कामाख्या देवी के मंदिर के अनेक रहस्य जानकर आप भी दातों तले दबा लेंगे उंगलियां . . .

जानिए विश्व की सबसे बड़ी तंत्र पीठ आखिर क्यों कहलाती है कामाख्या माई!
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कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से आठ किलो मीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी 10 किलो मीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वाेच्च स्थल है। पूर्वाेत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलो मीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वाेच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि कुण्ड) स्थित है। ये अष्टादश महाशक्तिपीठ स्तोत्र के अन्तर्गत है जो आदि शंकराचार्यने लिखा था।
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विश्व विख्यात और विश्व का एकमात्र मां कामाख्या महासिद्ध पीठ की एक मान्यता ये भी देवी ग्रंथ कुलावर्ण तंत्र और महाभगवती पुराण में बताई गई है कि जो भी कलयुग में इस स्वयंभू सिद्ध पीठ में गंगा मईया का गंगा जल लाकर चढ़ाएगा और उस में से ही महा नदी ब्रम्हपुत्र में डाल देगा उसको वाजपई यज्ञ का फल मिलेगा क्योंकि ये सभी पृथ्वी के साथ सभी लोकों की दिव्य शक्तियों का भी शक्ति केंद्र हमेशा रहा ही है।
साल में एक बार मनाया जाता है अम्बुवाची पर्व
विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत! एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। यह एक प्रचलित धारणा है कि देवी कामाख्या मासिक धर्म चक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है, इन तीन दिनों के दौरान, कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं।
इसका पौराणिक सन्दर्भ भी जानिए,
जानकार विद्वानों के अनुसार पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है।
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जानकार विद्वानों के अनुसार अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र मंत्र यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र मंत्र में पारंगत साधक अपनी अपनी मंत्र शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। और यही वक्त होता है जब विश्व के सबसे प्राचीनतम तंत्र मठ(चीनाचारी)आगम मठ के विशिष्ट तांत्रिक अपनी साधना करने तिब्बत से यहाँ आते है इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वाेच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वाेच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।
अब जानिए कामाख्या देवी की कथा के बारे में,
कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट अर्थात मुर्गे द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रम्हपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी कुक्टाचकि के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा। नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था।
जानकार विद्वानों के अनुसार आद्य शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रम्हपुत्र नद के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वाेच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ अर्थात योनिमुद्रा नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।
जानकार विद्वान बताते हैं कि सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वाेच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।
वहीं, पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी सती अपने योगशक्ति से अपना देह त्याग दी तो भगवान शिव उनको लेकर घूमने लगे उसके बाद भगवान विष्णु अपने चक्र से उनका देह काटते गए तो नीलाचल पहाड़ी में भगवती सती की योनि (गर्भ) गिर गई, और उस योनि (गर्भ) ने एक देवी का रूप धारण किया, जिसे देवी कामाख्या कहा जाता है। योनी (गर्भ) वह जगह है जहां बच्चे को 9 महीने तक पाला जाता है और यहीं से बच्चा इस दुनिया में प्रवेश करता है। और इसी को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना जाता है। भक्त यहां देवी सती की गिरी हुई योनि (गर्भ) की पूजा करने के लिए आते हैं जो देवी कामाख्या के रूप में हैं और दुनिया के निर्माण और पालन पोषण के कारण देवी सती के गर्भ की पूजा करते हैं। जिस प्रकार मनुष्य अपने माँ की योनि (गर्भ) से जन्म लेता है, लोगो की मान्यता है उसी प्रकार जगत की माँ देवी सती की योनि से संसार की उत्पत्ति हुई है जो कामाख्या देवी के रूप में है।
यहां मिलता है अनोखा प्रसाद,
