कबूतर उड़ाने की आजादी……..

 

(प्रकाश भटनागर)
देश की सीनियर वकील इंदिरा जयसिंह की सलाह के बाद मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लग रहा है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नजर में सारे मानव अधिकारों के इकलौते हकदार अपराधी, दुर्दांत अपराधी और आतंकवादी ही हैं। इनसे जो पीड़ित हैं, उनके मानव अधिकारों का देश के इन दिग्गज मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नजर में कोई मोल नहीं है। राजीव गांधी की राजनीतिक हत्या या शहादत और एक साधारण लड़की के साथ विभत्स बलात्कार, हिंसा और हत्या जैसे घिनोने अपराध में इन्हें अंतर नजर नहीं आता। सोनिया गांधी ने यदि राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को माफ कर दिया था तो यह उनकी राजनीतिक मजबूरियां भी थी। आखिर श्रीलंका में तमिल आतंकवाद की समर्थक डीएमके आज भी कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है। इससे तमिलनाडू में कांग्रेस को कोई खास फायदा तो कभी नहीं हुआ। हां, कांग्रेस के लिए आखिरी मुगल साबित हो रहा गांधी परिवार इंदिरा जय सिंह की निगाह में महान हो गया है। वैसे राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी ही माफ हुई है, उम्रकैद की सजा तो वे भुगत ही रहे हैं

कायदे से तो इंदिरा जयसिंह जैसी देश की वरिष्ठ वकील को कानून की खामियों का फायदा उठा रहे निर्भया के बलात्कारी हत्यारों के साथ देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े करना चाहिए थे। दुर्दांत अपराधी देश के कानूनों में सूराख का फायदा उठा कर अपनी फांसी टलवाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। तो यह संसद सहित पूरे देश की चिंता होना चाहिए। देश में अगर वास्तविक मायने में कानून का राज कायम रखना है तो तत्काल ऐसे कानूनों की इन खामियों को दूर करने के जतन किए जाने चाहिए। भले ही इसके लिए संसद का विशेष सत्र अलग से बुलाया जाए। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम आजाद भारत के सात से ज्यादा दशकों में अंग्रेजों के बनाए कानूनों और व्यवस्थाओं में आमूलचूल बदलाव नहीं कर पाएं। अंगे्रज भले ही मुट्ठी भर थे लेकिन अपने लोगों के बचाव के लिए उन्होंने कानूनों में ढेर सारे सूराख छोड़ रखे थे। कानून के यह छेद आज भी कायम हैं। होने को तो देश में बलात्कार और हत्या के तेरह सौ से ज्यादा मामलों में अदालतें फांसी की सजा सुना चुकी है।

पर ऐसी सजाओं से बलात्कारियों को क्या फर्क पड़ा। निर्भया के हत्यारों के मामले में जिस तरह कानून की खामियों का हत्यारे फायदा उठाते नजर आ रहे हैं, यह अपराधिक मानसिकता को भयभीत करने की बजाय शायद बैखोफ करने की कोशिश ज्यादा नजर आती है। निर्भया की मां आशा देवी ने सही सवाल उठाया है। उन्होंने पूछा है कि इंदिरा जयसिंह और उनकी बेटी के साथ रेप जैसा घिनौना जुर्म होता तो क्या वे अपराधियों का माफ कर देतीं? यह सवाल काल्पनिक जरूर है लेकिन इंदिरा जयसिंह को सुन कर सिहरन से तो भर जाना चाहिए। आशा देवी के दुख को देश की हर वो मां समझ सकती है जिसने अपनी कोख से किसी बेटी को जन्म दिया है। इसलिए उनका कहा वकालत के पूरे पेशे को ही लानत भेजता लग रहा है। आशा देवी ने कहा कि ऐसे लोग बलात्कारियों का साथ देकर अपनी आजीविका चलाते हैं। निश्चित तौर पर वकालत का पेशा सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने वाला है। लेकिन हर पेशे के अपने इथिक्स होते हैं। ईश्वरीय सत्ता से सभी डरते हैं।

शायद यही मान कर अदालते गवाहों से बयान लेने के पहले गीता, कुरान या बाईबिल पर हाथ रखवा कर सच बोलने की कसम उठवाती हैं। क्या अब अदालतों को वकीलों के साथ भी ऐसा ही कुछ करना शुरू कर देना चाहिए। निश्चित तौर पर कानून भावनाओं से नहीं चलता। इसलिए ही उसकी आंख पर पट्टी पर बांधी गई है। वो सामने मौजूद सबूत से चलता है। और सबूत एक बार, दो बार, तीन बार यानि बार-बार अपराधी का दोष सिद्ध कर रहा हो और फिर भी उसे दी हुई सजा को टालने के रास्ते सामने दिखते रहें तो देश में वो लोग इस कानून पर भरोसा क्यों करें जो देश के नियम कायदों से बंध कर जीवन यापन कर रहे हैं? निर्भया के हत्यारों की फांसी देश को बहुत कुछ सिर्फ सोचने पर ही मजबूर नहीं कर रहीं, वरन जरूरी कदम उठाने की मांग भी कर रही है। न्याय में देरी भी एक तरह का अन्याय ही है। अदालतें न्याय का मंदिर हैं। और हमारे यहां कहा भी गया है कि भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं। यह भगवान के घर में तो हो सकता है। लेकिन फांसी की सजाओं के मामले में तो कह सकते हैं, यहां तो देर भी है और अंधेर भी।

मुझे यहां एक लघुकथा याद आ रही है। अपने भाषण के बाद एक नेताजी सफेद कबूतर उड़ा रहे थे। उन्होंने पहला सफेद कबूतर छोड़ा, दर्शकों ने तालियां पीटी। तभी आसमान में विपरीत दिशा से एक काला कबूतर उडता हुआ आया, उसके पैरों में एक कागज लटका हुआ था, जिस पर लिखा था, ‘अंग्रेजी शिक्षा। काले कबूतर को देख तालियां और ज्यादा जोर से बजीं। उसे नजरअंदाज कर फिर एक सफेद कबूतर आसमान में उड़ाया गया। तभी फिर सामने से एक काला कबूतर उड़ता हुआ आया, उसके पैर में भी कागज लटका हुआ था, जिस पर लिखा था, ‘आतंकवाद, हिंसा और बलात्कार। दर्शकों ने ज्यादा जोर से तालियां बजाई। नेता ने सयंत रह कर तीसरा सफेद कबूतर उड़ाया, तभी दो काले कबूतर फिर उड़ कर आ गए, उनके पैरों में कागज लटक रहे थे और उन पर लिखा था, ‘न्याय में देरी, विदेशी घुसपैठ। दर्शक तालियां बजा रहे थे। अब नेता ने एक बड़े कागज पर कुछ लिखकर दो अपेक्षाकृत सफेद कबूतरों के पैरों से लटकाया और उन्हें उड़ा दिया। दर्शकों ने सिर उठा कर आसमान में देखा। काले कबूतरों के नीचे उड़ रहे सफेद कबूतरों के पैरों से लटके कागज पर लिखा था, ‘कबूतर उड़ाने की आजादी। जाहिर है यह भी कुछ अभिव्यक्ति की आजादीऔर मानवाधिकारजैसा ही मसला था।

(साई फीचर्स)