(अशोक ‘प्रवृद्ध’)
समाज की भाषा, नित्यप्रति के व्यवहार का माध्यम तो अपने-अपने देश की भाषा ही होनी चाहिये और होगी और अपने समाज का साहित्य और इतिहास उस देश की भाषा में अनूदित करने का प्रयत्न करना चाहिये, ताकि भावी पीढ़ी अपने मूल भारतीय समाज से कट कर रह न जाये। जातीय भाषा उस देश की भाषा ही होनी चाहिये जिस देश में समाज के घटक निवास करते हों।
जातीय अर्थात राष्ट्रीय उत्थान और सुरक्षा के लिये किसी भी देश की भाषा वही होना श्रेयस्कर होता है, जो जाति अर्थात राष्ट्र के कामकाज और व्यवहार की भाषा हो। समाज की बोल-चाल की भाषा का प्रश्न पृथक् है। जातीय सुरक्षा हेतु व्यक्तियों के नामों में समानता अर्थात उनके स्त्रोत में समानता होने या यों कहें कि नाम संस्कृत भाषा अथवा ऐतिहासिक पुरुषों एवं घटनाओं और जातीय उपलब्धियों से ही सम्बंधित होने का सम्बन्ध समस्त हिन्दू समाज से है, चाहे वह भारतवर्ष में रहने वाला हिन्दू हो अथवा किसी अन्य देश में रहने वाला हो। हिन्दू समाज किसी देश अथवा भूखण्ड तक सीमित नहीं है वरन यह भौगोलिक सीमाओं को पार कर वैश्विक समाज बन गया है। इस कारण समाज की भाषा, नित्यप्रति के व्यवहार का माध्यम तो अपने-अपने देश की भाषा ही होनी चाहिये और होगी और अपने समाज का साहित्य और इतिहास उस देश की भाषा में अनूदित करने का प्रयत्न करना चाहिये, ताकि भावी पीढ़ी अपने मूल भारतीय समाज से कट कर रह न जाये। जातीय भाषा उस देश की भाषा ही होनी चाहिये जिस देश में समाज के घटक निवास करते हों।
यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत भाषा और इसकी लिपि देवनागरी सरलतम और पूर्णतः वैज्ञानिक हैं और यह भी सत्य है कि यदि मानव समाज कभी समस्त भूमण्डल की एक भाषा के निर्माण का विचार करेगी तो उस विचार में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपने-अपने अधिकार से ही स्वतः स्वीकृत हो जायेंगी। जैसे किसी भी व्यवहार का प्रचलित होना उसके सबके द्वारा स्वीकृत किया जाना एक प्रबल युक्ति है। इस पर भी व्यवहार की शुद्धता,सरलता और सुगमता उसके स्वीकार किये जाने में प्रबल युक्ति है। संसार की वर्तमान परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न देशों में रहते हुए भी हिन्दू समाज अपने-अपने देश की भाषा को अपनी देश में मानेंगे और भारतवर्ष के हिन्दू समाज का यह कर्तव्य है कि अपना मूल साहित्य वहाँ के लोगों से मिल कर उन देशों की भाषा में अनुदित कराएं जिन-जिन देशों में हिन्दू-संस्कृति के मानने वाले लोग रहते हैं।
समस्त संसार की एकमात्र भाषा व उसकी लिपि का प्रश्न तो अभी भविष्य के गर्भ में है, जब कभी इस प्रकार का प्रश्न उपस्थित होगा तब संस्कृत भाषा व देवनागरी लिपि का दावा प्रस्तुत किया जायेगा और इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि भाषा के रूप में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि अपनी योग्यता के आधार पर विचारणीय और अन्ततः सर्वस्वीकार्य होगी। जहाँ तक हमारे देश भारतवर्ष का सम्बन्ध है यह प्रश्न इतना जटिल नहीं जितना कि संसार के अन्य देशों में है। भारतवर्ष की बाईस राजकीय भाषाएँ हैं। इन भाषाओँ में परस्पर किसी प्रकार का विवाद भी नहीं है। हिन्दी के समर्थकों ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि किसी क्षेत्रीय भाषा के स्थान पर उसका प्रचलन किया जाये, ना ही कभी इस बात पर विवाद हुआ कि किसी क्षेत्रीय भाषा को भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा बनाने में बाधा उत्पन्न की जाये। स्वराज्य के आरम्भिक काल में किसी मूर्ख हिन्दी भाषी श्रोत्ता ने किसी के तमिल अथवा बँगला बोलने पर आपत्ति की होगी, यह उसके ज्ञान की शून्यता और बुद्धि की दुर्बलता के कारण हुआ होगा।
