जानिए भगवान श्री गणेश जी के विध्नराज अवतार के बारे में . . .

आखिर विध्नराज के रूप में भगवान श्री गणेश जी को अवतार क्यों लेना पड़ा . . .
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भगवान श्री गणेश जी की लीलाएं अपरंपार हैं। भगवान श्रीगणेश का विघ्नराज नामक अवतार ममतासुर के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था। यह अवतार विष्णु ब्रम्ह का वाचक है तथा शेषवाहन पर चलने वाला है। मान्यता है कि भगवान गणेश ने आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए विभिन्न अवतार लिए हैं। भगवान श्री गणेश जी के विभिन्न अवतारों की श्रृंखला में आज आपको भगवान श्री गणेश जी के विध्नराज अवतार के बारे में बताते हैं। एक बार माता पार्वती अपनी सखियों के साथ कैलाश पर्वत पर टहल रहीं थी, तभी बातचीत में माता को हंसी आ गई। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई और उन्होंने उसका नाम मम रख दिया।
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पौराणिक ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि भगवती माता पार्वती कैलाश पर्वत पर अपनी सखियों से बात करती हुई टहल रहीं थीं, तभी उन्हें किसी सखी की बात पर हंसी आ गई। उनके हास्य से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखते ही देखते पर्वताकार हो गया। पार्वतीजी ने उसका नाम ममतासुर रखा। उन्होंने उससे कहा कि तुम जाकर भगवान श्री गणेश जी का स्मरण करो। उनके स्मरण से तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। माता पार्वती ने उसे भगवान श्री गणेश जी का षडक्षर मंत्र प्रदान किया। ममतासुर माता के चरणों में प्रणाम कर वन में तप करने चला गया। वहां उसकी शम्बासुर से भेंट हुई। उसने ममतासुर को समस्त आसुरी विद्याएं सिखा दीं। उन विद्याओं के अभ्यास से ममतासुर को सारी आसुरी शक्तियां प्राप्त हो गयीं।
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शम्बासुर ने इसके बाद उसे विघ्नराज की उपासना की प्रेरणा दी। ममतासुर वहीं बैठकर कठोर तप करने लगा। वह केवल वायु पर रहकर विघ्नराज का ध्यान तथा जप करता था। इस प्रकार उसे तप करते हुए दिव्य सहस्त्र वर्ष बीत गये। प्रसन्न होकर गणनाथ प्रकट हुए। ममतासुर ने विघ्नराज के चरणों में प्रणाम कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की। इसके बाद उसने कहा कि हे प्रभो, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ब्रम्हाण्ड का राज्य प्रदान करें। युद्ध में मेरे सम्मुख कभी कोई विघ्न न हो। मैं भगवान शिव आदि के लिए भी सदैव अजेय रहूं। भगवान विघ्नराज ने कहा कि दैत्यराज! तुमने दुःसाध्य वर की याचना की है, फिर भी मैं उसे पूरा करूंगा।
ममतासुर वर प्राप्त करने के बाद सबसे पहले शम्बर के घर गया। वर प्राप्ति का समाचार जानकर वह परम प्रसन्न हुआ। उसने अपनी रूपवती पुत्री मोहिनी का विवाह ममतासुर से कर दिया। यह समाचार जब शुक्राचार्य को मिला तो उन्होंने धूमधाम से ममतासुर को दैत्यों का राजा बना दिया। एक दिन ममतासुर ने शुक्राचार्य से अपनी विश्वविजय की इच्छा प्रकट की। शुक्राचार्य ने कहा- राजन, तुम दिग्विजय तो करो, लेकिन विघ्नेश्वर का विरोध कभी मत करना। विघ्नराज की कृपा से ही तुम्हें इस शक्ति और वैभव की प्राप्ति हुई है।
ममतासुर ने इसके बाद अपने पराक्रमी सैनिकों द्वारा पृथ्वी लोक और पाताल लोक पर विजय प्राप्त कर ली। फिर स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। देवराज इंद्र से उसका भीषण संग्राम हुआ। रक्त की सरिता बहती रही, परंतु असुरों के बलवान होने के कारण उनके सामने देवता गण न टिक सके। पृथ्वी, पाताल के साथ ही अब स्वर्ग ममतासुर के अधीन हो गया। युद्धक्षेत्र में उसने भगवान विष्णु और शिव को भी पराजित कर दिया। सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड पर ममतासुर शासन करने लगा। देवताओं को बंदी गृह में डाल दिया गया। धर्माचरण का नाम भी लेने वाला कोई न रहा।
इन सबसे परेशान होकर सभी देवताओं ने कष्ट निवारण के लिए विघ्नराज की पूजा की। एक वर्ष की कठोर तपस्या के बाद भगवान विघ्नराज प्रकट हुए। देवताओं ने उनसे धर्म के उद्धार तथा ममतासुर के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान विघ्नराज ने नारद को ममतासुर के पास भेजा। नारद ने उससे कहा कि तुम अधर्म और अत्याचार को समाप्त कर विघ्नराज की शरण ग्रहण करो, अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है।
शुक्रचार्य ने भी उसे समझाया, पर उस अहंकारी असुर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ममतासुर की दुष्टता से विघ्नराज क्रोधित हो गये। उन्होंने अपना कमल असुर सेना के बीच ही छोड़ दिया। उसकी गंध से समस्त असुर मूर्छित एवं शक्तिहीन हो गये। ममतासुर कांपता हुआ विघ्नराज के चरणों में गिर पड़ा। उनकी स्तुति करते हुए क्षमा मांगी। विघ्नराज ने उसे क्षमा कर पाताल भेज दिया। देवगण मुक्त होकर प्रसन्न हो गये। चारों तरफ भगवान विघ्नराज की जय जयकार होने लगी।
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(साई फीचर्स)