ने की बजाए राज्यसभा से जाना बेहतर समझा, यही कारण था कि इन दोनों सीटों में ही वेक्यूम अर्थात शून्यता महसूस की जा रही थी। ये सीटें अगर गांधी परिवार के हाथ से चली जातीं तो भविष्य में इन्हें वापस लाना बहुत ही मुश्किल होता।

अमेठी की अगर बात की जाए तो अमेठी लोकसभा सीट में 1967 व 1971 में कांग्रेस के विद्याधर वाजपेयी, 1977 में बीएलडी के रवींद्र प्रताप सिंह, 1980 में कांग्रेस के संजय गांधी, 1981, 1984 एवं 1989, 1991 में राजीव गांधी, 1996 में सतीश शर्मा, 1998 में भाजपा के संजय सिंह, 1999 में सोनिया गांधी, 2004, 2009, 20014 में राहुल गांधी और उसके बाद 2019 में भाजपा की स्मृति ईरानी इस सीट से सांसद बनीं।

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इसी तरह अगर रायबरेली की बात करें तो 1952 व 1957 में राहुल गांधी के दादा फिरोज गांधी, 1960 में आरपी सिंह, 1962 में बैजनाथ कुरील, 1967 व 1971 में राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी, 1977 में जनता पार्टी के राजनारायण, 1984 में अरूण नेहरू, 1989 व 1991 में शीला कौल, 1996 व 1998 में भाजपा के अशोक सिंह, 1999 में सतीश शर्मा, इसके बाद 2004 से 2019 तक के चुनावों में सोनिया गांधी ने यहां से परचम लहराया। यह सीट भी ज्यादातर कांग्रेस विशेषकर गांधी परिवार के हाथ में ही रही।

रायबरेली और अमेठी में राहुल गांधी और प्रियंका वढ़ेरा की उम्मीदवारी की चर्चाएं जिस तरह चल रहीं थीं, उस सोशल मीडिया में टीकाटिप्पणियों के दौर भी लगातार ही जारी रहे। अमेठी से राहुल गांधी की उम्मीदवारी न होने से कुछ नेता राहुल गांधी को अमेठी से भागना भी निरूपित करते नजर आ रहे थे। कुल मिलाकर रायबरेली और अमेठी दोनों ही सीट कांग्रेस और गांधी परिवार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न से कम नहीं मानी जा सकती है।

राहुल गांधी ने रायबरेली में जिस तरह भावनात्मक पुट के साथ भाषण दिए वे मतदाताओं को कितना प्रभावित कर पाते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा पर सबसे बड़ा सवाल आज यही खड़ा दिख रहा है कि इस सीट के पहले सांसद फिरोज गांधी रहे जो राहुल गांधी के दादा थे। क्या राहुल गांधी अपने दादा का नाम यहां लेंगे या फिर अपनी दादी इंदिरा गांधी, पिता राजीव गांधी, और माता सोनिया गांधी के नामों का सहारा लेकर ही रायबरेली के लोकसभा चुनावों में वेतरणी पार करने का प्रयास करेंगे। यह सीट गांधी परिवार की परंपरागत सीट मानी जा सकती है पर यहां सबसे पहले विजयश्री का वरण राहुल गांधी के दादा फिरोज गांधी ने ही किया था।

(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)

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