कांग्रेस ही नहीं भाजपा में मचता दिख रहा सियासी संग्राम!

(लिमटी खरे)

 देश के हृदय प्रदेश में जिस तरह का हाई वोल्टेज सियासी ड्रामा चल रहा है उसके कारण कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सियासी दलों में अंदरूनी तौर पर कभी खुशी कभी गम की स्थितियां भी निर्मित होती दिख रही हैं। प्रदेश में कांग्रेस सत्ता पर काबिज है, विधायकों का जरूरी संख्याबल अभी उसके पास है। हालिया परिस्थियों के चलते आने वाले समय में क्या परिदृश्य बनेगा यह कहना अभी जल्दबाजी ही होगा। इधर, विपक्ष में बैठी भाजपा के द्वारा अपने तरीके से विधायकों को अपने पक्ष में करने के लिए सारे जतन किए जा रहे हैं। विधायकों को साधने कांग्रेस और भाजपा के द्वारा अपने सारे घोड़े छोड़ दिए गए हैं, यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। भाजपा सरकार बना लेगी इस तरह की बातें भी सोशल मीडिया पर जमकर चल रही हैं, पर इसी बीच भाजपा का मुख्यमंत्री कौन होगा, इस बात को लेकर अंदर ही अंदर जमकर घमासान भी मचा दिख रहा है। भाजपा में शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी स्वाभाविक मानी जा रही है पर यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें अगर फिर से सीएम की कुर्सी से नवाजा जाता है तो सूबे के अनेक नेता बागी भी हो सकते हैं।

लगभग एक पखवाड़े से देश के हृदय प्रदेश में सब कुछ सामान्य नहीं माना जा सकता है। किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने या सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के द्वारा जमकर जोड़तोड़ का गणित अजमाया जा रहा है। दरअसल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद अब सियासी नजारा बहुत कुछ बदला बदला दिखाई देने लगा है। सिंधिया गुट के माने जाने वाले विधायकों ने अपने त्यागपत्र भी भेज दिए हैं।

इन परिस्थितियों में भाजपा के द्वारा सरकार बनाए जाने की बात भी सामने आने लगी है। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए शिवराज सिंह चौहान का नाम भी सामने आने लगा है, पर शिवराज सिंह चौहान के नाम पर भाजपा के अंदर ही अंदर अब बासी कढ़ी में उबाल भी आता दिख रहा है। भाजपा के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो शिवराज सिंह चौहान पर अगर भाजपा के द्वारा दांव लगाया जाता है तो सूबे के अनेक नेता बगावत का रास्ता भी अख्तियार कर सकते हैं।

कांग्रेस के लगभग दो दर्जन विधायकों के द्वारा विधान सभा अध्यक्ष को दिए गए त्यागपत्र के बाद भाजपा की उम्मीदें बढ़ गई हैं। भाजपा के द्वारा मंगलवार को एक बैठक बुलाई, पर इस बैठक में वरिष्ठ नेताओं ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि गोपाल भार्गव की जगह शिवराज सिंह चौहान को विधायक दल का नेता कैसे चुना जा सकता है। यह बैठक बेनतीजा ही रही बताई जा रही है। भाजपा के अंदरखाने से जो खबरें छन छन कर बाहर आ रही हैं, उसके अनुसार सूबाई क्षत्रपों ने दो टूक शब्दों में यह कह दिया है कि अब नए नेता को मौका मिलना चाहिए, युवा तरूणाई को आगे लाना चाहिए। शिवराज सिंह चौहान 13 साल तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं, इसलिए 2018 की करारी हार को भी उन्हें स्वीकार करते हुए अब पीछे हटकर भाजपा को सशक्त बनाने की दिशा में प्रयास करने चाहिए।

