आर्थिकीः तो आगे पांच खरब डॉलर की?

 

 

(बलबीर पुंज)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग-3 सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वित्तवर्ष 2024-25 तक पांच खरब डॉलर का बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। यह एक ऐसी महत्वकांशी योजना है, जिसके क्रियान्वयन प्रक्रिया और उसकी पूर्ति से भारत- विश्व के विकसित राष्ट्रों में शामिल होने के निकट पहुंचने के साथ ही अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हो जाएगा। क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सनातन संस्कृति की जन्मभूमि भारत, इस लक्ष्य को भेदने की क्षमता रखता है?

उपरोक्त प्रश्न का उत्तर हमें अपने स्वर्णिम अतीत में मिलता है। सैंकड़ों वर्ष पहले भारत- तत्कालीन संसाधनों, श्रमशक्ति और ज्ञान के बल पर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अपना एकाधिकार रखता था। ब्रितानी आर्थिक इतिहासकार एंगस मेडिसन ने अपनी पुस्तक कॉन्टुअर्स ऑफ द वर्ल्ड इकॉनामी 1-2030 एडी में स्पष्ट किया है कि पहली सदी से लेकर 10वीं शताब्दी तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। इस्लामी आक्रांताओं के आगमन और उनके शासन के बाद इसमें गिरावट देखनों को मिली।

बेल्जियम अर्थशास्त्री पॉल बारॉच के अनुसार, सन् 1750 आते-आते वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत, चीन के बाद 24.5 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ दूसरे स्थान पर पहुंच गया था। किंतु ब्रितानी शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का जमकर दोहन हुआ। जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, तो उस समय देश की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत भी नहीं थी और 1990-91 आते-आते वामपंथ प्रेरित समाजवादी दर्शन के कारण वह आधी प्रतिशत रह गई। उस कालखंड के बाद से भारत की स्थिति लगातार सुधर रही है। क्या भारत पुनः अपने उसी योग्य स्थान पर पहुंच सकता है? आंकड़ों के अनुसार, भारत को स्वतंत्रता के बाद एक खरब अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में 55 वर्ष का समय लगा। जब वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने, तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था 1.85 खरब अमेरिकी डॉलर थी और उसके अगले पांच वर्षों में औसतन 8 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर के साथ देश की अर्थव्यवस्था 2.67 खरब डॉलर पर पहुंच गई, जिसके परिणामस्वरुप, हम फ्रांस को पछाड़कर विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी बन गए। अब मोदी सरकार का अगला लक्ष्य 2024-25 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर का बनाने है।

इस महत्वकांशी योजना के लिए जो रुपरेखा मोदी सरकार तैयार कर रही है, उसका प्रतिबिंब हालिया बजट में भी दिखा है, जिसे हम तीन खंडों में वर्गीकृत कर सकते है। पहला- आधारभूत ढांचे के व्यापक विकास हेतु सरकार ने बजट में अगले पांच वर्षों में 100 लाख करोड़ रुपये का निवेश करना। पहले इसपर प्रतिवर्ष 7 लाख करोड़ रुपये व्यय होता था, जो वर्तमान बजट के अनुसार- प्रतिवर्ष 20 लाख करोड़ होगा।

दूसरा- देश की वित्तीय प्रणाली और निवेश के समक्ष आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए मोदी सरकार ने सरकारी बैंकों के लिए 70 हजार करोड़ रुपये के आवंटन का प्रावधान, ताकि बैंकों की ऋण देने की क्षमता बढ़ सके। साथ ही एक लाख करोड़ रुपये गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पुनरुद्धार के लिए निर्धारित किया है।

तीसरा- संकट और आपदाग्रस्त किसानों को 70 हजार करोड़ रुपये की आय सहायता देने की घोषणा, जिसमें सिंचाई परियोजनाओं के साथ कृषि निर्यात को भी बढ़ावा देने पर बल दिया गया है। मत्स्य और समुद्री उत्पादों के लिए भी योजनाएं शुरू करने की बात की गई है।

किसी भी विकसित या विकासशील देश की आर्थिकी को उसका विनिर्माण, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र गतिमान बनाए रखता है। भारत में विनिर्माण के साथ कृषि क्षेत्र में हाल ही में गिरावट देखनों को मिली है। इस परिदृश्य में एक सकारात्मक पहलु यह है कि सकल घरेलू उत्पाद में अपने योगदान के अनुपात में कृषि संबंधित रोजगारों से भारतीय जनसंख्या का हिस्सा घट रहा है। स्वतंत्रता के समय देश की दो तिहाई आबादी कृषि आधारित रोजगार पर निर्भर थी, जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान 52 प्रतिशत था- अर्थात् लोग भी अधिक थे और कमाई भी। किंतु सात दशक बाद भी देश की आधी जनसंख्या इसी क्षेत्र पर निर्भर है, लेकिन उनका जीडीपी में योगदान घटकर 16-17 प्रतिशत रह गया है- अर्थात् आजीविका के लिए कृषि पर आश्रित लोग अधिक है, किंतु कमाई सीमित। कृषि क्षेत्र में जो अतिरिक्त श्रम उपलब्ध है, वह देश के लचर शिक्षण स्तर के कारण विनिर्माण सहित अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित नहीं हो पा रहा है।

