दूसरों की नकल करने में मैं माहिर था और लड़कियों के बीच फेमस भी

 

 

(दास्तानः लालू प्रसाद यादव)

मुझे पता नहीं कि मैंने कैसे दूसरों की नकल करने की कला सीखी। लेकिन मैं इसमें माहिर था। मेरे दोस्त और हमारे कुछ शिक्षक मेरे प्रदर्शन का आनंद उठाते थे। गांव और स्कूल में चोर-सिपाही का खेल करते-करते मैंने अभिनय सीख लिया। हमारे स्कूल में एक बार बीएमपी सभागार में शेक्सपियर के नाटक मर्चेंट आफ वेनिस का प्रदर्शन हुआ। मैंने शायलॉक की भूमिका निभाई। दर्शकों में मौजूद बीएमपी के अधिकारी, स्कूल के शिक्षक और वेटनरी कॉलेज के निवासियों ने मेरे प्रदर्शन को काफी सराहा। बीएमपी कमांडेट बृजनंदन बाबू ने मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया। मेरे शिक्षकों, गोरखनाथ जी और नागेंद्र नाथ वर्मा ने मेरी पीठ थपथपाई और मेरा हौसला बढ़ाया। यह उन क्षणों में से था, जिन पर मैं गर्व करता हूं। मुझे अहसास हुआ कि मैं लोगों को हंसा सकता हूं। जब लोगों को मेरी बात में आनंद आता तो मैं खुश होता था। मुझे खुद पर हंसना पसंद था। बाद के वर्षों में सार्वजनिक जीवन में मेरे इस कौशल ने लोगों से जुड़ने में मेरी मदद की। यहां तक कि इसी बदौलत मैं अपने विपक्षियों पर प्रभावी तरीके से हमले भी कर सका।

लोहा सिंह के संवाद : उन दिनों आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला भोजपुरी धारावाहिक लोहा सिंह भोजपुरीभाषियों के बीच खासा लोकप्रिय था। यह नाटक रामेश्वर सिंह कश्यप ने लिखा था और खुद उन्होंने लोहा सिंह की भूमिका निभाई थी। काल्पनिक चरित्र लोहा सिंह ब्रिटिश जमाने का रिटायर्ड फौजी जवान था। वह इस नाटक का नायक था। वह अपनी पत्नी को खदेरन को मदर कहता और उससे अजीब सवाल करता। उसका यह संवाद- अरे ओ खदेरन को मदर, जब हम काबूल का मोर्चा में था नू. . . लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया था। जैसे ही वह अपना संवाद शुरू करता लोग गोंद की तरह रेडियो से चिपक जाते और हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते। मैंने लोहा सिंह के संवाद याद कर लिए थे और जब भी लोग कहते मैं हू ब हू उनकी तरह प्रस्तुत करता। रेडियो से शाम के एक निश्चित समय पर लोहा सिंह का प्रसारण होता था। लोग रेडियो चालू करने के लिए उस पल का इंतजार करते थे, लेकिन वे मुझे जब भी देखते तो मुझसे लोहा सिंह के संवाद बोलने के लिए कहते और मैं भी उन्हें मायूस नहीं करता। मैं लोगों को हंसाने के तरीके ईजाद करता था। पटना के मिलर हाईस्कूल में दाखिले में मेरे शैक्षणिक रिकार्ड की तुलना में मेरी विनोदपूर्ण प्रवृत्ति, लोगों की नकल करने के कौशल और जमीन से जुड़ी सादगी ने बड़ी भूमिका निभाई।

लड़कियों के बीच लोकप्रियता : स्कूल से निकलने और कॉलेज में जाने के साथ ही मुझे अहसास हुआ कि मैं बदलाव के मुहाने पर खड़ा हूं। लेकिन यह बदलाव इतना नाटकीय और दूरगामी होगा, यह मैने अपनी तेज कल्पना शक्ति के बावजूद नहीं सोचा था। कॉलेज के उन दिनों ने मुझे पेशेवर स्तर के साथ-साथ निजी तौर पर भी बदल दिया। चूंकि अपने परिवार और आसपास के इलाकों से भी कॉलेज जाने वाला मैं पहला सदस्य था, इसलिए मैं जल्दी ही विश्वविद्यालय की राजनीति में घुस गया जो कि बाद में मेरे सार्वजनिक जीवन में जाने की बुनियाद बना। मैं राबड़ी देवी से मिला और उनसे शादी की। छात्र राजनीति में व्यस्तता के बावजूद मैं नियमित रूप से अपने गांव फुलवरिया जाने का समय निकाल ही लेता था। इसी तरह अपनी खेती और मवेशियों की देखभाल में मेरी रुचि भी लगातार बनी रही। कॉलेज जीवन के शुरुआती दौर से ही मैं लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय था। लड़कियों के मेरी तरफ झुकाव का कारण यह था कि मैं सहज ही उन असामाजिक तत्वों की पहचान कर लेता था और उन्हें सबक सिखाता था, जो लड़कियों का पीछा करते, उन पर कटाक्ष करते या उनको परेशान करते। मेरी मौजूदगी भर से सड़क छाप रोमियो बुत बन जाते थे। मैं लड़कियों के बीच इतना लोकप्रिय हो गया कि वह लड़कों के खिलाफ शिकायत लेकर मेरे पास पहुंचतीं और लड़कों के नाम भी बतातीं। उन्हें विश्वास था कि मैं कार्रवाई करूंगा, मैं उन्हें कभी निराश नहीं करता था। मैं उन लड़कों को पकड़ता और उन्हें लड़कियों के साथ अच्छा व्यवहार करने की सीख देता। यह सबक बेहद प्रभावी साबित हुआ। ऐसे रोमियो की पुलिस या प्रशासन में शिकायत करने में मेरा भरोसा नहीं था, उन उद्दंड लड़कों को सबक सिखाने का मेरा अपना तरीका था।

महात्मा लालू आया : मेरी बहादुरी के कारनामे मेरे कॉलेज के बाहर फैलने लगे। मैं पटना विमिंस कॉलेज और मगध महिला कॉलेज तक में लोकप्रिय हो गया। संभ्रांत छवि वाले पटना विमिंस कॉलेज में लड़कियों की कक्षाओं को संबोधित करने वाला मैं पहला छात्र था। जब मैंने वहां भाषण देना शुरू किया तो लड़कियां यह कहते हुए एक स्वर में मेरा स्वागत करने लगीं कि लालू महात्मा आया है- लालू महात्मा आया है। मैं साधारण कुर्ते-पायजामे में था और साधारण बातचीत की शैली में भाषण दिया। मुझमें इतना विश्वास आ गया था कि 1970-71 में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (पीयूएसयू) के अध्यक्ष और महासचिव पद के लिए चुनाव कराने की मांग कर सकूं। पीयूएसयू उस समय सिर्फ कागजों पर ही अस्तित्व में था और विवि प्रशासन द्वारा नामित की गई छात्रों की मंडली का इस पर कब्जा था। चर्चित इतिहासकार और पटना विवि के तब के कुलपति प्रोफेसर केके दत्त ने पहली बार इन पदों के लिए सीधे चुनाव की मांग मान ली। मैंने उसमें महासचिव पद के लिए पर्चा भरा जबकि मेरे सीनियर राजेश्वर प्रसाद जो पिछड़ी जाति के एक और छात्रनेता थे, उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए नामांकन पत्र भरा। (लालू प्रसाद यादव की पुस्तक गोपालगंज से रायसीना से साभार)

(साई फीचर्स)