सभ्यताओं की कोडिंग और शिकार हिंदू!

 

 

(हरी शंकर व्यास)

जैसे लोग वैसी सभ्यता। जैसी सभ्यता वैसा व्यवहार। हर सभ्यता की एंथ्रोपोलॉजी अलग, मनोविज्ञान अलग, राजनीतिक संस्कृति अलग। शरीर भले एक सा बॉयोलॉजिक लेकिन आत्मा अलग-अलग। जैविक दिमाग एक लेकिन उसकी प्रोग्रामिंग, क़ोडिंग अलग-अलग। तभी दारोमदार कौम की प्रोग्रामिंग का है, जिसे पकड़ सकना, पढ़ सकना जटिल, दुरूह, अगम्य है। ले दे कर व्यवहार वह औजार है, जिससे सप्रमाण बूझा जा सकता है कि इतिहास में, वर्तमान में हमारा व्यवहार क्या है और दूसरी सभ्यताओं का क्या? व्यवहार से अनुमान लगा सकते हैं कि दिमाग की हमारी कोडिंग, प्रोग्रामिंग ऐसी है तभी ऐसे नतीजे हैं। उस नाते जैसे किसी आईटी एप्लीकेशन की प्रोग्रामिंग में परिणाम तयशुदा होता है वैसा सभ्यताओं के साथ भी है। भविष्य में यह संभव है जब अलग-अलग कौम, सभ्यतागत एंथ्रोपोलॉजी, इतिहास और सामाजिक विज्ञानों पर आर्टिफिशिय़ल इंटलीजेंस से ऐसे अल्गोरिदम तैयार हो, ऐसे एप्लीकेशन बनें कि फलां स्थिति, फलां संकट में, फलां मसले पर हिंदुस्तान कैसे रिएक्ट करेगा, चाइनीज कैसे रिएक्ट करेंगे तो पश्चिमी जमात या इस्लामी सभ्यता का क्या व्यवहार होगा!

अपना मानना है कि इतिहास के अनुभव पर व्यवहार जांचना, बूझना व भविष्यवाणी कर सकना संभव है। जैसे हम अपने आप को लें।

भारत का इतिहास हमारे डीएनए को, दिमाग की प्रोग्रामिंग को इतना खोले हुए है, जिससे यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि पश्चिमी सभ्यता ने यदि मंगल पर बस्ती बसाई तो हम वैसे ही मंगलयान बनाएंगे जैसे चंद्रमा पर नील आर्मस्ट्रांग के पांव रखने के पचास साल बाद चंद्रयान बनाया और अपने को धन्य माना। दुनिया ने रेल बनाई तो हम भी बना लेंगे। दुनिया ने हवाई जहाज बनाया तो हम भी बना लेंगे। राज व्यवस्था का वेस्टमिन्स्टर मॉडल यदि श्रेष्ठ है तो हम भी उसके टैंपलेट बना लेंगे। मतलब हिंदुस्तानी सभ्यता की प्रोग्रामिंग में अनुगामी, फॉलोवर होना नियतिजन्य है। हम मौलिक नहीं हैं। हमें नकलची हैं। बैक ऑफिस हैं। पैदल सेना हैं। अलग-अलग तरह के कर्मियों (अंग्रेजों के वक्त कैरिबियन देशों में गन्ना पैदा कराने वाले मजदूर किसान से ले कर, खाड़ी देशों में इमारत बनवाने वाले कारीगर, फिर दुनिया के लिए आईटी कुलीगिरी) के रूप में जीवनयापन है।

हम बता सकते हैं कि सुनामी आई तो भारत राष्ट्र-राज्य कैसे उसका सामाना करेगा और भूकंप व बाढ़ आई तो उससे कैसे निपटा जाएगा। हमें पता है कि सभ्यताओं-देशों के बीच में मुकाबले का मौका आया (ओलंपिक मैदान, विश्व कूटनीति, जलवायु परिवर्तन, ज्ञान-विज्ञान के नोबेल से ले कर चीन या पाकिस्तान से लड़ाई या नेपाल, श्रीलंका, मालदीव में पैदा चुनौती) तो भारत का व्यवहार क्या होगा!

