कार्तिक माह की कथा के श्रवण मात्र से ही मनुष के सभी पाप हो जाते हैं नष्ट . . .

सूत जी के द्वारा विस्तार पूर्वक बताई गई कार्तिक माह की कथा जानिए . . .
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श्री सूत जी का नाम तो आप सभी ने सुना ही होगा। क्या आप जानते हैं कि सूत जी कौन थे! दरअसल श्री सूत जी का असली नाम रोमहर्षण था, क्योंकि उसका सत्संग पाकर श्रोताओं का रोम रोम हर्ष से भर उठता था। वे बहुत अच्छे वक्ता थे, आईए आपको सूत जी के द्वारा बताई गई कार्तिक माह की कथा के बारे में बताते हैं . . .
अगर आप भगवान विष्णु जी एवं भगवान श्री कृष्ण जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी एवं भगवान कृष्ण जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा, जय श्री कृष्ण अथवा हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार सनकादि ऋषियों से कहा कि अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तारपूर्वक सुनाता हूं, जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।
सूतजी ने कहा कि श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात। सत्यभामा प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण से बोली : हे प्रभु! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ जैसी त्रौलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं, जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी। मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधिपूर्वक दान में दिया, परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है। यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है। हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूं। आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक सुनाइये जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।
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सूतजी आगे बोले : सत्यभामा के ऐसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हंसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं रुकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले : हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो। तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र और देवताओं से विरोध किया था। हे कान्ते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।
एक दिन मैंने अर्थात श्रीकृष्ण जी ने तुम्हारी अर्थात सत्यभामा की इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा। इन्द्र द्वारा मना किए जाने पर इन्द्र और गरुड़ में घोर युद्ध हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी गौओं से युद्ध किया। गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएं उत्पन्न हुई। कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी। इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये। इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा चकवी उत्पन्न हुए। हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है।
यह सुनकर सत्यभामा ने कहा : हे प्रभो! कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं। मेरा स्वभाव कैसा था, मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा। मैंने घ्सा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई?
श्रीकृष्ण ने कहा : हे प्रिये! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किए गए पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूं, उसे सुनो। पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रि गोत्र में वेद वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राम्हण निवास करता था। वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था। वह सूर्य के समान तेजस्वी था। वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई। उस पुत्रहीन ब्राम्हण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया। वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भांति सम्मान देता था।
एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये। जब वे हिमालय में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया। उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहां से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला। चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे गणादि उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये। उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।
गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी, इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूं। जैसे एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है। जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।
