(चंद्रभूषण)
पिछली मंदी से पहले दुनिया भर में दिखे ईंधन और खाद्य संकट ने इन दोनों क्षेत्रों में आपूर्ति को लेकर जो अफरा-तफरी पैदा की थी, उसका एक पहलू बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा दूसरे देशों में जाकर खेती की विशाल जमीनें हथियाने का भी था। फिर माहौल पलट गया और उस दौरान ग्लोबल चर्चा में आया लैंड ग्रैब का हल्ला अचानक चर्चा से बाहर हो गया। लेकिन बड़ी पूंजी के दायरे में इस बात को लेकर सहमति है कि अगले 50 वर्षों तक दुनिया की आबादी जिस हिसाब से बढ़ने वाली है, उस हिसाब से खाद्यान्नों, सब्जियों, फलों और मांस-मछली-अंडे की पैदावार नहीं बढ़ने वाली।
शहरी दायरे और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विस्तार सघन आबादी वाली उपजाऊ जमीनों को दिनोंदिन सिमटाता जा रहा है, जिससे आगे चलकर मुश्किलें और बढ़ेंगी। इस हकीकत को ध्यान में रखते हुए अगले दस सालों में विरल आबादी वाले देशों में बाहरी कंपनियों द्वारा विशाल फार्मों पर हाइली मेकेनाइज्ड खेती का चलन बढ़ने वाला है।
ब्राजील की 11 फीसदी, सूडान की 10 फीसदी, मेडागास्कर, फिलीपीन्स और इथियोपिया की 8-8 फीसदी, मोजांबीक की 7 फीसदी और इंडोनेशिया की 6 फीसदी जमीन इसके लिए प्रस्तुत है, जबकि रूस जैसे अपेक्षाकृत अमीर मुल्क ने भी अपने पूर्वी इलाकों की दसियों लाख एकड़ जमीनें चीनी कंपनियों को खेती के लिए भाड़े पर देने का फैसला किया है। पूरी दुनिया में करीब 10 अरब एकड़ खेती की और इतनी ही जंगलात की जमीनें हैं। खेतिहर जमीनों का एक फीसदी यानी 10 करोड़ एकड़ या तो विदेशी हाथों में जा चुका है या जाने वाला है। इस आपाधापी में काफी सारे जंगलों का भी बंटाधार होने की आशंका जताई जा रही है।
(साई फीचर्स)

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