तर्पण एवं पिण्डदान का वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि . . .
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आश्विन मास में पड़ने वाला श्राद्ध पक्ष पूर्वजों के प्रति कृतध्नता, आदर, श्रद्धा का पर्व है। माना जाता है कि साल में एक समय ऐसा भी आता है जब पूर्वज स्वर्ग से उतर पृथ्वी पर आते हैं। यह वक्त आता है महालया श्राद्ध पक्ष में। मान्यता है कि इस पक्ष में पूर्वज धरा पर सूक्ष्म रूप में निवास करते हैं। साथ ही अपने संबंधियों से तर्पण व पिंडदान प्राप्त कर उन्हें सुख समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। महालया पक्ष में पिंडदान व श्राद्धकर्म का विशेष महत्व है। पितृ पक्ष के सोलह श्राद्धों का धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी है।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा अथवा हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
भाद्र मास की पूर्णिमा से पितृ पक्ष शुरू होता है, जो आर्श्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इस अवधि में सोलह श्राद्ध होते हैं। जिसे महालया श्राद्ध के नाम से जाना जाता है। इसमें पूर्वजों की मृत्यु तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी कारणवश कोई श्राद्ध कर्ता अपने पूर्वज का श्राद्ध करना भूल जाता है तो ऐसी स्थिति में आर्श्विन मास की अमावस्या अर्थात श्राद्ध के अंतिम दिन श्राद्ध करने का निर्णय सिंधु में विधान दिया गया है। भाद्र मास की पूर्णिमा से आर्श्विन अमावस्या तक पृथ्वीवासी अपने पूर्वजों की सेवा कर उनके निमित्त तर्पण व श्राद्ध करते हैं। शास्त्रों में मनुष्य पर तीन ऋण बताए गए हैं, जिसमें पितृ ऋण, देव ऋण व ऋषि ऋण शामिल हैं। इसमें पितृ ऋण सर्वाेपरि है। जहां पितृ पक्ष में पिंडदान व तर्पण का विशेष महत्व है, वहीं पितृ पक्ष का वैज्ञानिक रहस्य भी है। ज्योतिषाचार्याे के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान पृथ्वी सूर्यमंडल के निकट रहती है। इसलिए श्राद्धकर्ताओं द्वारा किए गए सभी तर्पण आदि सर्वप्रथम सूर्यमंडल पर पहुंचते हैं। आर्श्विन मास के आखिरी श्राद्ध के दिन पूर्वजों का तर्पण आदि कर उन्हें विविध व्यंजनों की पातली परोसी जाती है। इसे पितृ विसर्जन के नाम से भी जाना जाता है।
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जानकार विद्वानों का मत है कि पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध किया जाता है। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। इससे घर में धन, समृद्धि और खुशहाली रहती है। वहीं पितरों की नाराजगी परिवार में कई समस्याओं का कारण बनती है। घर में आर्थिक तंगी, धन हानि, झगड़े कलह होने के पीछे वजह पितृ दोष हो सकता है। इसलिए पितृ दोष ना लगे इसके लिए पितृ पक्ष के दौरान पितरों के निमित्त श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान कर लेने चाहिए।
तर्पण के दौरान कुश को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है, आइए जानते हैं कि पितृ कर्म में कुश का उपयोग आखिर महत्वपूर्ण क्यों है,
मान्यता है कि पितृ पक्ष के 15 दिनों के दौरान पूर्वज मृत्युलोक में आते हैं और अपने परिवार के आसपास रहते हैं। साथ ही भोजन पानी ग्रहण करते हैं। इसलिए लोग अपने पितरों के प्रति सम्मान प्रकट करने और उनकी क्षुधा शांत करने के लिए श्राद्ध, तर्पण आदि करते हैं। तर्पण करते समय जातक अपने सीधे हाथ की तीसरी उंगली में कुश धारण करते हैं। कुश को अंगूठी की तरह धारण किया जाता है। इसे पवित्री कहते हैं। नाम से ही जाहिर है कि कुश की अंगूठी को बहुत पवित्र माना गया है। पितरों के तर्पण के समय कुश की अंगूठी पवित्री धारण करने से पवित्रता बनी रहती है और पूर्वज तर्पण को पूरी तरह से स्वीकार कर लेते हैं।
कुश एक पवित्र घास होती है जो शीतलता प्रदान करती है। साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी कुश महत्वपूर्ण है। कुश में प्यूरीफिकेशन का गुण होता है। यह ाास जहां भी होती है आसपास के माहौल को प्यूरीफाई करती है, वहां के बैक्टीरिया अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं। साथ ही कुश घास एक बहुत अच्छी प्रिजर्वेटिव भी है।
