चिराग दिल्ली के सर

 

(विवेक शुक्ला)

कभी मौका मिले तो सुबह के समय चिराग दिल्ली हो आइए। इधर छोटे-छोटे समूहों में लोग हाथों में अखबार लेकर देश-दुनिया के ताजा सूरते हाल पर बहस करते हुए मिलेंगे। इस दौरान कम से कम एक व्यक्ति को मास्टर जी अवश्य कहा जा रहा होगा। मास्टरजी धीर-गंभीर किस्म के इंसान लगते हैं। वे बहस के अंत में अपनी राय देते हैं। उनकी राय पर आम प्रतिक्रिया होती है, ठीक कहा मास्टर जी। दरअसल यहां किसी शख्स को यूं ही मास्टर जी नहीं कहा जाता। चिराग दिल्ली चाहे तो इस बात पर गर्व कर सकती है कि इसने राजधानी को सैकड़ों मास्टरजी दिए हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में चिराग दिल्ली वाले मास्टर जी मिल ही जाते हैं।

सूफी संत नसीरउद्दीन महमूद देहलवी के नाम पर बसे चिराग दिल्ली गांव में उनकी मजार है। इसके आसपास लगे बुजुर्ग पेड़ों को देखकर समझ आ जाता है कि इन्होंने इस शहर और गांव को बनते-बदलते हुए देखा है। इन पेड़ों के नीचे कुछ बुजुर्ग दिन भर गपशप करते हैं। इनमें भी कुछ अध्यापक रहे होते हैं। चिराग दिल्ली वालों को मास्टर बनना इसलिए ठीक लगा क्योंकि इस गांव में खेती करना कभी भी आसान नहीं रहा। यहां पानी की उपलब्धता बहुत कम रही। इसलिए चिराग दिल्ली वालों को अध्यापक बनने का ही रास्ता सही लगा।

एक लिहाज से चिराग दिल्ली भाग्यशाली भी रही क्योंकि यहां सरकारी स्कूल आजादी से पहले ही चालू हो गया था। इसलिए गांवों के बच्चों को पढ़ने के लिए युसुफ सराय या किसी अन्य जगह जाना नहीं पड़ा। चिराग दिल्ली वाले कहते हैं कि उनके गांव का एक छोरा दिलीप सिंह बादल 1950 के आसपास सेंट स्टीफंस कॉलेज में गया था। उसके बाद वह दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने लगा। उसने चिराग दिल्ली की आने वाली कई पीढ़ियों को पढ़ने और मास्टर बनने के लिए प्रेरित किया।

अब चिराग दिल्ली के बच्चे इंजीनियर, डॉक्टर, आर्किटेक्ट वगैरह बन रहे हैं। दरअसल ग्रेटर कैलाश, ईस्ट ऑफ कैलाश, सादिक नगर, चितरंजन पार्क जैसे इलाकों की जमीनें चिराग दिल्ली वालों की ही थीं। फिर सरकार और डीएलएफ ने चिराग दिल्ली वालों से जमीनें खरीदीं और वहां पर प्लॉट काटे। अब इनमें से कोई भी प्लॉट 20 करोड़ रुपये से कम नहीं है। पर चिराग दिल्ली में कोई शख्स इस तरह का नहीं मिलता जिसे इस बात की शिकायत हो कि उसकी जमीन कौड़ियों के दाम पर लेकर मोटे मुनाफे पर बेची गई। चिराग दिल्ली वाले तो सब संतोषी हैं।

(साई फीचर्स)