वाकई कमाल के थे ‘कमाल खान’

(लिमटी खरे)
लगभग 61 साल के कमाल खान के निधन का समाचार मिलते ही, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, लगा मानो सपना देख रहे हों, कमाल खान वाकई कमाल के थे। लगभग ढाई दशकों से वे टीवी की रिपोर्टिंग कर रहे थे और वे प्रिंट मीडिया में भी लंबे समय तक रहे।
जब हम दिल्ली में रहकर पत्रकारिता कर रहे थे, उस दौरान एक बार कव्हरेज के सिलसिले में लखनऊ जाने का मौका मिला। उसी दर्मयान कमाल खान से मुलाकात हुई। बहुत ही जिंदादिल इंसान और भाषा पर उनकी पकड़ बहुत ही गजब की थी। दिन में करीम्स में साथ खाना खाया। उन्होंने बातों बातों में हमें प्रिंट से इलेक्ट्रनिक मीडिया में आने की दावत दी। हमने कहा कि इसके पहले भी अनेक मित्र दिल्ली में यही बात कह चुके हैं, पर हमारा लगाव प्रिंट से ही था, सो हम कह बैठे कि मियां हमारी शादी प्रिंट से हो चुकी है . . . इस पर कमाल भाई ठहाका मारकर हंस पड़े। इसके बाद जब तक हम दिल्ली में रहे तब तक कमाल खान से लगभग हर सप्ताह बात हो ही जाया करती थी। अभी लंबे समय से कमाल खान साब से बातचीत नहीं हुई थी। फरवरी में एक कार्यक्रम में कानपुर जाने का कार्यक्रम तय किया था, तब लखनऊ जाकर कमाल खान साब से मिलने की तमन्ना भी थी।
कमाल खान की रिपोर्टिंग के हम पहले भी कायल रहे हैं, पर लखनऊ में उनसे रूबरू मुलाकात के बाद उनकी रिपोर्टिंग मिस नहीं करते थे। उन्हें हम सामान्य रिपोर्टर नहीं मानते थे, हमने दिल्ली में अनेक पत्रकारिता संस्थान में अध्यापन के दौरान भी कमाल खान का जिकर कर उनसे रिपोर्टिंग की विधा सीखने की बात भी कही थी। हम कहा करते थे कि कमाल खान साब जैसा बोलते हैं उसको आत्मसात करने की आवश्यकता है।
इक्कीसवीं सदी में जब पत्रकारिता धीरे धीरे पूंजीपतियों के घरों की लौंडी बनने पर अमादा थी उस दौर में नैतिकता, ईमानदारी और मूल्य आधारित पत्रकारिता करने वाले पत्रकार गिनती में ही हुआ करते थे। उस दौर में कमाल खान जैसी शख्सियत बहुत ही कम हुआ करती थीं। वे अपनी पत्रकारिता के दौरान दी जाने वाली पीटीसी (पीस टू कैमरा) में शेरो शायरी का उपयोग भी बहुत ही करीने से किया करते थे।
कमाल खान के बारे में एक बात तो बहुत ही स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि पत्रकारिता के पतन काल (जिस तरह की पत्रकारिता का आगाज पिछले दो तीन दशकों में हुआ है उसे पतन काल ही माना जा सकता है) में अपनी ईमानदारी, मूल्य आधारित पत्रकारिता और स्वाभिमान के साथ उन्होंने निष्पक्षता को भी बरकरार रखा।
बीति रात ही उनको चेनल पर देखा था। सुबह सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि कमाल भाई अब हमारे बीच नहीं रहे। 13 जनवरी की रात लगभग 09 बजे वे जिस अंदाज में अपनी बात को पुरजोर तरीके से रख रहे थे, उसको देखते हुए कोई भी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि यह उनकी आखिरी रिपोर्टिंग होगी!
वे उस काल के पत्रकार माने जा सकते हैं, जिस काल में अखबारों की संपादकीय (आज तो संपादकीय विहीन ही माने जा सकते हैं अखबार) पढ़ी जाया करती थीं। उस दौर में सिफारिश के बजाए आप अपनी काबिलियत के बल पर अखबार में नौकरी पाते थे। नब्बे के दशक में जब टीवी पत्रकारिता का जादू सर चढ़कर बोला उस दौर में आपकी आवाज के साथ ही साथ आपकी रिपोर्टिंग विशेषकर पीटीसी अर्थात सारा का सारा वाक्या चंद लाईन में लिखने की क्षमता को आंका जाता था।
कमाल खान जैसे पत्रकार का इस दुनिया से जाना पत्रकारिता के लिए बहुत बड़ी क्षति है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और उनके परिवार, संबंधियों, मित्रों आदि को इस दुख को झेलने की क्षमता प्रदान करे . . .
ऊॅ शांति ऊॅ.