अम्बुवाची मेले के दौरान यहा बहुत ही अनोखा और चामत्कारिक प्रसाद भक्तों को मिलता है, जो है लाल रंग का गीला वस्त्र। बताया जाता है कि देवी के रजस्वला होने से पूर्व माता कामाख्या की प्रतिमा के आसपास सूखा सफ़ेद कपड़ा बिछा दिया जाता है, लेकिन तीन दिन बाद जब कपाट खोले जाते हैं, तब यह वस्त्र माता की रज के कारण रक्त जैसे लाल हो जाते हैं और इस दिव्य प्रसादी वस्त्र को अम्बुवाची वस्त्र कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस वस्त्र को धारण करके शक्ति की उपासना करने से सिद्धी सुलभता से प्राप्त हो जाती है।
ब्रम्हपुत्र भी हो जाती है लाल,
हर वर्ष इस मेले के दौरान, पास ही में बह रही ब्रम्हपुत्र नदी का जल भी लाल रंग का हो जाता है, जोकि कामाख्या देवी के रजस्वला को दर्शाता है, इन दिनों इस नदी में स्नान करना भी वर्जित माना जाता है।
माना जाता है कि देवी कामाख्या माता पार्वती का योनि भाग हैं। हर महीने माता कामाख्या मासिक धर्म से गुजरती हैं, और इस दौरान मंदिर के गर्भगृह में केवल महिलाओं को ही प्रवेश दिया जाता है। पुरुषों को इस दौरान अशुद्ध माना जाता है, और उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से मना किया जाता है। मासिक धर्म के दौरान, देवी कामाख्या को रजस्वला माना जाता है, और इस दौरान पुरुषों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता है। यह मासिक धर्म चक्र 4 दिनों तक चलता है, और इस दौरान मंदिर बंद रहता है।
वहीं, देवी कामाख्या स्त्री शक्ति का प्रतीक हैं। मंदिर में पुरुषों को प्रवेश न देकर यह दर्शाया जाता है कि स्त्री पुरुषों से कमजोर नहीं है, बल्कि उनमें असीम शक्ति और सृजनात्मकता है। कामाख्या मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है, जो देवी सती के अंगों के गिरने का स्थान माना जाता है। इन शक्तिपीठों को देवी शक्ति का निवास स्थान माना जाता है, और पुरुषों को इन स्थानों पर प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है, क्योंकि उन्हें देवी के समक्ष पुरुष शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
कामाख्या मंदिर तांत्रिक विद्या का भी महत्वपूर्ण केंद्र है। यहां कई रहस्यमय और गोपनीय अनुष्ठान किए जाते हैं, जिनमें पुरुषों की उपस्थिति वर्जित है। कामाख्या मंदिर तांत्रिक पूजा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। तांत्रिक परंपरा में, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली माना जाता है। इसलिए, पुरुषों को कुछ तांत्रिक अनुष्ठानों और पूजाओं में भाग लेने की अनुमति नहीं है, जिनमें कामाख्या मंदिर में होने वाली पूजा भी शामिल है।
असम में कुछ सामाजिक रीति रिवाज भी हैं जिनके तहत महिलाएं मासिक धर्म के दौरान घर से बाहर नहीं निकलती हैं। कामाख्या मंदिर में भी इसी परंपरा का पालन किया जाता है। भारतीय समाज में, मासिक धर्म को अक्सर अशुद्ध माना जाता है। इसलिए, कुछ लोग मानते हैं कि पुरुषों को मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के संपर्क में नहीं आना चाहिए। यह रीति रिवाज कामाख्या मंदिर में पुरुषों के प्रवेश पर प्रतिबंध का एक कारण हो सकता है।
ये सभी मान्यताएं और रीति रिवाज सामाजिक और धार्मिक ग्रंथों पर आधारित हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती है। कामाख्या मंदिर में पुरुषों को प्रवेश न देने के पीछे धार्मिक, पौराणिक, सामाजिक और तांत्रिक कई कारण हैं। यह मंदिर स्त्री शक्ति का प्रतीक है और हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
मंदिर से जुड़ी जरूरी बातें जानिए,
भक्तों की मनोकामना पूरी होने के बाद कन्या भोजन कराया जाता है। वहीं कुछ लोग यहां जानवरों की बलि देते हैं। खास बात यह है कि यहां मादा जानवरों की बलि नहीं दी जाती।
कामाख्या देवी तांत्रिकों की मुख्य देवी हैं। इन्हें भगवान शिव की नववधू के रूप में पूजा जाता है।
माना जाता है कि यहां पर तांत्रिक बुरी शक्तियों को बड़ी आसानी से दूर कर देते हैं। यहां के साधुओं के पास एक चमत्कारिक शक्ति होती है, जिसका इस्तेमाल वे बड़े ही सोच समझकर करते हैं।
यह जगह तंत्र साधना के लिए भी महत्वपूर्ण जगह है। कहते हैं अगर किसी पर काला जादू हो, तो मंदिर में मौजूद अघोरी और तांत्रिक इसे उतार देते हैं। इतना ही नहीं, यहां काला जादू किया भी जाता है।
कामाख्या मंदिर का समय भी जान लीजिए,
कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक और फिर दोपहर ढाई बजे से शाम साढ़े पांच बजे तक चलता है। सामान्य प्रवेश निः शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं। आम तौर पर इसमें 3 से 4 घंटे लगते हैं। वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लगता है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति 501 रूपए की लागत पर उपलब्ध है। इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है।
अगर आप जगत जननी माता दुर्गा की अराधना करते हैं और अगर आप माता दुर्गा जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय भवानी, जय दुर्गा अथवा जय काली माता लिखना न भूलिए।
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(साई फीचर्स)