लिमटी की लालटेन 648
मोबाईल ने छीन लिया नौनिहालों का बचपन, शालाओं में भी शारीरिक गतिविधियां लगभग शून्य, बीपी, शुगर के मरीजों की तादाद में इजाफा!
(लिमटी खरे)
आदि अनादिकाल से ही ऋषि मुनी कहते आए हैं ‘पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख जेब में हो माया . . .।‘ पर आज के दौर में असंयमित खानपान ने लोगों को तरह तरह की बीमारियों से लाद दिया है। आज आलम यह है कि शालाओं में अध्ययन करने वाले नौनिहालों को रक्तचाप, शुगर जैसे रोग जिन्हें राजरोग कहा जाता है आज आम दिखाई देते नजर आते हैं। सात आठ साल के बच्चों का वजन भी अपेक्षाकृत ज्यादा ही है। आज 10 से 15 साल के बच्चों की शारीरिक कसरत नहीं के बराबर ही है। सुबह उठकर शाला जाना, शाला में आठ से दस कालखण्ड अर्थात पीरियड्स की पढ़ाई, फिर घर आकर ट्यूशन के लिए रवाना और वापस आकर खाना खाकर विश्राम। इस बीच में जो समय मिला उसमें शारीरिक कसरत के बजाए मोबाईल की स्क्रीन पर ही बच्चों का समय बीतता नजर आता है।
देखा जाए तो बेहत स्वास्थ्य का अधार ही शारीरिक श्रम और संतुलित एवं अच्छा पौष्टिक आहार ही माना जाता है। इससे उच्च या निम्न रक्तचाप, डायबिटीज, हृदय संबंधी रोग, गुर्दे संबंधी रोग, कर्क रोग आदि जैसी बीमारियों को भी रोका जा सकता है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद आईसीएमआर की एक रिपोर्ट पर अगर गौर करें तो स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद नहीं रहने वाले आहार के कारण देश में 56.4 फीसदी लोग बीमार होते हैं। इस रिपोर्ट में आहार के संबंध में लगभग डेढ़ दर्जन दिशा निर्देश भी दिए गए हैं। इन दिशा निर्देशों का लब्बो लुआब यही है कि तेल और शक्कर का कम प्रयोग एवं फुड सप्लीमेंट से बचा जाए। स्वास्थ्य संबंधी इन नई परेशानियों की जद में बच्चों और युवाओं को अधिक देखा जा रहा है। मोटापा और मधुमेह अब युवाओं के बीच आम समस्या की तरह उभरे हैं।
कमोबेश यही बात हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान के द्वारा जारी दिशा निर्देशों में कही गई है। इसमें भी जंक फुड से दूर रहने की ही सलाह दी गई है। ब्रिटेन के एक मेडीकल जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक अल्ट्रा प्रोसैस्ड फुड का सेवन करने वालों में मौत का खतरा अन्य की तुलना में बहुत ज्यादा था। यह अध्ययन शोधकर्ताओं के द्वारा लगातार 34 सालों तक 44 हजार व्यस्क लोगों का आहार नियम और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी विस्तार से एकत्र करके किया गया था। दरअसल अल्ट्रा प्रोसैस्ड फुड उन्हें माना गया है जिनके वास्तविक और प्राकृतिक स्वरूपों में चीनी, नमक, वसा, कृत्रिम तत्वों की मात्रा अधिक की जाकर उसमें बहुत ज्यादा बदलावा किया जाता है। इस श्रेणी में डिब्बाबंद खाद्य सामग्री, नूडल्स, शीतल पेय, इंस्टैंट सूप, पैकेज्ड स्नैक्सा आदि आते हैं।
अभी ज्यादा समय नहीं बीता है जबकि देश में प्राकृतिक तौर पर पाई जाने वाली खाद्य सामग्री का ही उपयोग किया जाता था। हर घर के पीछे थोड़ी सी जगह हुआ करती थी, जिसे बाड़ा या बाड़ी कहा जाता था। यहीं घरों के बर्तन मंझते थे, कटी सब्जियां आदि फेकी जाती थीं। यहां लौकी, कद्दू, गिलकी आदि की बेल या मिर्ची, धनिया, टमाटर सहित हरी सब्जियां भी अपने आप ही इसलिए ऊग जाया करती थीं, क्योंकि इनके बीच वहां अनजाने में ही फेंक दिए जाते थे।