आप भी सोचंे 72 सालों में हमने आधुनिक दुनिया को क्या दिया? अमेरिका, यूरोप ने क्या दिया? इजराइल के यहूदियों ने क्या दिया? चीनियों-जापानियों ने क्या दिया? इन सबने याकि प्रमुख सभ्यताओं ने अपना ऑपरेटिंग सिस्टम खुद मौलिकता में, अपनी भाषा में प्रोग्रामिंग से बनाया! सब मौलिक हैं, सब दुस्साहसी हैं, सब खिलाड़ी हैं, सब शिकारी हैं। सबने अपने लोगों को जीवटता, जिंदादिली, निर्भयता-निडरता में ढाला हुआ है। तर्क के नाते कह सकते हैं कि चीन की तानाशाही में कैसे आजादी, निर्भयता और निडरता? पर लक्ष्य, शिकारी, अर्जुन की आंख के नाते है। माओ, देंग और शी जिनफिंग तीनों के वक्त में चीनियों के दिमाग में इतिहासजन्य इस हकीकत को डंडों से भरा गया कि हमारा गौरवमय मंचू अतीत है। चीन का बादशाह दुनिया का केंद्र बिंदु हुआ करता था। तब चीनी साम्राज्य मिडिल किंगडम कहलाता था और दुनिया मातहत हुआ करती थी।

यह चीन का वह मौलिक इतिहासजन्य अंहकार है, जिसे माओ ने कम्युनिज्म के साथ मिक्स कर लोगों को देश महान बनाने के मिशन में झोंका। जब साम्यवाद से दुनिया का केंद्र बिंदु बनना संभव नहीं हुआ तो देंग ने अमेरिका को पटा कर, उससे पूंजी और पूंजीवाद आयात कर चीन को दुनिया की फैक्टरी बना डाला। आप मानें या न मानें चीनी लोग इस मामले में नंबर एक आजाद, निडर, निर्भीक हैं कि दुनिया के बाजारों पर कब्जा करना है। परिणाम सामने है गौरवमय मंचू इतिहास वाला वैभव चीन में लौटा हुआ है। वह इतिहास के मिडिल किंगडम वाले ख्याल में दुनिया को अपने रास्तों, कॉरीडरों से, अपने सिल्क रूट से बांध रहा है।

चीन मौलिक तासीर, विशिष्ट कोडिंग, प्रोग्रामिंग, और खुद के ऑपरेटिंग सिस्टम से खिला है तो अपनी दलील है कि इस्लाम ने भी यदि दुनिया को आज नचाया, आतंकित किया हुआ है तो वह उसकी मौलिक प्रोग्रामिंग, कोडिंग की बदौलत है। ये सभ्यताएं उस नाते अपरिवर्तनीय हैं तो हम न परिवर्तनीय है और न अपरिवर्तनीय है। हमारा मामला तब भी एरिया ऑफ डार्कनेस वुंडेड सिविलाइजेशन का था और आज भी है। क्यों? इसलिए क्योंकि हम इतिहास में शिकार रहे हैं। कल मैंने लिखा था कि ईसा पूर्व सन् 320 के सिकंदर के हमले, ईसा बाद सन् 672 में बिन कासिम के हमले से 1947 तक के 23सौ साल याकि सवा दो सहस्त्राब्दियों में बतौर सभ्यता अपना क्या अनुभव रहा तो निचोड़ है कि हम हमेशा शिकार रहे। एक भी दफा व्यवहार शिकारी का नहीं हुआ! तभी अंधकार है। घायल और नकली जीवन और चुनौतियों-समस्याओं पर रूटिन ढर्रा है।

हिंदुस्तान सवा दो सहस्त्राब्दी दूसरी कौमों, सभ्यताओं की वह चरागाह रहा, जिसमें खानबादोश शिकारी आते थे और भारत के राजाओं का, भारत का शिकार करके मुंडियां बतौर ट्राफी काट ले जाते थे। व्यवस्था बनवाते या करते थे कि तुम लोगों की प्रोग्रामिंग तलवार से है। फारसी, अरबी या उर्दू या अंग्रेजी से है। तुम लोगों को मौलिकता में नहीं, स्वतंत्रता में नहीं जीना है, बल्कि हमारी गुलामी, मनसबदारी में जीते हुए हमारे प्रयोगों, हमारी जरूरत में जीना है। यूनान का सिकंदर हो, बिन कासिम, गोरी-गजनवी, चंगेज खान, नादिर शाह, बाबर हो या लार्ड क्लाइव या हाल में आए शी जिनफिंग हों सब शिकारी थे। सब घात लगा कर आए, शिकार किया, भारत के जंगल को भारत के लोगों को, भारत के बाजार को मारा, लूटा लेकिन त्रासद जो बतौर कौम हमें अंदाजा भी नहीं कि हम अपने आपको कितना लुटाए हैं और फिर दिमाग की प्रोग्रामिंग को गुलामी की कोडिंग, उधार के टैंपलेटों में बना बैठे हैं। सचमुच घायल सभ्यता पिंजरे में बंद उस जानवर की तरह है, जिसे बस यह सोच कर सुकून है कि जिंदा तो हैं दाना-पानी तो चल रहा है। पांच ट्रिलियन के तो बन रहे हैं!

