(सुधीर मिश्र)
इफ्तिखार राग़िब का शेर है-
जी चाहता है जीना जज़्बात के मुताबिक!
हालात कर रहे हैं हालात के मुताबिक!!
करीब दस किलोमीटर का फासला था और हर किलोमीटर पर कम-से-कम दो बारातें। निकल पाना मुश्किल ही नहीं, कई बार तो नामुमकिन लग रहा था। पर हर फूफा शादी-बारात में मुंह फुलाकर बैठने वाला नहीं होता। कुछ भले-मानुष नाचती भौजियों-भतीजियों को किनारे लगाकर गाड़ियां निकलवा ही देते हैं। गाड़ी धीरे-धीरे खिसकती रही। कहीं आज मेरे यार की शादी है३ तो कहीं जिमी जिमी जिमी आजा आजा आजा३। यह बैंडवाले भी जाने क्यों कुछ नया नहीं लाते। वही जिमी, यार की शादी या ये देश है वीर जवानों का। सिर्फ बैंड वाले ही क्यों, हमने आपने भी कौन-सा खुद को बदल लिया है। आबादी तीन गुनी हो गई, गाड़ियां दस गुनी बढ़ गईं, अतिक्रमण से सड़कें आधी से ज्यादा पतली हो गईं। फिर भी हम आज सड़क जाम करके बारातें निकालते हैं।
वैसे, बारात के जाम से याद आया। सड़क जाम तो अवधेश औंधू और अशोक बांगड़ी करते थे। अस्सी-नब्बे के दशक की बात है। पुराने मोहल्ले की बारातों के ये दोनों महानायक हुआ करते थे। दूल्हा तैयार हो गया हो लेकिन ये दोनों नहीं आए तो बारात नहीं उठती थी। इनके नागिन डांस का गजब जलवा था। तीन-चार ढक्कन सोमरस लग जाने के बाद ये दोनों जवान रूहानी दुनिया में पहुंच जाते थे। जहां ना इस बात का होश होता था कि सफेद कोट पहना है या सफेद अचकन। सड़क या गली में कीचड़ बिखरा है या गोबर। बैंड बजते ही दोनों में से एक नागिन बन जाता और दूसरा रूमाल मुंह में दबाकर सपेरा। फिर ऐसा धुआंधार नाचते कि बैंड, बाजा और बारात सबके कदम थम जाते। सड़क पर जाम लगा है, गाड़ियों की रेलमपेल मची है पर दोनों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। नाली, गोबर और कीचड़ सब एक हो जाते। एक बार तो दोनों में से एक कीचड़ में ऐसे लथपथ हुए कि जनवासे में रखे शर्बत के ड्रम में ही घुस गए। बाद में पूरी रात चीटियों ने उनकी खबर ली।
खैर, वो पुराना जमाना था। लोगों के पास खूब वक्त हुआ करता था। सड़कों पर ठीक-ठाक जगह होती थी। लोग थोड़ी-बहुत देर में बारात के साथ-साथ निकल ही जाते थे। अब बात औंधू जी और बांगड़ी जी के जमाने से काफी आगे निकल चुकी है। हाल ही में एक शादी में जाना हुआ। गाड़ी निकालने का जो जिक्र पहले था, वो वहीं जाने के लिए था। लॉन से पहले ही देखा लंबा जाम लगा हुआ है। खैर, गाड़ी दूर खड़ी करके भीड़ में रास्ता बनाता हुआ गेट तक पहुंचा तो पता चला जीजाजी को चढ़ गई है और वह कार बीच सड़क पर पार्क करके चले गए हैं। इस बीच आमने-सामने दोनों ही तरफ से रोडवेज की दो बसें आकर इस तरह तिरछी हुईं कि लोगों का निकलना मुश्किल हो गया। हालात यह थे कि जाम की वजह से भीतर शादी में वक्त पर पहुंच चुके बाराती-घराती वापस घर ही नहीं जा पा रहे थे। चूंकि, लॉन में कई और शादियां भी थीं इसलिए बड़ी संख्या में तो लोगों ने टाइम पास करने के लिए दूसरी शादियों की डिशेज़ के मजे लेना शुरू कर दिया। सोचिए, शादियों के आयोजकों का क्या हुआ होगा। हजार रुपये प्लेट से कम का खाना तो था नहीं, ड्योढ़े मेहमान झेलने पड़ रहे थे। बाहर के जाम में ऐम्बुलेंस भी फंसी थी। भीतर मरीज तकलीफ में कराह रहा था तो बाहर नौजवान ये देश है वीर जवानों का३ पर लहालोट थे। ये नजारे उत्तर प्रदेश के शहरों में रोज के हैं। सरकारों को फिक्र नहीं कि वह इसे रोकें। इनसे बचना है तो खुद को बदलना होगा। सवाल हमें खुद से करना है- क्या बारात निकालनी जरूरी है। रस्में शादीघर में ही होती हैं। वहीं नाच भी सकते हैं। सड़कें शायद अब बारातों का बोझ झेलने लायक नहीं बची हैं। ये ऐसी तकलीफें हैं, जिन्हें लोग रोज महसूस करते हैं, बस कहते नहीं। शायद, ऐसे ही हालात में खुशबीर सिंह शाद का यह शेर मौजूं लगता है-
मिरे अंदर कई एहसास पत्थर हो रहे हैं!
ये शीराज़ा बिखरना अब ज़रूरी हो गया है!!
(साई फीचर्स)

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