महाकुंभ से जुड़ी लोककथा जानिए, आखिर किस वजह से हुआ था भगवान विष्णु व समुद्रराज में युद्ध!
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प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ का इतिहास, भारतीय पौराणिक कथाओं में पूरी तरह समाहित ही माना जाता है। कहा जाता है कि यह एक ऐसा महामेला है जो लाखों श्रद्धालुओं को एक साथ लाता है। उत्तर प्रदेश का प्रयागराज, महाकुंभ 2025 के आयोजन के लिए तैयार है और बाहें फैलाए श्रद्धालुओं के स्वागत का इंतजार कर रहा है।
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कुंभ मेले में एक ओर पुण्य सलिला गंगा, यमुना और सरस्वती के मिलन का दिव्य दर्शन होता है तो दूसरी ओर इस संगम में स्नान का अपना अलग ही महत्व है। आध्यात्म के साथ ही साथ आपसी सौहाद्र, एकता, धर्ममय वातावरण का इतना वृहद आयोजन विश्व में कहीं देखने को भी नहीं मिलता है।
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पुरातन काल से अब तक के दस्तावेजों, इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो जहां जहां नगर बसाए गए हैं वह इस बात को ध्यान में रखकर बसाए गए हैं कि उसके आसपास नदी या जल का कोई अन्य स्त्रोत अवश्य हो। इसलिए, हर्ष हो या विषाद, सुख हो अथवा दुख, जय हो या पराजय या फिर अपने मूल को पहचानने की जिज्ञासा ही क्यों ना हो, हमारे पांव खुद ही नदियों की ओर चल पड़ते हैं।
पौराणिक कथाएं बताती हैं कि युगों पहले इसी अमृत की खोज में सागर का मंथन हुआ और इससे निकला अमृत देवताओं और असुरों के बीच युद्ध का कारण बन गया। इस कुंभ की छीना-झपटी में अमृत छलक-छलक कर पृथ्वी चार स्थानों पर गिरा और नदियों में मिल गया। हरिद्वार-प्रयाग-नासिक और उज्जैन ही वह पवित्र स्थल हैं। यह चारों स्थल धर्म और आस्था के सनातनी केंद्र भी हैं। इन स्थानों पर कुंभ लगने की परंपरा भारत की संस्कृति का सबसे पुराना और सबसे ऐतिहासिक दस्तावेज है।
पुराणों के अनुसार, देवताओं और असुरों के बीच अमरत्व का अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया गया था। इस मंथन से अनेक अद्भुत वस्तुओं के साथ ही अमृत कलश भी निकला था। देवताओं और असुरों के बीच इस अमृत को पाने के लिए भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में अमृत की कुछ बूंदें धरती पर चार स्थानों पर गिरीं ये थे हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। इन्हीं स्थानों पर कुंभ मेला आयोजित होता है।
एक लोककथा के अनुसार, भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी क्षीरसागर में निवास करते थे। समुद्र का पुत्र शंख, जो समुद्र के सभी जीवों से कर वसूल करता था, विष्णु से भी कर मांगने आया। विष्णु ने शंख को समझाया कि वह किसी से कर नहीं लेते हैं। लेकिन शंख, असुरों के बहकावे में आकर विष्णु और लक्ष्मी का अपमान करने लगा। इस पर क्रोधित होकर विष्णु ने शंख का वध कर दिया।
शंख के वध से क्रोधित होकर समुद्रराज ने विष्णु को श्राप दिया कि लक्ष्मी उनसे अलग हो जाएंगी। इस श्राप के कारण लक्ष्मी समुद्र में विलीन हो गईं। देवताओं का ऐश्वर्य लुप्त हो गया और असुरों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवताओं ने विष्णु से मदद मांगी। विष्णु ने देवताओं और असुरों के साथ मिलकर सागर मंथन किया। इसी मंथन से निकले अमृत की बूंदों के धरती पर गिरने के कारण कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ।
इसी तरह एक अन्य जानकार के अनुसार लोक कथाओं में एक अन्य पौराणिक कथा का उल्लेख भी मिलता है, जिसके अनुसार कुंभ के आयोजन का आधार वाली पौराणिक कथा महाकुंभ के आयोजन से संबंधित भी है। इस कथा के अनुसार भगवान विष्णु और उनकी पत्नी माता लक्ष्मी से जुड़ी हैं। भगवान विष्णु, क्षीरसागर में अपनी पत्नी महालक्ष्मी के साथ शेष शैय्या पर विराजित रहते हैं और ऐसे ही एक दिन वह दोनों संसार की अनेक बातों पर माता लक्ष्मी के साथ चिंतन मनन कर रहे थे कि, इतने में वहां समुद्र के पुत्र शंख प्रकट हुए, समुद्र पुत्र शंख सिंधुराज के युवराज थे और उसे समुद्र ने सागर में रहने वाले सभी जीवों से कर लेने का दायित्व मिला हुआ था।