वैसे देखा जाए तो श्राद्ध कर्म श्रद्धा का विषय है। यह पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम है। श्राद्ध आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं, से जुड़ा हुआ है। प्रैति ही बाद में बोलचाल में प्रेत बन गया। यह कोई भूत प्रेत वाली बात नहीं है। शरीर में आत्मा के अतिरिक्त मन और प्राण हैं। आत्मा तो कहीं नहीं जाती, वह तो सर्वव्यापक है, उसे छोड़ दें तो शरीर से जब मन को निकलना होता है, तो मन प्राण के साथ निकलता है। प्राण मन को लेकर निकलता है। प्राण जब निकल जाता है तो शरीर को जीवात्मा को मोह रहता है। इसके कारण वह शरीर के इर्द गिर्द ही घूमता है, कहीं जाता नहीं। शरीर को जब नष्ट किया जाता है, उस समय प्राण मन को लेकर चलता है।
अब सवाल यही है कि आखिर मन कहाँ से आता है? कहा गया है चंद्रमा मनसः लीयते अर्थात मन चंद्रमा से आता है। यह भी कहा है कि चंद्रमा मनसो जातः यानी मन ही चंद्रमा का कारक है। इसलिए जब मन खराब होता है या फिर पागलपन चढ़ता है तो उसे अंग्रेजी में ल्यूनैटिक कहते हैं। ल्यूनार का अर्थ चंद्रमा होता है और इससे ही ल्यूनैटिक शब्द बना है। मन का जुड़ाव चंद्रमा से है। इसलिए हृदयाघात जैसी समस्याएं पूर्णिमा के दिन अधिक होती हैं।
चंद्रमा वनस्पति का भी कारक है। रात को चंद्रमा के कारण वनस्पतियों की वृद्धि अधिक होती है। इसलिए रात को ही पौधे अधिक बढ़ते हैं। दिन में वे सूर्य से प्रकाश संश्लेषण के द्वारा भोजन लेते हैं और रात चंद्रमा की किरणों से बढ़ते हैं। वह अन्न जब हम खाते हैं, उससे रस बनता है। रस से अशिक्त यानी रक्त बनता है। रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से मज्जा और मज्जा के बाद अस्थि बनती है। अस्थि के बाद वीर्य बनता है। वीर्य से ओज बनता है। ओज से मन बनता है। इस प्रकार चंद्रमा से मन बनता है। इसलिए कहा गया कि जैसा खाओगे अन्न, वैसा बनेगा मन।
इसलिए माना जाता है कि मन जब जाएगा तो उसकी यात्रा चंद्रमा तक की होगी। दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा, मन उसी ओर अग्रसर होगा। प्राण मन को उस ओर ले जाएगा। चूंकि 27 दिनों के अपने चक्र में चंद्रमा 27 नक्षत्र में घूमता है, इसलिए चंद्रमा घूम कर अट्ठाइसवें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है। मन की यह 28 दिन की यात्रा होती है। इन 28 दिनों तक मन की ऊर्जा को बनाए रखने के लिए श्राद्धों की व्यवस्था की गई है।
वहीं, चंद्रमा सोम का कारक है। इसलिए उसे सोम भी कहते हैं। सोम सबसे अधिक चावल में होता है। धान हमेशा पानी में डूबा रहता है। सोम तरल होता है। इसलिए चावल के आटे का पिंड बनाते हैं। तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं। इसमें पानी मिलाते हैं, घी भी मिलाते हैं। इसलिए इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है।
इसी तरह हथेली में अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान है, वह शुक्र का होता है। शुक्र से ही हम जन्म लेते हैं और हम शुक्र ही हैं, इसलिए वहाँ कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश रखे हाथों से इस पिंड को लेकर सूंघता है। चूंकि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा होता है, इसलिए वह उसे श्रद्धाभाव से उसे आकाश की ओर देख कर पितरों के गमन की दिशा में उन्हें मानसिक रूप से उन्हें समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। इससे पितर फिर से ऊर्जावान हो जाते हैं और वे 28 दिन की यात्रा करते हैं। इस प्रकार चंद्रमा के तेरह महीनों में श्येन पक्षी अर्थात घुमंतु बाज की गति से वह चंद्रमा तक पहुँचता है। यह पूरा एक वर्ष हो जाता है। इसके प्रतीक के रूप में हम तेरहवीं करते हैं। गंतव्य तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए हर 28वें दिन पिंडदान किया जाता है। उसके बाद हमारा कोई अधिकार नहीं। चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा अथवा हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
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