मध्यम वर्ग और सांस्कृतिक दरिद्रता: एक चिंतन
(युगल पाण्डेय)
आज का भारतीय मध्यम वर्ग रोज़ी-रोटी की ऐसी दौड़ में शामिल है, जहाँ जीवन की जद्दोजहद ने उसे सांस्कृतिक रूप से दरिद्र बना दिया है। यह वर्ग, जिसे देश की रीढ़ माना जाता है और जो आर्थिक प्रगति व सामाजिक गतिशीलता का प्रतीक रहा है, अपनी सांस्कृतिक समृद्धि की कीमत पर इस प्रगति को हासिल कर रहा है। साहित्य, कविता, कला और संस्कृति, जो कभी इस वर्ग की पहचान हुआ करती थीं, अब दैनिक भागदौड़ में कहीं पीछे छूट गई हैं। दूसरी ओर, ‘खुशी‘ का दिखावटी नकाब इस सांस्कृतिक रिक्तता को और बढ़ा रहा है, जो समाज में भ्रम और आत्मवंचना का माहौल पैदा कर रहा है।
मध्यम वर्ग की बदलती प्राथमिकताएं
आज भारतीय मध्यम वर्ग का जीवन मुख्य रूप से आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। सुबह से शाम तक की भागदौड़, लंबे काम के घंटे, ट्रैफिक जाम और डिजिटल स्क्रीन पर बिताया गया समय—इन सबने इस वर्ग को न केवल शारीरिक रूप से थकाया है, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक रूप से भी खोखला कर दिया है। पहले जहाँ घरों में साहित्यिक चर्चाएँ, कविता पाठ या संगीतमय शामें आम थीं, वहीं अब वही समय वेब सीरीज़, सोशल मीडिया या ओवरटाइम काम में बीत रहा है।
अच्छा साहित्य पढ़ना, जो कभी आत्मा को समृद्ध करता था, अब समय की बर्बादी माना जाने लगा है। प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर या समकालीन लेखकों की रचनाएँ किताबों की अलमारियों में धूल खा रही हैं। कविता, जो कभी भावनाओं को व्यक्त करने का सबसे सुंदर माध्यम थी, अब सोशल मीडिया के मीम्स और रील्स की चकाचौंध में खो गई है। मध्यम वर्ग का यह सांस्कृतिक पतन केवल व्यक्तिगत पसंद का परिणाम नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक और आर्थिक संरचना का हिस्सा है, जो लगातार उत्पादकता और उपभोग को बढ़ावा देती है।
“हैप्पीनेस इंडेक्स” का भ्रम और सांस्कृतिक रिक्तता
“हैप्पीनेस इंडेक्स” और “विकसित भारत” जैसी बातें एक ऐसी तस्वीर पेश करती हैं, जिसमें सब कुछ सही और समृद्ध दिखता है। बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स, डिजिटल इंडिया और चमकदार विज्ञापनों के ज़रिए एक ऐसी छवि बनाई जा रही है, जिसमें हर नागरिक खुशहाल और संतुष्ट नज़र आता है। लेकिन कृत्रिम खुशी का यह बुलबुला वास्तविकता से बहुत दूर है।
मध्यम वर्ग, जो इस विकास के केंद्र में है, आर्थिक दबावों, बढ़ती महँगाई और नौकरी की अनिश्चितता से जूझ रहा है। इस बीच, सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समय और संसाधनों की कमी ने उसे एक ऐसी दुनिया में धकेल दिया है, जहाँ वह न तो अपनी जड़ों से जुड़ा है और न ही भविष्य के प्रति आशावान है। विभिन्न प्रायोजित उत्सवों और प्रचारों में सांस्कृतिकता का दिखावा तो होता है, लेकिन यह सतही और बाज़ार-केंद्रित है। उदाहरण के लिए, साहित्यिक उत्सवों में अब किताबों से ज़्यादा सेलिब्रिटी लेखकों और ब्रांडिंग का बोलबाला है।
सांस्कृतिक दरिद्रता के व्यापक प्रभाव
सांस्कृतिक दरिद्रता केवल साहित्य या कविता तक सीमित नहीं है; यह समाज के नैतिक और भावनात्मक ढाँचे को भी कमज़ोर कर रही है। जब लोग अपनी भाषा, साहित्य और कला से कट जाते हैं, तो उनकी संवेदनशीलता और सहानुभूति भी कम होती है। मध्यम वर्ग, जो सामाजिक परिवर्तन का अगुआ रहा है, अब उपभोक्तावाद और व्यक्तिवाद की चपेट में है। यह वर्ग न तो सामाजिक मुद्दों पर गहराई से सोच पा रहा है और न ही सामूहिक रूप से अपनी आवाज़ उठा पा रहा है।
