सरकार पैसा निकाले और बांटे

(तन्‍मय कुमार)

अब जबकि भारत सरकार ने लॉकडाउन 19 दिन के लिए और बढ़ा दिया है और राष्ट्रीय स्तर पर किसी तरह की आर्थिक गतिविधियों की कम से कम अभी तुरंत मंजूरी नहीं दी है तो अब सरकार को निश्चित रूप से अपने लोगों की जान बचाते हुए उनके जहान की गंभीरता से चिंता करनी होगी। ध्यान रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग में इस जुमले का इस्तेमाल किया था कि सरकार को जान और जहान दोनों की चिंता करनी है। जान की चिंता तो ठीक है, उसके लिए सरकार गरीबों को राशन पहुंचाने और उनके खाते में कुछ पैसे डालने का काम कर रही है। धर्मादा में लगे लोग कमजोर व वंचित लोगों के लिए खाने का इंतजाम भी कर ही रहे हैं। सो, इस बात की संभावना कम है कि कोरोना वायरस की वजह से लोगों को खाना मिलना बंद हो जाए और लोग भूख से मरने लगें। अगर कहीं ऐसा होता है तो उसका कारण सिर्फ कोरोना नहीं होगा।

तभी अब सरकार को लोगों के जहान की चिंता करनी होगी। यानी इस बात की चिंता करनी होगी कि इस लॉकडाउन के बाद कैसे जीवन पटरी पर लौटेगा। यह सोचना होगा कि इस पीरियड में ऐसा क्या किया जाए, जिससे लोगों का इलाज हो, उनको खाना मिले और साथ ही आर्थिकी की गाड़ी भी पटरी पर रहे। इसका एक ही तरीका है कि सरकार कहीं से भी पैसा निकाले और उसे लोगों के बीच बांटे। लोगों के हाथ में पैसा पहुंचाना इस समय दो कारणों से जरूरी है। एक तो करोड़ों लोगों की नौकरियां गई हैं, कामकाज बंद हुए हैं, मजदूरी करने वाले बेकार बैठे हैं सो, उनके पास पैसा पहुंचेगा तो उनका जीवन बचाना आसान होगा। दूसरे, वे इस पैसे को वापस आर्थिकी में डालेंगे क्योंकि पैसा आएगा तो मांग बढ़ेगी और उससे आर्थिकी की गाड़ी को पटरी पर बनाए रखने या एक निश्चित समय के बाद पटरी पर लाने में आसानी होगी।  सरकार को कोरोना महामारी की गंभीरता को समझने के साथ साथ इस बात को भी समझना और मानना होगा कि इसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था के सामने बेहद गंभीर संकट खड़ा होना है। कम से कम 15 फीसदी तक जीडीपी गिरने की हकीकत को ध्यान में रखते हुए सरकार को काम करना चाहिए। कई आर्थिक जानकार भारत की अर्थव्यवस्था को सात से नौ लाख करोड़ रुपए तक के नुकसान का आकलन कर रहे हैं। यह जीडीपी के अधिकतम छह फीसदी के बराबर होती है। पर यह उन जानकारों की सदिच्छा है। नुकसान असल में 20 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा या 15 फीसदी के बराबर हो सकता है। ध्यान रहे भारत में उपभोक्ता खर्च का आंकड़ा बुरी तरह से गिरा हुआ है। वाहन उद्योग, रिटेल सेक्टर, सर्विस सेक्टर, निर्माण सब कुछ में गिरावट है। भारत की जीडीपी में इन्हीं का सबसे बड़ा योगदान है। अकेले वाहन उद्योग की हिस्सेदारी साढ़े फीसदी के करीब है। अगर इस सेक्टर में मांग इसी तरह गिरी रही तो अभूतपूर्व संकट खड़ा होगा।

सो, अब सवाल है कि सरकार पैसा कहां से लाए? इसका जवाब यह है कि अगर सरकार चाहे तो उसके लिए दस लाख करोड़ रुपए जुटाना मुश्किल नहीं है। आखिर अमेरिका ने कैसे अपनी जीडीपी के दस फीसदी के बराबर 151 लाख करोड़ रुपए का पैकेज दे दिया या यूरोपीय संघ ने कुल जीडीपी के पांच फीसदी और जापान ने 20 फीसदी खर्च करने का फैसला किया। इसी तरह भारत को भी फैसला करना है कि वह अपनी जीडीपी के पांच से दस फीसदी के बीच यानी साढ़े सात लाख करोड़ रुपए से लेकर 15 लाख करोड़ रुपए तक खर्च करेगा। ध्यान रहे अभी सरकार ने एक लाख 70 हजार करोड़ रुपए का पैकेज घोषित किया है और दूसरा पैकेज एक लाख करोड़ रुपए का होने की संभावना है। भारत को इसे दोगुना-तिगुना करना चाहिए। क्योंकि इसमें से काफी पैसा तो ऐसा है, जो पहले से योजनाओं में आवंटित था। असल में सरकार को पैसा निकालने के लिए कुछ गंभीरता से अपने आसपास देखना होगा और साहस के साथ फैसला करना होगा तभी पैसा निकलेगा। जैसे भारत सरकार ने कई वस्तुओं पर सेस यानी उपकर आदि लगा कर पैसे इकट्ठा किए हैं वह सारा पैसा निकाल कर कोरोना प्रभावित देश के लोगों में बांटना चाहिए। भारत सरकार ने कुछ समय पहले ही भारतीय रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष से एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए लिए। ध्यान रहे आरबीआई का आरक्षित कोष देश की इमरजेंसी जरूरतों के लिए होता है। उसमें अब भी नौ लाख करोड़ रुपए से ज्यादा हैं और देश के सामने ऐसी इमरजेंसी फिर कब आएगी, जब इसका इस्तेमाल होगा। सरकार को उसमें से लाख-दो लाख करोड़ रुपए निकालने चाहिए।

यह कहना थोड़ा जोखिम भरा है पर यह भारत सरकार को अपने विदेशी मुद्रा भंडार में से पैसा निकाल कर देश में खर्च करना चाहिए। भारत के पास विदेशी मुद्रा के तौर पर 480 अरब डॉलर जमा है। इसमें थोड़ा सा ही हिस्सा सोने आदि का है, बाकी डॉलर है। अगर सरकार इसमें से दस फीसदी भी निकालती है तो तीन लाख करोड़ रुपए से ज्यादा होगा। ध्यान रहे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में गिरावट से भारत का आयात बिल घटा है और इससे विदेशी मुद्रा भंडार भरता गया है। उसमें से दस फीसदी निकल जाता है तो कोई बड़ी आफत नहीं आने वाली है।  पर इस फैसले के लिए साहस की जरूरत होगी।

इसी तरह सरकार चाहे तो कुछ और साहसी फैसले कर सकती है। जैसे भारत के जीडीपी का 11 फीसदी हिस्सा वेतन और पेंशन के मद में जाता है। इसमें से कुछ पैसा सरकार खींच सकती है और सबसे बड़ी बात यह है कि देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों के पास दस लाख करोड़ रुपए नकद आरक्षित है। सरकार चाहे तो इसमें से पैसा ले सकती है। बहरहाल, चाहे जहां से हो सरकार पैसे निकाले और उसे गरीबों के खाते में डाले। चाहे जन धन खाते के जरिए हो या मनरेगा के प्रमाणित खातों के जरिए सरकार हर गरीब को अगले तीन महीने तक पांच हजार रुपया महीना देने का वादा करे तो अपने आप आर्थिकी की गाड़ी पटरी पर लौटेगी।

(साई फीचर्स)

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