अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

 

 

(सुधीर मिश्र)

राहत इंदौरी साहब ने कहा है :

दोस्ती जब किसी से की जाए!

दुश्मनों की भी राय ली जाए!!

सही कहा भाई। बस, ईगो आड़े आ जाता है। कौन पूछे दुश्मन से। दोस्त बनाने के लिए लोग आमतौर पर दोस्त का ही सहारा लेते हैं। फेसबुक पर ही देख लीजिए। फ्रेंड-रिक्वेस्ट आते ही देखते हैं कि कॉमन फ्रेंड कौन है। दोस्ती की लिस्ट पांच हजार तक है। औसतन हजार दो हजार दोस्त तो ज्यादातर लोगों के होते ही हैं। ज्यादा बड़ा नाम है तो हजारों फॉलो करने वाले अलग से। ऐसे ही अपनी वॉल पर अपने दोस्तों से एक सवाल पूछ लिया। ऐसे कितने दोस्त हैं, जो आप को लगता है कि वे आपके सच्चे दोस्त हैं? जवाब देखकर हैरानी हुई। ज्यादातर के जवाब एक से लेकर पांच तक थे। कुछ का तो कहना था कि एक भी नहीं। कुछ उत्साही लोगों ने दावा किया कि उनके दस से लेकर 50 मित्र हैं।

सवाल पूछने के पीछे मंशा यह थी कि आज फ्रेंडशिप डे है। टीन ऐजर्स में इसे मनाने की काफी दिनों से तैयारी चल रही है। राजधानी के ज्यादातर कैफे और रेस्टोरेंट्स में पार्टियां होनी हैं। समझने वाली बात है कि क्या यह वाकई मित्रता का सेलिब्रेशन है। दोस्ती होती क्या है? पुरानी पीढ़ी के लोगों के हिसाब से तो दोस्त वो होता था, जो वक्त पर काम आए। जो सुख और दुख दोनों में साथ खड़ा रहे। एक पुराने मित्र से बात होने लगी। वह अपना किस्सा बताने लगे। कहने लगे कि मेरा एक बहुत अच्छा दोस्त है। जब जरूरत हुई, कोई उत्सव हुआ, वह हमेशा साथ रहा। बच्चों की फ्रेंडशिप डे की तैयारी देखी तो याद आया कि अपने दोस्त से काफी समय से बात नहीं हुई। उसको फोन करके शिकायत की कि क्या भाई इतने दिनों से बात क्यों नहीं कर रहे। पलटकर जो जवाब आया उसने चौंका दिया। मित्र के दोस्त ने कहा कि उसके दफ्तर में सालभर पहले उस पर घोटाले का आरोप लगा। उससे वह आहत है। आरोप गलत है। बात वह इसलिए नहीं कर रहा क्योंकि वह खुद पर लगे कलंक की छाया मित्रों पर नहीं पड़ने देना चाहता। यह सुनकर मित्र भावुक हो गए और उससे कहा कि यही वो वक्त है, जब मुझे तुम्हारे साथ होना चाहिए।

यह एक उदाहरण था कि दोस्ती कैसी होती है। सोशल मीडिया वाली नहीं। जहां लोग एक-दूसरे को जानते तो हैं, दोस्त की लिस्ट में भी हैं पर दोस्त नहीं। वैसे सच कहूं तो बहुत ज्यादा दोस्त हो भी नहीं सकते। दोस्त गिने चुने ही होते हैं। ऐसे ही एक मित्र की याद आती है जो दुनिया में नहीं है। जब मन किया, उसके घर चले गए। जो खाने का मन किया, उसकी मां को बोल दिया। पैसों की जरूरत हुई तो उसके पापा से मांग लिए। शर्ट पसंद आ गई तो पहनकर निकल लिए। कभी कोई संकोच ही नहीं होता था। पूछकर जाने मिलने का तौर-तरीका होता ही नहीं था। न फोन थे और न मोबाइल। अभी मोबाइल दोस्ती को देखकर तकलीफ होती है। युवाओं में दोस्ती से ज्यादा तो शायद ब्रेकअप होते हैं। ब्रेकअप फैशन है। बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड फैशन है। वह इसलिए होना जरूरी है क्योंकि बाकी के पास दो-दो, चार-चार हैं। सब कुछ इंस्टेंट, बेहद तेज रफ्तार में। हो सकता है यही आज के वक्त के हिसाब से हो पर यह फैशन हो सकता है, दोस्ती नहीं। दोस्ती का कोई दिन नहीं होता। उसका असल सेलिब्रेशन तब होता है, जब दोस्त को सबसे ज्यादा जरूरत हो। समाज से लेकर सियासत तक हर जगह इसकी कमी नजर आती है। दोस्ती अब फायदे-नुकसान को देखकर होती है। हैसियत-ओहदा समझकर की जाती है। शायद ऐसी ही दोस्ती के लिए बशीर बद्र साहब ने कहा है-

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला!

अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला!!

(साई फीचर्स)