(हरी शंकर व्यास)
हां, समाधान घाटी को छावनी बनाने या कश्मीरी मुसलमानों का दिल जीतने से नहीं निकलेगा। इस एप्रोच में पिछले 72 साल गुजरे हैं और खतरा है कि इसी एप्रोच में आगे भी वक्त जाया होगा। ऐसा होना भयावह होगा। इससे फिर देश की दशा – दिशा बनेगी। भदेस लहजे में इसे इस तरह समझें कि पचास साल बाद श्रीनगर और उसका लाल चौक क्या पुरानी दिल्ली और चांदनी चौक की तरह होंगे या पुरानी दिल्ली और चांदनी चौक आज के श्रीनगर – लाल चौक में बदले मिलेंगे? जान लें कि आज पुरानी दिल्ली के मुसलमान का दिमाग इस हकीकत में ढला हुआ है कि जीना यहां मरना यहां। हिंदुओं के साथ राष्ट्र – राज्य धर्म की पालना में रहना है।
ऐसा दिमाग घाटी के मुसलमानों का भी बनाना है। सो, दिमाग में साथ – साथ रहने की मजबूरी, समझ बनानी है। ऐसा तब संभव है जब नरेंद्र मोदी, अमित शाह, अजित डोवाल घाटी में बनी बहत्तर साला व्यवस्थाओं को खत्म करें। अनुच्छेद 370 का खात्मा व घाटी को केंद्र शासित दिल्ली जैसा प्रदेश बनाना साहसी, दूरदर्शी फैसला है लेकिन आधा – अधूरा और घातक इसलिए है क्योंकि श्रीनगर में शासन – प्रशासन की जड़ें – बुनावट सुन्नी वहाबी मानसिकता में गुंथी हुई हैं। तभी 72 साल वाले जुमले और फोटो जस के तस हैं। सोचें पिछले 72 सालों से भारत राष्ट्र – राज्य ने कश्मीर को कैसे हैंडल किया? जवाब के लिए दो शब्द हैं – घाटी को छावनी बना कर और लोगों का दिल जीतने की कोशिश कर!
वहीं जस की तस एप्रोच फिलहाल और आगे की भी समझ आ रही है। घाटी सौ टका छावनी की स्थिति में है। घाटी के मुसलमान देश – दुनिया से कट कर ओपन जेल में सांस ले रहे हैं। मोदी – शाह – डोवाल सब मन ही मन जान रहे होंगे कि घाटी के लोग कैसे सुलगे हुए हैं। इसलिए सुरक्षा बलों को मोहल्लों – कस्बों से दस – बीस दिन में हटा कर सामान्य हालात बना सकना असंभव है। महीनों आगे इंटरनेट, फोन, आवाजाही से लोग कटे रह सकते हैं। भारत सरकार आज इस मनोविज्ञान में है कि हमने अनुच्छेद 370 खत्म कर सब ठीक कर देश – दुनिया में लगातार यह प्रोपेगेंडा बनवाए रखना है कि घाटी में सब कुछ सामान्य है। तभी सरकार वहां किसी भी तरह लोगों के विरोध, गुस्से को फूटने नहीं दे सकती है। सो, महीनों, सालों पाबंदियों का वहीं दौर चलेगा जैसा शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद दशकों चला।
रणनीति का दूसरा हिस्सा दिल जीतने का है। मतलब वहा कठपुतली पंचायतों के जरिए पैसा बांटो और घाटी के मुसलमानों को पटा कर दिल जीतो। यह भी नेहरू कालीन नुस्खा है। फर्क यह होगा कि मोदी – शाह 72 साल से चले आ रहे रूलिंग एलिट याकि अब्दुल्ला – मुफ्ती – आजाद याकि एनसी – पीडीपी – कांग्रेस के नेताओं – सांसदों – विधायकों – एजेंटों के बजाय नए प्रतिनिधि तैयार करेंगे और उनके जरिए पैसा बांट कर घाटी के दिल में अपनी जगह बनाना चाहेंगे। इससे कुछ नहीं बनना है। फालतू की खुशफहमी है, जो सोचते हैं कि घाटी के मुसलमान के घर – घर पैसा – राशन पहुंचा तो अलगाववाद खत्म होगा और लोगों के दिल मोदी – शाह से जुड़ जाएंगे।
सिरे से बकवास एप्रोच है यह! लेकिन दुनिया को समझाने, दिखावे के लिए प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार आने वाले महीनों में विधानसभा चुनाव, नई लीडरशीप, पंचायती व्यवस्था में घाटी के लोगों की भागीदारी की झांकी का प्रायोजन किए रहेगी। मतलब अगली 26 जनवरी को राजपथ पर वह झांकी हो, जिसमें कश्मीर घाटी के मुसलमान उछलते – कूदते लोकतंत्र के तराने गाते मिलें।
