उद्धव के सामने बड़ी चुनौतियां

 

(सुशांत कुमार) 

ताज आमतौर पर कहीं का भी हो फूलों का नहीं होता है। पर उद्धव ठाकरे के सर पर जो ताज रखा गया है वह मुहावरों और कहावतों की भाषा से आगे वास्तविकता में कांटों का है। वे बहुत अलग सी स्थितियों में मुख्यमंत्री बने हैं। उन्होंने जो तालमेल बनाया है वह भी बहुत अलग सा है और स्वाभाविक नहीं है। उन्होंने ऐसी पार्टियों को सहयोगी बनाया है, जो स्वाभाविक रूप से उनकी पार्टी की राजनीति की विरोधी हैं। हालांकि यह भी हकीकत है कि जो वैचारिक व स्वाभाविक रूप से सहयोगी है उसके साथ भी तो नहीं बनी! आखिर भाजपा से उसका तालमेल खत्म हुआ और वह भी सत्ता के लिए।

सो, संभव है कि सत्ता की गोंद वैचारिक विरोधियों को चिपकाए रखे। तभी फिलहाल किसी नतीजे पर पहुंचने की जरूरत नहीं है। नतीजों के बजाय अगर शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन के आगे के रास्तों पर नजर डालें और उनमें आने वाली रूकावटों को समझने का प्रयास हो तो पता चलेगा कि वास्तविक चुनौतियां क्या हैं और उनसे निपटने का तरीका क्या हो सकता है। पहली चुनौती गठबंधन को एकजुट रखने की है, पर यह हर गठबंधन की चुनौती होती है। दूसरी चुनौती सभी पार्टियों और नेताओं को सत्ता का फायदा उठाने के लोभ से रोकने की है।

तीसरी चुनौती कामकाज और विकास ही और चौथी चुनौती आक्रामक विपक्ष के तौर पर भाजपा को संभालने की है। यह संभवतः सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि भाजपा राज्य की सबसे बड़ी पार्टी है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी से लगभग दोगुने के बराबर विधायक भाजपा के हैं। ऊपर से भाजपा की केंद्र में सरकार है। उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने राज्य में सरकार बनाने के क्रम में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को बहुत गहरा जख्म दिया है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह चुपचाप बैठ कर जख्म सहलाने वाले नेता नहीं हैं, बल्कि वे ज्यादा गहरे जख्म देने में यकीन रखने वाले नेता हैं। उद्धव ठाकरे और शरद पवार दोनों को इसका ख्याल रखना होगा।

महाराष्ट्र में सरकार बनाने वाली पार्टियों के नेताओं को हमेशा कर्नाटक का अनुभव ध्यान में रखना चाहिए। वहां भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस और जेडीएस ने मिल कर सरकार बनाई थी। कांग्रेस और जेडीएस वैचारिक रूप से एक तरह सोच वाली पार्टी हैं। फिर भी सरकार चलाने के क्रम में उनके अंदर के विरोधाभास जाहिर होता रहा। तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कई बार अपना दुख जाहिर किया और कांग्रेस के ऊपर अपमान करने का आरोप लगाया।

कर्नाटक और महाराष्ट्र में फर्क यह है कि कर्नाटक में कांग्रेस के पास जेडीएस के मुकाबले दोगुनी सीटें थीं और उसने कृपा करके कुमारस्वामी को सीएम बनाया था। महाराष्ट्र में कांग्रेस सबसे छोटी सहयोगी है। फिर भी राजनीति करने वाले कांग्रेस नेता ज्यादा हैं। राज्य में कांग्रेस के तीन पूर्व मुख्यमंत्री हैं। उनकी अपनी राजनीति अलग चलती है। उनके अलावा कांग्रेस के प्रभारी की राजनीति अलग चलती है और केंद्रीय नेताओं का दखल भी होता है।

उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी एक सीमा से ज्यादा दखल बरदाश्त करने वाले नहीं हैं। इसलिए सबसे ज्यादा सावधान कांग्रेस के नेताओं को रहना होगा, अगर वे स्थिर सरकार चाहते हैं। एनसीपी और शिव सेना की सीटों में सिर्फ दो विधायकों का फर्क है इसलिए यह एनसीपी की बराबर की सरकार होगी। अगर उद्धव ने अपनी प्रमुखता बनाने का प्रयास किया तो एनसीपी में नाराजगी होगी। सो, तीनों पार्टियों के नेताओं को संतुलन बनाए रखने का प्रयास करना होगा।

महाराष्ट्र के गठबंधन की खास बात यह है कि इसके नेता आपस में बातचीत करते हैं और कोई बिचौलिया नहीं है। उद्धव ठाकरे, शरद पवार और सोनिया गांधी की सीधी बात होती है। दूसरे कर्नाटक की तरह तालमेल बिगाड़ने के लिए महाराष्ट्र में कोई सिद्धरमैया नहीं है। सरकार भले उद्धव ठाकरे चलाएंगे पर राजनीतिक तालमेल बनाए रखने की जिम्मेदारी शरद पवार के ऊपर होगी। उनका महाराष्ट्र की राजनीति का 50 साल का अनुभव है और अब सोनिया गांधी भी उन पर पूरा भरोसा करती हैं।

सरकार बनाने से पहले तीनों पार्टियों में जो साझा न्यूनतम कार्यक्रम बना है उसका अक्षरशः पालन सबसे जरूरी है। खास कर वैचारिक मामलों में। शिव सेना अगर गोडसे का महिमामंडन और सावरकर को भारत रत्न देने जैसे मुद्दों को छोड़े रखती है तो बाकी मुद्दों पर ज्यादा तनाव नहीं होगा। कश्मीर और अयोध्या के मसले पर तो कांग्रेस भी अब उसी लाइन पर है, जिस पर शिव सेना है।

सरकार को स्थिर बनाने का सबसे अच्छा तरीका तो यह है कि तीनों पार्टियों के नेता राजनीति पर से फोकस हटा दें। कम से कम शुरू के छह महीने तक अगर राजनीति पर फोकस नहीं होगा और सरकार के कामकाज पर ध्यान लगेगा तो अपने आप सरकार में स्थिरता आएगी। इस गठबंधन ने अपना नाम महाविकास अघाड़ी रखा है। इसलिए विकास को प्राथमिकता दी जाती है और किसानों का काम होता है, जिसका दावा तीनों पार्टियां सबसे ज्यादा कर रही हैं तो राजनीति पर से ध्यान हटेगा।

इसके अलावा उद्धव को सत्ता का ज्यादा से ज्यादा विकेंद्रीकरण करना होगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी को बहुत ताकतवर बनाएंगे या ठाकरे परिवार का दबदबा बनाना चाहेंगे तो मुश्किल होगी। तीसरी अहम बात यह है कि भाजपा के शीर्ष नेताओं के अहंकार को और आहत करने वाला काम नहीं होना चाहिए। इसके लिए संजय राउत जैसे नेताओं को चुप कराना जरूरी होगा और यह भी ध्यान रखना होगा कि भाजपा में तोड़फोड़ का काम नहीं हो।

(साई फीचर्स)