निर्विवाद रूप से भारत विश्व की उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति है, जिसमें सबसे बड़ा योगदान सर्विस सेक्टर अर्थात सेवा क्षेत्र का है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 54.4 प्रतिशत है, जबकि विनिर्माण का 17 प्रतिशत। स्पष्ट है कि विनिर्माण क्षेत्र का जीडीपी में अपेक्षाकृत कम योगदान होने और उसमें गिरावट आने से देश में उद्योग-धंधों के मंद पड़ने, रोजगार के अवसरों का कम सृजन होने, साथ ही निर्यात में कमी और आयात में वृद्धि होने की आशंका बनी रहती है। आखिर इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के समक्ष ऐसी कौन-सी मुख्य चुनौतियां है, जिसे पार करना आज समय की मांग बन चुका है?

यह किसी से छिपा नहीं कि पूर्ववर्ती सरकारों की लाल-फीताशाही, इंस्पेक्टर-राज आदि नीतियों के कारण भारत में उद्योग लगाना बहुत मुश्किल काम हो गया था। इसी कारण कई उद्योग किसी न किसी बाधा के कारण वर्षों से शुरू ही नहीं हो पाए। उद्योगपतियों को कभी जमीन नहीं मिली, तो कभी बैंकों से पर्याप्त ऋण नहीं मिला, तो कहीं उन्हे पर्यावरण विभाग से अनुमति नहीं मिल पाई। सच तो यह है कि किसानों को प्रसन्न करने की लोकलुभावन नीतियों के कारण देश में किसी औद्योगिक ईकाई की स्थापना हेतु बंजर या बेकार पड़ी भूमि के अधिग्रहण के लिए प्रति एकड़ करोड़ों रुपयों की मांग की जा रही है।

देश में पूंजी का महंगा होना और अप्रशिक्षित-अनिपुण श्रमिक भी समस्या को विकराल बना देते है। विकसित राष्ट्रों सहित अधिकांश विकासशील देशों में बैंकों से पूंजी 2-3 प्रतिशत के ब्याज पर आसानी से उपलब्ध है, जबकि भारत में 14 प्रतिशत या इससे भी अधिक ब्याज दर पर बैंक कई दस्तावेजी कार्रवाई के बाद पूंजी जारी करता है। कठोर श्रम कानूनों से भी बाजार का लचीलापन समाप्त हो रहा है। श्रम कानून इतने जटिल हैं कि अधिकतर औद्योगिक ईकाइयां विस्तार करने से बचती हैं। यूं तो यह कानून कर्मचारियों के हितों की रक्षा करने हेतु हैं, किंतु इसका प्रतिकूल असर हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि, लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं और राजनीतिक कारणों से श्रम कानूनों में वांछित सुधार नहीं हो पाया है।

यही कारण है कि कि जिन उद्योगपतियों के पास भारी निवेश करने हेतु पर्याप्त धन और परिकल्पना है, वह देश के सख्त कानून और नीतियों के कारण पहले ही विदेशों में औद्योगिक ईकाइयों की स्थापना कर रहे है। और जिनके पास हाल के कुछ वर्षों में एकाएक अकूत धन आया है, जिसमें जमीन अधिग्रहण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है- उनके पास निवेश संबंधी दूरदर्शी योजना का भारी आभाव है।

इसी पृष्ठभूमि में मीडिया की वह एक रिपोर्ट काफी महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसके अंतर्गत प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित एक उच्च-स्तरीय कमेटी विश्व की नामी कंपनियों से संपर्क कर पूछ रही है कि भारत को उत्पादन का गढ़ बनाने के लिए उन्हें क्या-क्या सुविधाएं चाहिए। वास्तव में, पिछले पांच वर्षों में भारत की स्थिति में काफी प्रगति देखनों को मिली है। व्यापार सुगमता से संबंधित ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूची में भारत ने 77वां स्थान प्राप्त किया है। विगत दो वर्षों में भारत ने 53 पायदानों का सुधार किया है।

यह सब इसलिए भी संभव हुआ है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद 2014 से देश में ऐसी पहली सरकार आई है, जिसका शीर्ष नेतृत्व (मंत्री और सांसद)- भ्रष्टाचार रुपी दीमक से पूरी तरह मुक्त है। भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशक्ति वाली नीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण नेतृत्व के कारण सचिव स्तर के अधिकारी भी अनैतिक काम करने से बचता है। अभी पिछले दिनों ही सरकार ने भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और आय से अधिक संपत्ति के मामले में आयकर विभाग और सीमाशुल्क एवं केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग के कई अधिकारियों पर बर्खास्त कर दिया था। इस सकारात्मक स्थिति को पलीता शासन-व्यवस्था का निचला स्तर लगा रहा है, जिसका एक बड़ा वर्ग आज भी भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता से जकड़ा हुआ है। राजग-3 सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था को पांच खरब डॉलर बनाने का सपना तभी मूर्त रुप लेगा, जब अपने महत्वकांशी लक्ष्य के समक्ष आने वाली सभी बाधाओं को मोदी सरकार निर्धारित समय में दूर करने में निर्णायक रूप से सफल हो जाएगी।

(साई फीचर्स)