(रौशन कुमार झा)
मैं करीब 8 साल का रहा होऊंगा, तभी पापा मुझे और मेरे बड़े भाई को लेकर गांव से दूर शहर आ गए थे। हम पापा के साथ जहां रहने आए वह एक लॉज था जिसमें केवल बैचलर लोग रहते थे। उसके अगल-बगल कुछ फैमिली क्वॉर्टर थे। स्कूल में एडमिशन होने के बाद उन फैमिली क्वॉर्टर्स के बच्चों से हमारी दोस्ती हो गई। हमारा उनके घर आना-जाना शुरू हो गया। इन्हीं में एक झा अंकल का परिवार था। उनका बड़ा बेटा मुझसे एक क्लास सीनियर था और छोटा एक क्लास जूनियर। हम तीनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। झा अंकल लोकल लेवल के छोटे-मोटे नेता थे। झा आंटी हॉस्पिटल में हेड नर्स थीं। उन्हीं की कमाई से पूरा परिवार चलता था, लेकिन वह खुद घर खर्चे के लिए झा अंकल पर निर्भर रहती थीं। अंकल काफी रौबदार इंसान थे।
कई बार ऐसा देखा कि कपड़े में अगर प्रेस सही नहीं है तो आंटी से उसी कपड़े पर दोबारा प्रेस करवाते। घर तो क्या, मोहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनकी अनुमति के बिना कुछ कर ले। जब तक वह घर में होते बच्चे या आंटी, किसी की आवाज नहीं सुनाई देती थी। उन्हीं के घर के आगे एक छोटा मैदान था जहां हम खेला करते थे। झा अंकल के बेटे तभी खेलने आते जब अंकल घर पर नहीं होते। कई बार ऐसा होता कि दोनों हमारे साथ खेल रहे होते और उसी समय अंकल आ धमकते। फिर क्या, मैदान में ही वे उन्हें जिस तरह पीटना शुरू करते तो लगता था कि जान लेकर ही छोड़ेंगे। उन दोनों भाइयों को पिटता देख हम बच्चे अपना बैट-विकेट छोड़कर घर भाग जाते थे। कई बार दोनों भाइयों की पिटाई की आवाज हमें उनके घर के पास से गुजरते हुए भी सुनाई पड़ती थी।
समय बीतता गया और मैं स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर हायर एजुकेशन के लिए दिल्ली आ गया। इस बीच पापा भी रिटायर हो गए और उस शहर से हमारा नाता टूट गया। अभी कुछ दिनों पहले गांव गया तो मन में झा अंकल और आंटी से मिलने की इच्छा जाग उठी। सोशल मीडिया के इस जमाने में भी उनके दोनों बच्चे कहीं किसी प्लैटफॉर्म पर कभी नहीं दिखे जिससे कि उन लोगों के बारे में जान पाता। करीब 20 साल बाद मैं उन लोगों से मिलने जा रहा था। वहां पहुंचा तो उनकी स्थिति देख चौंक गया। झा अंकल की याददाश्त चली गई थी और वह चलने-फिरने में असमर्थ थे। आंटी ने तुरंत मुझे पहचान लिया और फोन कर दोनों बेटों को बुलाया जो पास में ही दुकान करते थे। पूरे परिवार के इकट्ठा होने के बाद जो दृश्य मैंने देखा उसने मुझे सवालों से भर दिया।
बड़े बेटे ने मेरे आने की सूचना अंकल को इस तरह दी, हां जी झा साहब, देखो कौन आया है। पहचानो। पहचानते हो इसे। झा अंकल मेरी तरफ बस ताकते रहे। दूसरे बेटे ने कहा, देखो-देखो, आपको ही देखने आया है। बात तो करो। दिल्ली से आया है आपको देखने। जब दोनों बेटे इस तरह बात कर रहे थे, मुझे वे दिन याद आ रहे थे जब इनके सामने किसी की आवाज नहीं निकलती थी। तब शायद अंकल उसे ही अपनी कामयाबी मानते थे, पर शायद उसी कामयाबी ने यह नौबत ला दी थी कि आज दोनों बेटों या आंटी के चेहरों पर अंकल की इस स्थिति को लेकर जरा भी दुख नजर नहीं आ रहा था। क्या वक्त की इस गहरी मार को समझ पा रहे थे अंकल?
(साई फीचर्स)

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