पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, साहसिक निर्णय लेने की परख

(हेमेन्द्र क्षीरसागर)

पूर्व प्रधानमन्त्री श्री चंद्रशेखर को याद करते हुए एक ऐसे राजनीतिक शख्सियत का चेहरा सामने आता हैं। जो बिना राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह किए, देशहित में दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए देश के सामने अपनी बेबाक राय रखने के लिए जाने जाते हैं। यारों के यार तो वे थे ही, अपने निजी सरोकारों के निभाने में भी उनका कोई जबाब नहीं था। चंद्रशेखर जी की विपरीत परिस्थितियों में साहसिक निर्णय लेने की परख उस वक्त भी देखने में आई, जब प्रथम खाड़ी युद्ध शुरू हुआ और देश के सामने विदेशी मुद्रा का भारी संकट था। ऐसी विकट परिस्थिति आ गई थी कि जरूरी वस्तुओं के आयात के लिए भी विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच गया था।

जीवनरक्षक दवाओं के आयात के लिए भी एक हफ्ते का विदेशी मुद्रा शेष था। पेट्रोलियम पदार्थों के आयात के लिए भी विदेशी मुद्रा की लगभग वैसी ही स्थिति थी। तब केंद्र  में चंद्रशेखर जी की अल्पसंख्यक सरकार कांग्रेस के सहयोग से चल रही थी। देश के सामने रिजर्व बैंक का सोना गिरवी रखकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लोनलेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। तत्कालीन आईएमएफ के चेयरमैन भारत पर कर्ज के एवज में मनमानी शर्तें थोपने पर आमादा थे। यह मानकर कि यह सरकार अल्पसंख्यक है और ज्यादा दिन चलेगी नहीं। आई एम एफ चेयरमैन ने बातचीत के सिलसिले में ही एक बार यहां तक हिदायत दे दिया कि, अगर हम कर्ज देने से मना कर दिए, तब आप क्या करेंगे? चन्द्रशेखर जी का सीधा जबाब था कि-

एक तो शर्तों के मुताबिक आप ऐसा कर नहीं सकते, दूसरा अगर आप ऐसा करते हैं, तो मैं इस मीटिंग से उठकर सीधे आकाशवाणी जाऊंगा और देशवासियों से अपील करूंगा कि आईएमएफ से कर्ज मिलने की संभावनाएं खत्म हो चुकी है। देशवासियों आप आने वाले कठिन समय का मुकाबला करने के लिए तैयार रहें। जब कभी बातचीत के दौरान चंद्रशेखर जी पूछा जाता था कि, देश का सोना गिरवी रखते हुए आपको यह नहीं लगता था कि इससे देश की बदनामी होगी? चंद्रशेखर जी का बेबाक जबाब होता था कि- आखिर अपने घर की बहू-बेटियों के लिए सोने के गहने-जेवरात किस लिए दान दिए जाते हैं? उसके पीछे असली मकसद यहीं  होता है कि- किसी विपरीत परिस्थिति में वे अपना गहना-जेवर गिरवी रखकर अपना जीवन निर्वाह करें। महज  श्रृंगार के लिए ही गहने-जेवर नहीं होते हैं। यह एक ठेठ गवई मन के सोच का ही नतीजा है। जो  प्रधानमंत्री बनने के बाद भी चंद्रशेखर जी के पूरे व्यक्तित्व में आजीवन बरकरार रहा।

वह हमेशा सत्ता की राजनीति का विरोध करते थे एवं लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सामाजिक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की राजनीति को महत्व देते थे। आपातकाल के दौरान जेल में बिताये समय में उन्होंने हिंदी में एक डायरी लिखी थी जो बाद में मेरी जेल डायरीके नाम से प्रकाशित हुई। सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलताउनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है। देश के लिए अपना सर्वस्व होम करने वाले चन्द्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित इब्राहिमपत्ती गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। चन्द्रशेखर अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित थे। क्रांतिकारी जोश एवं गर्म स्वभाव वाले वाले आदर्शवादी के रूप में जाने जाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वे समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए। उन्हें आचार्य नरेंद्र देव के साथ बहुत निकट से जुड़े होने का सौभाग्य प्राप्त था। दु:खद 10 नवम्‍बर, 1990  से 21 जून, 1991 तक देश के 8 वें प्रधानमंत्री रहे चन्द्रशेखर ने मृत्यु 8 जुलाई, 2007 को अंतिम सांस ली। ऐसे महामना की पुण्यतिथि पर विनम्र  शब्दांजलि…!

(साई फीचर्स)