हिन्दी का किसी भी क्षेत्रीय भाषा से न कभी किसी प्रकार का विवाद रहा है और न ही अब है। वास्तविक विवाद तो अंग्रेजी और हिन्दी भाषा के मध्य है, और यह विवाद इंडियन नॅशनल काँग्रेस की देन है। जब 1885 में मुम्बई तत्कालीन बम्बई में काँग्रेस का प्रथम अधिवेशन हुआ था तब उसमें ही यह कहा गया था कि इस संस्था की कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में हुआ करेगी। उस समय इसका कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उस काँग्रेसी समाज में केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही थे। वहाँ कॉलेज अर्थात महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों के स्नात्तकों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं था। न ही इस संस्था को किसी प्रकार का सार्वजनिक मंच बनाने का ही विचार था। और न ही उस समय कोई यह सोच भी सकता था कि कभी भारवर्ष से ब्रिटिश साम्राज्य का सफाया भी होगा। कारण चाहे कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित है कि तब से ही अंग्रेजी की महिमा बढती रही है और यह निरन्तर बढती ही जा रही है।
बाल गंगाधर तिलक ने दक्षिण में और आर्य समाज ने उत्तर में इसका विरोध किया,परन्तु आर्य समाज का विरोध तो 1907 में जब ब्रिटिश सरकार का कुठाराघात हुआ तो धीमा पड़ गया और बाल गंगाधर तिलक के आन्दोलन की समाप्ति उनके पकड़े जाने और छः वर्ष तक बन्दी-गृह में बन्द रहकर गुजारने के कारण हुई। जहाँ तिलक जी बन्दी-गृह से मुक्त होने के उपरान्त मोहन दास करमचन्द गाँधी की ख्याति का विरोध नहीं कर सके वहाँ आर्य समाज भी गाँधी के आंदोलन के सम्मुख नत हो गया। गाँधी प्रत्यक्ष में तो सार्वजनिक नेता थे, परन्तु उन्होंने अपने और काँग्रेस के आंदोलन की जिम्मेदारी अर्थात लीडरी अंग्रेजी पढ़े-लिखे के हाथ में ही रखने का भरसक प्रयत्न किया। परिणाम यह हुआ कि काँग्रेस की जन्म के समय की नीति कि अंग्रेजी ही उनके आंदोलन की भाषा होगी, स्थिर रही और वही आज तक भी बिना विरोध के अनवरत चली आ रही है।
स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास की जानकारी रखने वालों के अनुसार 1920 -21 में जवाहर लाल नेहरु की प्रतिष्ठा गाँधी जी के मन में इसी कारण थी कि काँग्रेस के प्रस्तावों को वे अंग्रेजी भाषा में भली-भान्ति व्यक्त कर सकते थे। कालान्तर में तो नेहरु ही काँग्रेस के सर्वेसर्वा हो गये थे, किन्तु यह सम्भव तभी हो पाया था जबकि गाँधी ने आरम्भ में अपने कन्धे पर बैठाकर उनको प्रतिष्ठित करने में सहायता की थी। नेहरु तो मन से ही अंग्रेजी के भक्त थे और अंग्रेजी पढ़े-लिखों में उन्हें अंग्रेजी का अच्छा लेखक माना जाता था। उनका सम्बन्ध भी अंग्रेजीदाँ लोगों से ही अधिक था। 1920 से लेकर 1947 तक गाँधीजी ने प्रयास करके नेहरु को काँग्रेस की सबसे पिछली पंक्ति से लाकर न केवल प्रथम पंक्ति में बिठा दिया, अपितु उनको काँग्रेस का मंच भी सौंप दिया।