इसके अलावा, सांस्कृतिक रिक्तता ने एक तरह की बौद्धिक आलस्य को जन्म दिया है। लोग गहरे विचारों और जटिल साहित्य से बचते हैं, क्योंकि यह उनके “तेज़-रफ़्तार” जीवन में फिट नहीं बैठता। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली सतही सामग्री आसानी से उनकी मानसिक भूख को शांत कर देती है, लेकिन यह शांति अस्थायी और खोखली होती है।
समाधान की ओर: व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास
इस सांस्कृतिक दरिद्रता से उबरने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों की ज़रूरत है। मध्यम वर्ग को अपने समय और प्राथमिकताओं को फिर से तय करना होगा। कुछ संभावित कदम इस प्रकार उठाए जा सकते हैं:
= छोटे कदम उठाएँ: साहित्य पढ़ने या कविता सुनने के लिए कुछ मिनट निकालना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। स्थानीय पुस्तकालयों और साहित्यिक समूहों से जुड़ना भी मददगार साबित होगा।
= सामुदायिक प्रोत्साहन: सरकार और समुदायों को साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, जो किफ़ायती और सभी के लिए सुलभ हों, न कि केवल कुलीन वर्ग के लिए।
= डिजिटल माध्यम का सदुपयोग: मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग सांस्कृतिक समृद्धि के लिए भी किया जा सकता है। ऑनलाइन कविता पाठ, साहित्यिक चर्चाएँ और डिजिटल लाइब्रेरी इस दिशा में सहायक हो सकती हैं।
= शिक्षा में संस्कृति: स्कूलों और कॉलेजों में साहित्य, कला और संस्कृति को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहे।
भारत का मध्यम वर्ग आज एक दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ़ आर्थिक प्रगति और आधुनिकता की चमक है, तो दूसरी तरफ़ सांस्कृतिक दरिद्रता का अँधेरा। कृत्रिम “खुशी” का भ्रम इस समस्या को और गहरा रहा है। लेकिन अगर मध्यम वर्ग अपनी सांस्कृतिक जड़ों को फिर से खोज ले, तो वह न केवल अपनी आत्मा को समृद्ध कर सकता है, बल्कि समाज को भी एक नई दिशा दे सकता है। साहित्य और कविता को फिर से अपनाने का समय आ गया है, क्योंकि ये न केवल हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं, बल्कि हमारी मानवता का भी आधार हैं।
दूरध्वनि : 7042604343
(लेखक एक प्रख्यात भारतीय कंपनी में वरिष्ठ प्रबंधक हैं)
(साई फीचर्स)

मूलतः प्रयागराज निवासी, पिछले लगभग 25 वर्षों से अधिक समय से नई दिल्ली में पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय विनीत खरे किसी पहचान को मोहताज नहीं हैं.
समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया देश की पहली डिजीटल न्यूज एजेंसी है. इसका शुभारंभ 18 दिसंबर 2008 को किया गया था. समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया में देश विदेश, स्थानीय, व्यापार, स्वास्थ्य आदि की खबरों के साथ ही साथ धार्मिक, राशिफल, मौसम के अपडेट, पंचाग आदि का प्रसारण प्राथमिकता के आधार पर किया जाता है. इसके वीडियो सेक्शन में भी खबरों का प्रसारण किया जाता है. यह पहली ऐसी डिजीटल न्यूज एजेंसी है, जिसका सर्वाधिकार असुरक्षित है, अर्थात आप इसमें प्रसारित सामग्री का उपयोग कर सकते हैं.
अगर आप समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को खबरें भेजना चाहते हैं तो व्हाट्सएप नंबर 9425011234 या ईमेल samacharagency@gmail.com पर खबरें भेज सकते हैं. खबरें अगर प्रसारण योग्य होंगी तो उन्हें स्थान अवश्य दिया जाएगा.