इस तरह भी गीता पाठ कर आप पा सकते हैं पितृ ऋण से मुक्ति . . .

गीता के सातवें अध्याय का पाठ आपको दिला सकता है पितृ ऋण से मुक्ति . . .
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पितृ दोष जीवन में बहुत सारे कामों का कारक माना जाता है। पितृ दोष के निवारण हेतु वैसे तो अनेक उपाय बताए गए हैं, किन्तु पितृ पक्ष के दौरान भगवत गीता के सातवें अध्याय का पाठ करने से पितृ दोष से मुक्ति मिल सकती है। वैदिक ज्योतिष अनुसार कुंडली में कुछ ऐसे अशुभ दोष विद्यमान होते हैं। जिनकी वजह से मनुष्य को जीवन में कामयाबी नहीं मिल पाती। ऐसा ही एक दोष होता है पितृ दोष। जिसके कारण मनुष्य को भाग्य का साथ नहीं मिलता है। साथ ही जिंदगी भर उसे संघर्ष करना पड़ता है। रोजी रोजगार और व्यापार में बार बार असफलता हाथ लगती है।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा अथवा हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
गीत शब्द का शब्द विच्छेद है गीत और भगवद, इस शब्द का अर्थ भगवान यानी कि भगवद गीता को भगवान का गीत कहा गया है। पितृपक्ष में श्रीमदभागवत गीता का पाठ करने से पूर्वजों का उद्धार होता है। पितृ दोष से मुक्ति और पितृ शांति मिलती है। शास्त्रों में इसे पितरों के कल्याण का सबसे सरल उपाय बताया गया है। जन्म के साथ ही मनुष्य पर देव, गुरु पितृ ऋण होते हैं। गुरु के बताए रास्ते का पालन करके गुरु ऋण, देवताओं की पूजा करके देव ऋण तथा पूर्वजों का तर्पण श्राद्ध, पिंडदान करके पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है।
पितृ दोष शांति के लिए शास्त्रों में पितृ पक्ष के 15 दिनों का उल्लेख मिलता है। जिसमें तर्पण और पिंड दान करके अपने पूर्वजों को प्रसन्न किया जा सकता है। लेकिन ज्योतिष के अनुसार भगवत गीता के सातवें अध्याय का पाठ करके भी पितृ ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है। आइए जानते हैं इस अध्याय का महत्व और पाठ करने का नियम, . . .
सबसे पहले जानते हैं भगवत गीता के सातवें अध्याय के महत्व के संबंध में,
महाभारत शुरू होने से पहले भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का का ज्ञान दिया था। इस गीता का सातवां अध्याय पितृ मुक्ति और मोक्ष से जुड़ा है। कहा जाता है कि ज्योतिष के अनुसार पितृ पक्ष में गीता के सातवें अध्याय का पाठ करने से पितृ दोष से मुक्ति मिल सकती है। इस अध्याय का नाम ज्ञान विज्ञान योग है। इस अध्याय का पाठ श्राद्ध में जितना हो सके, उतना करने का प्रयास करें। अगर इस अध्याय का पाठ खुद नहीं कर पाएं तो किसी योग्य ब्राम्हाण से करा सकते हैं।
दरअसल पितृ दोष से मुक्ति पाने का वो रास्ता है भगवद गीता का। जी हां गीता के पाठ से भी पितृ दोष से मुक्ति पाई जा सकती है। गीता में लिखा है क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि, व्यग्र होती है जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है और जब तर्क मरता है तो मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है और उसका पतन शुरू हो जाता है और इस आधार पर बहुत सारी ज्ञान और बुद्धि खोलने वाली बाते गीता में लिखी गई है।
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अब अगर आप भगवत गीता के सारे अध्याय नहीं कर सकते तो जानकार विद्वानों के द्वारा विशेष तरीका जिसे पढ़ने या सुनने मात्र से आपको पितृ दोष से मुक्ति मिलकर अपने पितृरेश्वरों का आशीर्वाद मिलेगा और वो चमत्कारिक उपाय है गीता का सप्तम अध्याय। भगवत गीता का सप्तम अध्याय हमारे पितृ मुक्ति और मोक्ष से जुड़ा हुआ है जो भी मनुष्य पंडितों को भोजन नहीं करा सकते है, विदेशों में निवास करते हैं, वे कैसे पितृ दोष से मुक्ति पाएं उनके लिए यह संभव नहीं होता है कि वो विधिपूर्वक तर्पण, भोजन, व पिंडदान आदि करें। तो ऐसे में ये पाठ करने मात्र से आपको श्रेष्ठ फलों की प्राप्ति होगी।
श्राद्ध कर्म पूर्ण करने के पश्चात एक आसन बिछाइए और पास में छोटा सा कलश भरकर रखिए। प्रथम श्राद्ध के दिन अर्थात पूर्णिमा के दिन जब से श्राद्ध शुरू होते है। उस दिन दाहिने हाथ में जल रखकर संकल्प लीजिए कि मैं ये गीता पाठ अपने पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति हेतु करूंगा। अब दिन है सोलह और गीता के अध्याय के अठाराह तो जिस दिन घर में हमारे पितरों का श्राद्ध होता है उस दिन दो अध्यायों का पाठ करना चाहिए। आसपास रहने वाले बुजूर्ग और घर परिवार के सदस्यों को विषेष रूप से बिठा कर गीता पाठ करना अत्यंत लाभदायी है।
आईए अब आपको बताते हैं भागवत गीता के सातवें अध्याय ज्ञान विज्ञान योग का पाठ,
श्री भगवान ने कहा हे पृथापुत्र! अब उसको सुन जिससे तू योग का अभ्यास करते हुए मुझमें अनन्य भाव से मन को स्थित करके और मेरी शरण होकर सम्पूर्णता से मुझको बिना किसी संशय के जान सकेगा।