सो, निष्कर्ष हुआ कि दुनिया को दिखावे के लिए छावनी के बीच अमन – सुकून बतलाते हुए दिल जीतने के लिए पंचायती लोकतंत्र, अमनपरस्त नए एजेंटों से पैसे बांटने और कश्मीरियत जैसे जुमलों से जम्मू – कश्मीर को बदल गया बतलाता जाता रहे। क्या इससे कश्मीर की समस्या सुलझ जाएगी? नहीं, कतई नहीं।
तभी तर्क है कि घाटी के सुन्नी वहाबी मुसलमानों के प्रति नई एप्रोच अपनाई जाए। उनको खैरात बांटने, मुफ्तखोरी के बजाय मेहनत – मजदूरी को मजबूर किया जाए। इस हकीकत की कोई चर्चा नहीं करता है कि घाटी के मुसलमान का 30 प्रतिशत रोजगार सरकारी है। अब्दुल्ला से ले कर कांग्रेस के सभी मुख्यमंत्रियों ने घाटी के सुन्नियों को नौकरियां, पैसा बांट – बांट कर मुफ्तखोर बनाया है। पंडितों की जमीन – खेत को जब्त करा उन्हें सुन्नियों में बांटा गया लेकिन न कृषि उत्पादकता है और न खेती पर निर्भरता। लोगों का जीना, उनकी बेफिक्री 72 साल के मुफ्त राशन – चीनी, दिल्ली से लाखों – लाख करोड़ रुपए गए खजाने से है। ऊपर से पाकिस्तान से अलग पैसा आता रहा। मतलब छावनी और दिल जीतने के प्रयासों ने सत्ता खोरी, नफरत और हरामखोरी सबकी जड़ें इतनी गहरी (श्रीनगर सचिवालय में प्रदेश सेवा के अफसरों से ले कर एसडीओ – तहसीलदार – पटवारी – एसआई – थानेदार – कांस्टेबल का बना हुआ गहरा सुन्नी वहाबी तंत्र) हैं कि दिल्ली के गृह मंत्रालय ने कभी सोचा ही नहीं कि घाटी के तंत्र के पोर – पोर में कट्टर कारिंदों के होने का क्या मतलब है? यूटी बनने के बाद भी ये कारिंदे तो जस के तस रहेंगे या उन्हें जम्मू – लद्दाख या यूटी काडर के अरूणाचल, पुड्डुचेरी भेजा जा सकता है? मुझे नहीं लगता कि पटवारी या थाने के इंस्पेक्टर लेवल का घाटी का जमीनी ढांचा बदला जा सकता है।
मनोविज्ञान है कि छावनी है तो ऩफरत है और ऊपर से पाकिस्तान और जिहादियों से पैसा और हथियार वाला उकसावा है। वहीं दिल जीतने की एप्रोच है तो मुफ्त की सरकारी खैरात से लोगों की यह हरामखोरी है कि खाओ – पीओ और पाकिस्तान के गुण गाते हुए कहो कि इंडिया वालों!
तभी दिमाग में मजबूरी लाना, मतलब भारत में ही जीना – मरना, रोजी रोटी कमाना और हिंदू पंडितों को वहां पहुंचा कर (भारत के बाकी नागरिकों का मसला बहुत बाद का है।) उनके साथ भाईचारा जबरदस्ती बनवाना प्राथमिकता होनी चाहिए। छावनी और दिल से ज्यादा घाटी में दिमाग दुरूस्त कराने पर विचारा जाना चाहिए।
मतलब विधानसभा चुनाव से पहले नंबर एक प्राथमिकता श्रीनगर सचिवालय से ले कर गांव – कस्बे के पटवारी – कांस्टेबल स्तर पर अनुकंपाओं के आधार पर पसरे सुन्नी वहाबी नेटवर्क को येन – केन प्रकारेण खत्म किया जाए। दूसरा मुफ्तखोरी, फ्री राशन – पानी सेवाओं का वितरण खत्म हो। लोग खेती करने, मजदूरी करने, मेहनत करने को मजबूर हो। जीना है तो मेहनत करनी होगी और मेहनत व कमाई तब संभव है जब वहां शेष भारत से लोगों से व्यवहार बनाएं। पहले चरण में कश्मीर घाटी के मूल पंडितों को उनका घर, उनकी जमीन लौटाई जाए। 1990 के बाद से पंडितों ने कश्मीर से बाहर जा कर कमाई – धंधे में अपने को माहिर बनाया है तो यदि वे घाटी में लौटे और उससे वापिस मुसलमान व हिंदुओं का साथ – साथ जीवन संभव हुआ दिखा तो अपने आप बीस – तीस सालों में घाटी में भी पुरानी दिल्ली – चांदनी चौक की तरह दिमाग का यह सोचना संभव हो सकेगा कि जीना है तो साथ – साथ रहना होगा! जाहिर है दिमाग को ताकत से, घाटी को छावनी या घेटो में बदल कर या मुफ्तखोरी से दुरूस्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि उन स्थितियों के निर्माण से ही किया जा सकता है, जिससे दिमाग में बात पैठे कि जीना है तो साथ – साथ रहना होगा!
(साई फीचर्स)
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