गाँधी तो स्वयं हिन्दी के समर्थक थे, किन्तु सन 1920 से आरम्भ कर अपने अन्तिम क्षण तक वे अंग्रेजी भक्त नेहरु का ही समर्थन करते रहे थे। भारतवर्ष विभाजन के पश्चात केन्द्र व अधिकाँश राज्यों में सर्वाधिक समय तक काँग्रेस ही सत्ता में रही है और उसने निरन्तर अंग्रेजी की ही सहायता की है, उसका ही प्रचार-प्रसार किया है। वर्तमान में भी हिन्दी का विरोध किसी क्षेत्रीय भाषा के कारण नहीं वरन गुलामी का प्रतीक अंग्रेजी के पक्ष के कारण किया जा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस देश की भाषा वही होगी जो देश की बहुसंख्यक हिन्दू समाज की भाषा होगी अथवा कि उसके स्थान पर बैठी अंग्रेजी ही वह स्थान ले लेगी? लक्षण तो शुभ नहीं दिखलायी देते क्योंकि 1885 में स्थापित काँग्रेस ने स्वयं तो बिना संघर्ष के मजे का जीवन जिया है, और जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है, काँग्रेस सदा ही अंग्रेजी के पक्ष में रही है। इसमें काँग्रेस के नेताओं का भी किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है, हिन्दी के समर्थक ही इसके लिये दोषी हैं। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो देश का बहुसंख्यक समाज इसके लिये दोषी है। आज तक बहुसंख्यक हिन्दू समाज के नेता कहते रहे हैं कि राज्य के विरोध करने पर भी हिन्दू समाज के आधारभूत सिद्धान्तों का चलन होता रहेगा।
शिक्षा का माध्यम जन साधारण की भाषा होनी चाहिये। विभिन्न प्रदेशों में यह क्षेत्रीय भाषाओं में दी जानी चाहिये। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी और हिन्दू-संस्कृति का प्रचार-प्रसार क्षेत्रीय भाषाओं का उत्तरदायित्व हो जायेगा। अपने क्षेत्र में हिन्दी भी ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बन जायेगी। भारतीय संस्कृति अर्थात हिन्दू समाज का प्रचार क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से किया जाना अत्युत्तम सिद्ध होगा। शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा हो। सरकारी कामकाज भी विभिन्न क्षेत्रों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में ही होनी चाहिये। अंग्रेजी अवैज्ञानिक भाषा है और इसकी लिपि भी पूर्ण नहीं अपितु पंगु है। क्षेत्रीय भाषाओं के पनपने से यह स्वतः ही पिछड़ जायेगी। अंग्रेजी के विरोध का कारण यह है कि अंग्रेजी का साहित्य संस्कृत और वैदिक साहित्य की तुलना में किसी महत्व का नहीं है। भारतीय मान्यताओं अर्थात हिन्दू मान्यताओं की भली-भान्ति विस्तार सहित व्याख्या कदाचित अंग्रेजी में उस सुन्दरता से हो भी नहीं सकती जिस प्रकार की संस्कृत में की जा सकती है। संस्कृत भाषा में वर्णित उद्गारों अथवा भावों का प्रकटीकरण हिन्दी में बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त हिन्दी का अगला पग संस्कृत ही है कोई अन्य भाषा नहीं। संस्कृत के उपरान्त वेद भाषा उसका अगला पग है। अतः भारतीय अर्थात बहुसंख्यक हिन्दू सुरक्षा का प्रश्न पूर्ण रूप से भाषा के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि मानव मन के उत्थान के लिये हिन्दी और संस्कृत भाषा में अतुल साहित्य भण्डार विद्यमान है।
(साई फीचर्स)
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