संपन्नता की ऊब से हुई मौत!

 

(संजय वर्मा) 

तनाव हमारे जीवन का हिस्सा है। गरीबी में, कर्जदार रहते हुए, किसी लाइलाज बीमारी के फंदे में फंसकर या सामाजिक-पारिवारिक दबावों के असर से कोई तनाव इतना गहरा जाए कि वह किसी को आत्महंता बनने को मजबूर कर दे, तो अफसोस के साथ अक्सर कहा जाता है कि काश, वक्त रहते मदद मिल जाती तो ऐसे लोगों को बचा लिया जाता। लेकिन इस पर क्या कहा जाए कि महीने के दो लाख रुपये कमाता एक अच्छा-खासा मध्यवर्गीय परिवार किसी आर्थिक तंगी की वजह से तबाह हो जाए और खुदकुशी की राह पकड़ ले। हैरानी ही है कि घर-कार की किस्तें इतनी भारी पड़ती हैं कि सिर्फ एक ही राह दृ आत्महत्या की बचती है। नोएडा में हाल में निजी कंपनी के एक मैनेजर, जिन्होंने प्रेम विवाह किया था, के नोएडा की एक पॉश सोसायटी में बसे परिवार में पत्नी के अलावा पांच साल की बेटी थी, लेकिन पहले उन्होंने (पति ने) मेट्रो के आगे कूदकर जान दे दी, फिर पत्नी भी बेटी को मारकर फंदे पर झूल गईं। संपन्नता की फांस में जकड़ी ऊब समाज को इस तरह आत्महंता बना देगी, यह हमारे बदलते वक्त की सबसे बड़ी ट्रैजडी है।

कुछ महीने पीछे लौटें तो विख्यात चेन- कॉफी कैफे डे के संस्थापक और मशहूर उद्योगपति वीजी सिद्धार्थ की खुदकुशी का एक उदाहरण और मिलता है। संपन्नता के शीर्ष पर बैठे और देश-विदेश में औद्योगिक साम्राज्य खड़ा कर चुके वीजी सिद्धार्थ कोई किस्त नहीं भर रहे थे, लेकिन बिजनेस चलाने में हो रहे निरंतर घाटे और करोड़ों के कर्ज से परेशान जरूर बताए गए थे। पर उनकी आत्महत्या पर भी यह सवाल उठा था कि क्या बिजनेस का कुछ हिस्सा बेचकर वह आत्महत्या को चुनने के बजाय अपने जीवन और परिवार के दायित्वों के प्रति न्याय नहीं कर सकते थे। हालांकि सिद्धार्थ और नोएडा के मैनेजर की आत्महत्या न तो पहली है और न आखिरी, लेकिन ये ऐसे कई सवाल अपने पीछे छोड़ती हैं, जो तेजी से बदलती सामाजिक संरचना के मद्देनजर बेहद जरूरी हो गए हैं।

इनमें सबसे अहम सवाल यही है कि जो शख्स और परिवार दूसरों को मजबूरी से बाहर निकालने में मददगार सपोर्ट सिस्टम बनने की हैसियत रखता है, वह खुद कैसे तबाही के दुश्चक्र में फंस जाता है। संपन्न कहलाने या समझे जाने वालों की आत्महत्या का यह विषय तंज कसने का नहीं, बल्कि गहरे चिंतन का है। अगर महंगे घर, आलीशान कार की किस्तें नहीं संभल रही हैं, तो एक साधारण मकान और कारविहीन जिंदगी की ओर शिफ्ट हो जाना कोई मुश्किल काम तो नहीं है। ऐसे कई विकल्प हैं, जिन्हें मौत को गले लगाने से लाख बेहतर माना जा सकता है। यही नहीं, लाखों कमाने वाला पति अगर चला जाता है, तो उसकी पत्नी खुद को इतना असहाय क्यों मान लेती है कि उसे भी आत्महत्या कर लेना आसान लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तकनीक के सहारे की जाने वाली श्रमविहीन नौकरियों ने हमारी शारीरिक सेहत के साथ मानसिक सेहत का भी कबाड़ा कर डाला हो। अगर ऐसा है तो ये घटनाएं हमारे समाज के लिए बड़ी चेतावनी हैं।

एक व्यक्ति की भीतरी मनोदशा को हम नहीं भांप सकते, लेकिन ऐसा समाज तो बना ही सकते हैं, जिसमें कोई शख्स यह स्वीकार कर सके कि जिंदगी हर लिहाज में रुपये-पैसे और किसी भी शानो-शौकत से बड़ी है। यह काम बेशक परिवारों, दोस्तों और दफ्तर के सहकर्मियों को करना होगा जो आत्महत्या की ओर बढ़ने का संकेत देते किसी शख्स को यह समझा सकें कि जिम्मेदारियों से भागने और खुदकुशी के बजाय वे उम्मीदों को चुनें। कोई भी समाज सिर्फ रुपयों से न तो बनता है और न टिकता है, यह बात जितनी जल्दी हमारी समझ में आएगी, समाज का उतनी ही जल्दी भला होगा।

(साई फीचर्स)