कार्तिक मास सबसे शुभ महीना है और श्री श्री राधा मदन मोहन को सबसे प्रिय महीना है। इसका वर्णन हरि भक्ति विलास 16 के 39 व 40 में किया गया है।
न कार्तिक समो मासो न कृतेन समं युगम
न वेद सदृसं न तीर्थ गंगाय समम
कार्तिकः प्रवरो मासो वैष्णवनं प्रियः सदा
कार्तिकं स्कलम् यस्तु भक्त्या सेवते वैष्णवः
कार्तिक के बराबर कोई दूसरा महीना नहीं है और सत्ययुग के बराबर कोई युग नहीं है। वेदों के बराबर कोई शास्त्र नहीं है। गंगा के बराबर कोई तीर्थ नहीं है। कार्तिक सभी महीनों में प्रमुख है और वैष्णवों अर्थात भगवान श्री कृष्ण के भक्तों को बहुत प्रिय है। इसलिए, वैष्णव इस महीने में परम भगवान की बड़ी भक्ति के साथ सेवा करते हैं।
श्री कृष्णजी ने कहा : हे देवि! गुणवती अपने पिता और स्वामी को राक्षस द्वारा मारे जाने का संवाद सुनकर पिता और पति के क्लेश से दुःखित होकर करुण विलाप करने लगी। हाय नाथ! हाय पिता! हमको त्याग कर तुम कहां चले गए? मैं अकेली कन्या हूं। आप लोगों के बिना असहायिनी मैं अब क्या करूं? अब मेरे भोजन और वस्त्रादी की व्यवस्था कौन करेगा? घर में स्नेह पूर्वक पालन पोषण कौन करेगा? मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की रक्षा कौन करेगा? मैं मूर्खा कहां जाऊं? कौन मेरे दुःख को दूर करेगा? कहां रहूं? क्या करूं? हाय देव! मुझ पर ऐसा कोप हुआ, अब कैसे जीऊं? मैं बड़ी ही पापिन हूं। श्रीकृष्ण जी ने कहा कि इस तरह रोती हुई वह मृगी की तरह व्याकुल होकर अपने को भाग्यहीना, असुखी, आशाहीन, जीवनहीन कहती हुई बोली कि अब मैं किसकी शरण में जाऊं जो मेरे दुःख को हरे। तत्पश्चात् वायु से आहत केले के वृक्ष की तरह वह पृथ्वी पर गिर पड़ी। अधिक देर बाद होश में आई, फिर भी अत्यन्त करुण विलाप कर बहुत विकल होकर शोक महासागर में डूब गई।
अपने घर की सारी वस्तुएं बेचकर सावधानी के साथ उसने अपने पिता और पति की यथाशक्ति श्राद्ध आदी क्रिया की। उसके पश्चात् उसी पुरी में निवास करती हुई वह विष्णु भगवान की भक्ति में तत्पर होकर शुद्ध तथा शान्त स्वभाव से अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करके वहीं रहने लगी। उसने जन्म से लेकर मरण तक एकादशी का व्रत तथा कार्तिक मास का विधिवत सेवन किया। हे प्रिये! ये दोनों एकादशी और कार्तिक व्रत हमें बड़े ही प्रिय हैं। भुक्ति, मुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति को देनेवाले परम पवित्र हैं। जो मनुष्य तुला की संक्रान्ति रहते हुए कार्तिक मास में प्रातः काल में स्नान करते हैं, वे चाहे पापी ही हों तो भी वे पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य कार्तिक स्नान, जागरण, दीप दान तथा तुलसी के वृक्ष की रक्षा करते हैं, वे साक्षात् विष्णु भगवान के तुल्य हैं। जो भक्त कार्तिक मास में विष्णु भगवान् के मन्दिर की स्वच्छता तथा विष्णु भगवान् का स्वस्तिवचन करते हैं वे प्राणी तो जीवनमुक्त हैं।
इस प्रकार जो जन कार्तिक मास में तीन दिन तक श्री विष्णु के मन्दिर की स्वच्छता अथवा उनका पूजन करते हैं, देवतागण भी उनकी वन्दना करते हैं। जिन्होंने जन्म भर इस नियम का पालन किया है, उनका तो कहना ही क्या है? इसी प्रकार वह गुणवती जो विधवा हो गईं थीं, दत्त चित्त होकर प्रतिवर्ष कार्तिक का व्रत और विष्णु भगवान् की पूजा भक्तिपूर्वक करती रही। हे प्रिये! एक बार वह रोग के कारण दुबली हो गई थी तथा ज्वर से पीड़ित होने पर धीरे धीरे किसी प्रकार गंगा स्नान करने को गई। वह जल में स्नान करने के निमित्त उतरी और जाड़े से कांपने लगी और विकल हो गई। तब उसने आकाश की ओर से अपनी ओर आते हुए एक विमान को देखा। जो शंख, चक्र, गदा और पद्म आदि विविध शस्त्रों से सुशोभित विष्णु भगवान् का रूप धारण करने वाला था। रथ पर उनके वाहन गरुड़ की ध्वजा अंकित थी। तब मेरे अर्थात भगवान विष्णु जी के गण विमान पर चढ़ाकर उस पर चंवर डुलाते हुए अप्सरागणों से सुशोभित उस गुणवती को बैकुण्ठ लोक में ले गए।
वह गुणवती प्रज्ज्वलित अग्नि की शिखा की तरह उस विमान में बैठी हुई एकमात्र कार्तिक व्रत के प्रभाव से मेरे समीप आई। इसके अनन्तर जब ब्रम्हा आदि देवताओं के प्रार्थना करने पर मैं इस मानव लोक में आया, तब मेरे गण भी मेरे साथ आये। हे भामिनी! ये समस्त यादव मेरे ही गण हैं, देवशर्मा नामक विप्र जो पूर्व जन्म में तुम्हारे पिता थे, वही इस जन्म में सत्राजित होकर यहां है। जो पूर्व जन्म में तुम्हारे पति चन्द्र शर्मा थे, वही अक्रूर हुए और हे भामिनी! तू ही वह गुणवती है। कार्तिक व्रत के पुण्य से ही तू मुझे अति प्यारी है। हे शुभे! पूर्व जन्म में मेरे मन्दिर के द्वार पर तुमने तुलसी का बगीचा लगाया था, उसी पुण्य के प्रभाव से तुम्हारे घर में यह कल्पवृक्ष सुशोभित हो रहा है। पूर्व जन्म में जो तुमने कार्तिक मास में दीपदान किया था, इसी कारण तुम्हारे शरीर में शोभा और तुम्हारे घर में साक्षात् अचल लक्ष्मी निवास करती है। उस जन्म में तुमने जो व्रतादिक पतिस्वरूप भगवान् के लिए अर्पण किया था, उसी के फल से तुम इस जन्म में मेरी प्रिय भार्या हुई हो। हरि ओम,
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