कथा के अनुसार शंख सभी से कर लेते थे और नियमानुसार पाताल और नागलोक भी सागर के तल में थे, ऐसे में वह भी सागर को कर देते थे। एक दिन पाताल में रहने वाले असुरों ने षड्यंत्र करके शंख की मति भ्रष्ट करते हुए का कि तुम सबसे तो कर लेते हो, लेकिन भगवान विष्णुजी कर क्यों नहीं लेते? माना कि उनका आसन समुद्र के अंदर नहीं, बल्कि उसकी सतह पर है, लेकिन सोचो कि अगर सागर ही नहीं होता तो वह शेषनाग की शैय्या कहां रखते? आखिर समुद्र ने उन्हें भी तो जगह दे ही रखी है।
कथा के अनुसार शंख उन असुरों की बातों में आ गये। वह अपनी गदा लेकर सागर के ऊपर प्रकट हुए और भगवान विष्णु पर क्रोध जताने लगे। उन्होंने अपशब्दों का प्रयोग करते हुए भगवान विष्णु से कहा कि उनका कर चुकाएं। यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा कि, नहीं शंख, मैंने कोई कर नहीं चुराया है, तुम अपने पिता समुद्र से नियम के बारे में पूछ लो, लेकिन दैत्यों की बात से बहका हुआ शंख कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था।
यह वाद विवाद चल ही रहा था कि अचानक शंख की नजर, देवी लक्ष्मी पर पड़ीं। लक्ष्मी रत्नों की खान हैं और सागर से निकलने वाले रत्न भी लक्ष्मी कहलाते हैं। ऐसे में सिंधुराज ने सृष्टि के प्रारंभ में लक्ष्मी को पुत्री माना था और उन्होंने देवी से अपनी पुत्री बनने का वरदान भी लिया था। लक्ष्मी भी अपने भाई की ऐसी बातों से अप्रसन्न हो रही थीं। वह शंख को ऐसा बोलने से रोकने ही वाली थीं कि शंख ने अब उनके ही प्रति बड़ा अपराध कर दिया। शंख ने कहा कि कर देने की इच्छा नहीं है और इतनी सुंदर स्त्री के साथ बैठे हो, लाओ कर के बदले में यही स्त्री दे दो। शंख की इस बात को सुनकर माता लक्ष्मी और भगवान नारायण दोनों ही क्रोधित हो गए। नाराज हुए भगवान विष्णु ने अपनी गदा से शंख का वध कर दिया।
कथा के अनुसार शंख के वध की जानकारी मिलते ही सागर राज बुरी तरह आग बबूला हुए और उन्होंने बिना सोचे-समझे ही भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जिस लक्ष्मी के कारण उन्होंने शंख का वध किया है उनसे ही उनका वियोग हो जाएगा और लक्ष्मी लुप्त होकर समुद्र में समा जाएंगीं। यह था तो श्राप, लेकिन इसके पीछे लीला रची गई थी कि इस तरह देवी लक्ष्मी समुद्र के घर में जन्म लेंगी। देवी लक्ष्मी का संसार से लोप हो गया और संसार का सारा ऐश्वर्य समुद्र में समा गया। उधर, देवताओं का लुटा हुआ ऐश्वर्य देखकर असुरों ने फिर से सेना संगठित की और उनपर चढ़ाई कर दी। देवता हार गए। इधर, भगवान विष्णु ने सागर राज से कई बार देवी लक्ष्मी को लौटाने का अनुरोध किया, लेकिन समुद्र ने उनकी बात नहीं मानी।
कथा के अनुसार इसके बाद भगवान विष्णु ने देवताओं के साथ मिलकर और असुरों का साथ लेकर सागर का मंथन किया। इस मंथन के कारण समुद्र के भीतर का संतुलन बिगड़ने लगा और उसे अपने अमूल्य रत्न गंवाने पड़े। इसके बाद उन्होंने हार स्वीकार करते हुए लक्ष्मी और अमृत कलश भी भेजा। देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से फिर से विवाह किया और अमृत कलश को लेकर देव-दानवों में युद्ध छिड़ गया।
कथा के अनुसार यही युद्ध धरती पर कुंभ मेले की वजह बना। इसके बाद शंख ने भी अपने आत्मा स्वरूप में लक्ष्मी-नारायण से क्षमा मांगी। भगवान विष्णु ने कहा अब तुम मेरे संबंधी हो गए हो इसलिए मेरी पूजा में निकट ही रहोगे, लेकिन क्रोधित लक्ष्मी ने कहा कि अब तुम्हें शरीर नहीं मिलेगा और मेरी तुम पूजा में शामिल नहीं रहोगे। इसके बाद से भगवान विष्णु की पूजा में तो शंख बजाया जाता है, देवी लक्ष्मी की पूजा में इसका निषेध है। सागर मंथन से निकला अमृत देवताओं और असुरों की छीना-झपटी में धरती पर चार स्थानों पर गिरा और वहां आज कुंभ का आयोजन किया जाता है।
कुंभ मेला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन ही नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह एकता, भाईचारे और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। लाखों लोग इस मेले में भाग लेते हैं और पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। कुंभ मेले की उत्पत्ति की यह कथा हमें बताती है कि भारतीय संस्कृति कितनी समृद्ध और विविध है। यह कथा हमें सिखाती है कि धर्म, संस्कृति और इतिहास एक-दूसरे से किस प्रकार जुड़े हुए हैं। हरि ओम,
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(साई फीचर्स)
पत्रकारिता के क्षेत्र में लगभग एक दशक से सक्रिय सुमित खरे, मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के ब्यूरो हैं.
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