घरों में मवेशी पलते थे, उनके दूध का उपयोग कर मही, घी आदि घर पर ही बना करता था। घर पर ही मिर्ची, हल्दी, धनिया और अन्य मसाले कूटे जाते थे। सुबह के नाश्ते में रात की रोटी और दूध ही सभी को दिया जाता था। कहने का तातपर्य कि सब कुछ असल हुआ करता था। इसमें मिलावट की गुंजाईश न के बराबर ही हुआ करती थी।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि शहरी और कस्बाई क्षेत्रों की जीवनशैली में खानपान की आदतें बहुत तेजी से परिवर्तित हुई हैं। जबसे डिब्बाबंद और बने-बनाए भोज्य पदार्थों का बाजार बढ़ा है, तबसे खाने पीने के पारंपरिक नियम-कायदे छिन्न-भिन्न होने लगे हैं। बच्चों और युवाओं की जीभ पर बाजार का स्वाद अपना राज करने लगा है। जीभ को तो स्वाद पसंद है, पर उस स्वास्थ्य की हमारा शरीर क्या कीमत चुका रहा है इस बारे में कोई विचार करना मुनासिब नहीं समझता है।
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आज के समय में सुबह का नाश्ता मैगी, नूडल्स, समोसा, कचौड़ी आदि के रूप में परिवर्तित हो चुका है। सुबह के दूध की जगह चाय ने ले ली है। डिब्बाबंद खाद्य सामग्रियां घरों में रसोई की शोभा बढ़ा रहीं हैं। रात को सोते समय गर्म दूध के बजाए युवा शराब का सेवन करते नजर आते हैं। खाने के उपरांत सौंफ, अजवायन, अलसी आदि का सेवन किया जाता था, पर अब तो पान, तंबाखू, डिब्बाबंद पान मसाले, सिगरेट बीड़ी प्रचलन में है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक की अगर बात की जाए उस दौर में गांव में जितना बड़ा अदरक मिलता है उतनी बड़ी तो अदरक की गांठ महानगरों में मिला करती थी। इंजेक्शन लगाकर सब कुछ इंस्टेंट ही बड़ा करने का प्रयास जो जारी रहा है। आज फलों को मीठा बनाने और जल्द पकाने के लिए किस तरह के कैमिकल्स मिलाए जा रहे हैं, इसके वीडियो सोशल मीडिया पर अटे पड़े हैं। इन सबको देखकर यही लगता है कि क्या खाया जाए क्या नहीं!
रही सही कसर सोशल मीडिया के द्वारा निकाल दी जाती है। सोशल मीडिया नामक अघोषित यूनिवर्सिटी के व्हाट्सऐप कॉलेज हों, रील वाले कॉलेज हों, फेसबुक, इंस्टाग्राम, थ्रेड्स या कोई और कॉलेज, हर जगह आपको मोटापा, कैंसर, उक्त रक्तचाप आदि हर बीमारी के एक्सपर्ट अघोषित डाक्टर्स मिल जाएंगे, जो आपको तरह तरह के उपचार बताते नजर आएंगे। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, आर्टीफिशयल इंटेलीजेंस के समय में तो और बेड़ा गर्क होता दिखता है। आप अपने मोबाईल पर जिस भी विषय में वीडियो देखते हैं, आपको उसी विषय के वीडियो लगातार ही परोसना आरंभ कर देता है सोशल मीडिया। इस पर सरकार का कोई नियंत्रण ही नजर नहीं आता है।
केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय, वाणिज्य उद्योग मंत्रालय सहित अन्य जरूरी विभागों, सूबाई सरकारों के विभागों आदि को आपस में समन्वय बनाकर स्वास्थ्य के लिए खतरनाक डिब्बाबंद खाद्य सामग्रियों पर प्रतिबंध लगाया जाए साथ ही सोशल मीडिया यूनिवर्सिटी में बिना किसी चिकित्सकीय उपाधि (डिग्री) के तरह तरह के उपचार बताने वालों के खिलाफ भी कठोर कार्यवाही की जाना चाहिए, ताकि सदियों पहले से कही जाने वाली बात ‘पहला सुख निरोगी काया, दूसरा सुख जेब में हो माया‘ की पहली पंक्ति को तो चरितार्थ करने के मार्ग प्रशस्त हो सकें।
(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)