ताजा निर्मम सत्य जाना जाए। चीन तीस सालों से भारत का शिकार कर रहा है। भारत से अथाह पैसा कमा रहा है। हमारे उद्योगपति-व्यापारी सब घायल हैं। कई धंधे चीन के पिंजरे में हैं। तमाम उद्योगपति, कारोबारी वहां से सामान बनवा कर अपने नाम की पैकेजिंग से बेच रहे हैं। यह क्या भारत के बाजार का चीन के पिंजरे में कैद होना नहीं है? बावजूद इसके चीन से पंगे की हिम्मत नहीं है। चीन कैसी शिकारी तासीर लिए हुए है इसे कश्मीर प्रकरण से भी समझें। चीन ने भारत से सभ्यतागत पंगे, कंपीटिशन में 1950 से भारत के दुश्मन पाकिस्तान को पिट्ठू बनाया हुआ है। उससे अपने मिडिल किंगडम साम्राज्य का कॉरीडोर, रास्ता बनवारहा है। अभी कश्मीर पर बवाल हुआ तो वह पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा लेकिन बावजूद इसके भारत और पाकिस्तान दोनों का शातिर शिकारी की तरह शिकार किया। भारत के विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री के संदेशों को सुना। शी ने भारत यात्रा का प्रोग्राम मुल्तवी नहीं किया। पर यात्रा से ठीक पहले इमरान खान को बीजिंग बुलाया। इमरान खान के साथ वे मंत्री, अफसर बहुलता में थे जो चीन से कराची बंदरगाह के क़ॉरीडोर निर्माण का काम देख रहे हैं। मतलब शी ने भारत कार्ड चलते हुए पाकिस्तान से टीम बुलवा कर वहा चल रहेअपने प्रोजेक्टों पर फटाफट काम का दबाव बनाया।

इसके बाद राष्ट्रपति शी भारत आए और मोदी से मिले लेकिन कश्मीर पर बात नहीं। हां, मोदी से दोस्ती की गलतफहमी बनने दी ताकि भारत में चीनी बिक्री यथावत चलती रहे। भारत यह न सोचने लगे कि यदि पाकिस्तान के साथ खड़े हो तो हम सामान खरीदना बंद कर रहे हैं। इसे कहते हैं आधुनिक काल में सभ्यताओं का शिकार करना। ऐसे बाकी सभ्यताएं भी हैं। अमेरिका के ट्रंप को हम दोस्त मान रहे हैं लेकिन ट्रंप ने मोदी के गले लग खरबों डॉलर के हथियार ऑर्डर लिए हैं तो पुतिन और फ्रांस ने भी मीठी बातें कर, मोदी से गले लग कर पांच वर्षों में अऱबों-खरबों रुपए के हथियार खरीदवाएं हैं। हम भारतीय मानते हैं कि वाह मोदीजी के सब गले लगते हैं लेकिन हकीकत में शी, पुतिन, ट्रंप मेक्रों घाघ शिकारी की तरह अपना निशाना साध रहे होते हैं भारत के बाजार पर! इन सबने कश्मीर पर सुरक्षा परिषद् की बैठक होने दी। गले लगने और खरबों रुपए के हथियार ऑर्डर के बाद भी ये महाबली सभ्यताएं इमरान खान को इस बात पर डांट मारने को तैयार नहीं कि कैसे भारत के खिलाफ जिहाद का आह्वान कर रहे हो।

दरअसल इस्लाम भी शिकारी प्रकृति का है और चीन, अमेरिका, रूस, फ्रांस भी होमोसेपिंयस की मूल शिकारी प्रकृति की प्रोग्रामिंग, कोडिंग लिए हुए हैं तो भारत की चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि भारत का 23सौ साल का इतिहास दुनिया को समझाए हुए है कि पंडित नेहरू हों या नरेंद्र मोदी सभी का फलसफा यहीं है और होगा कि हमने युद्ध नहीं, बल्कि बुद्ध दिया है! लब्बोलुआब में सभ्यताओं की जमात, इनके कंपीटिशन में, भावी संघर्ष की संभावनाओं में हम हिंदुस्तानी मूल होमोसेपिंयस की उस प्रोग्रामिंग में ब्लैंक याकि खाली हुए पड़े हैं, जिसकी प्रवृति-निवृति का बीज है शिकार करना, शिकारी होना।

(साई फीचर्स)

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