मैं तेरे लिये इस विज्ञान सहित तत्त्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता।
हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्भि और अहंकार भी इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीव रूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान।
हे महाबाहु अर्जुन! परन्तु इस जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति (माया) के अतिरिक्त अन्य चेतन दिव्य स्वरूप परा प्रकृति (आत्मा) को जानने का प्रयत्न कर, जिसके द्वारा जीव रूप से संसार का भोग किया जाता है।
हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण हूँ।
हे धनञ्जय! मुझ से भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश मुझ में गुंथा हुआ है।
हे अर्जुन! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।
मैं पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।
हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझको ही जान। मैं बुद्बिमानों की बुद्भि और तेजस्वियों का तेज हूँ।
हे भरत श्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्त्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात् सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ।
और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मुझ से ही होने वाले हैं ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उन में मैं और वे मुझ में नहीं हैं।
गुणों के कार्य रूप सात्त्विक, राजस और तामस इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार प्राणि समुदाय मोहित हो रहा है, इसीलिये इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को नहीं जानता।
क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्बूत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है ; परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं, अर्थात् संसार से तर जाते हैं।
माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभाव को धारण किये हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त्त, जिज्ञासु, और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्त्त जन मुझ को भजते हैं।
उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्त्ति वाला ज्ञानी भक्त्त अति उत्तम है ; क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है ; क्योंकि वह मदगत मन बुद्भि वाला ज्ञानी भक्त्त अति उत्तम गति स्वरूप मुझ में ही अच्छी प्रकार स्थित है।
बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्व ज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
उन उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजते हैं।
जो जो सकाम भक्त्त जिस जिस देवता के स्वरूप को श्रद्बा से पूजना चाहता है, उस उस भक्त्त की श्रद्बा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।
वह पुरुष उस श्रद्बा से युक्त्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है।
परन्तु उन अल्प बुद्भि वालों का वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
बुद्भि हीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दधन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म कर व्यक्त्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।
अपनी योग माया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जन समुदाय मुझ जन्म रहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने मरने वाला समझता है।
हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्बा भक्त्ति रहित पुरुष नहीं जानता।
हे भरत वंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्बेष से उत्पन्न सुख दुःखादि द्बन्द्ब रूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञता को प्राप्त हो रहे हैं।
परन्तु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग द्बेष जनित द्बन्द्ब रूप मोह से मुक्त्त दृढ़ निश्चयी भक्त्त मुझ को सब प्रकार से भजते हैं।
जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिये यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रम्ह को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।
जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सब का आत्म रूप ) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्त्त चित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा अथवा हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
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(साई फीचर्स)