संख्याबल की अगर बात की जाए तो मध्य प्रदेश में फिलहाल 228 विधायक हैं। इसमें से कांग्रेस के 114 सहित 07 अन्य का समर्थन उसे हासिल है। यहां सरकार बनाने के लिए 116 विधायकों की जरूरत है, पर कांग्रेस को 121 विधायकों का समर्थन हासलि है। 22 विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया है, उनका त्यागपत्र अगर स्वीकार कर लिया जाता है तो विधान सभा में कुल सीटें घटकर 206 रह जाएंगी और सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्याबल 104 की जरूरत होगी।

बहरहाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया के द्वारा कांग्रेस का दामन छोड़ते ही कांग्रेस सरकार पर तरह तरह के आरोपों की बौछार की गई है। देखा जाए तो जब भी कोई नेता किसी भी दल का दामन त्यागता है तो उसे वह दल बहुत ही ज्यादा अनैतिक दिखाई देने लगता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को अगर कोई बात खली रही थी, तो उन्हें इस बात को पार्टी फोरम पर उठाना चाहिए था। संभवतः उन्होंने इन बातों को वहां रखा भी हो, पर शीर्ष नेतृत्व के द्वारा उन्हें तवज्जो नहीं दिए जाने से इस तरह की स्थितियां निर्मित हुईं।

ज्योतिरादित्य सिंधिया और राहुल गांधी के बीच बहुत ही अच्छे ताल्लुकात हैं। इसके बाद भी उनकी कथित तौर पर की गई उपेक्षा के चलते उन्होंने कांग्रेस को अलविदा कर दिया। भारतीय जनता पार्टी को काडर बेस्ड अनुशासित दल माना जाता है। भाजपा के अपने उसूल हैं, सीमाएं हैं, तौर तरीके हैं। इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया किस हद तक अपने आप को ढाल पाते हैं, यह बात तो भविष्य के गर्भ में ही है, पर सियासी जानकार यह भी कहने से नहीं चूक रहे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा के साथ ज्यादा दिनों तक पटरी नहीं बिठा पाएंगे।

कांग्रेस के अंदर भी असंतोष का लावा जमकर खदबदा रहा है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा है। एक समय में देश की सबसे बड़ी पार्टी मानी जाने वाली कांग्रेस लगभग डेढ़ दो दशकों में हाशिए में सिमटती जा रही है। कांग्रेस के नेताओं का भी यही मानना है कि मध्य प्रदेश में डेढ़ दशक तक राज करने वाली भाजपा को जिस नेता के द्वारा उखाड़ने और कांग्रेस को सत्तारूढ़ करने में महती भूमिका निभाई उस नेता को ही पार्टी का साथ क्यों छोड़ना पड़ा! सियासत में कुछ जरूरी मसलों पर अगर थोड़ा सा भी विलंब कारित कर दिया जाए तो उससे नुकसान बहुत ज्यादा हो जाता है।

सियासी बियावान में उपेक्षा एक ऐसा शब्द है, जिसके मायने बहुत विस्त्रत माने जाते हैं। दरअसल, पार्टी लाईन, पार्टी की विचारधारा अब गुजरे जमाने की बातें हो चुकी हैं। वर्तमान परिदृश्य में तो नेताओं की पार्टी के अंदर पकड़, स्थिति, महात्वाकांक्षाएं, लोगों को साधने की क्षमता आदि से ही निष्ठाएं तय होने लगी हैं। फिलहाल जिस तरह का नजारा लोगों के सामने आया है उसे देखते हुए यही लग रहा है कि यह सब कुछ ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस की ओर से मध्य प्रदेश कोटे से राज्य सभा में नहीं भेजने के कारण ही हुआ है।

हालिया परिदृश्य में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों को अब मंथन की जरूरत इसलिए है, क्योंकि दोनों ही दलों के पत्ते पूरी तरह खुल चुके हैं इसके साथ ही शह और मात का खेल भी निर्णायक दौर में पहुंच चुका है। दोनों ही दलों को अब स्थानीय स्तर पर उभरने वाले असंतोष से निपटना टेड़ी खीर साबित हो सकता है। (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)