(भूपेन्द्र गुप्ता’अगम’)
ऐसे समय में जब चीन की कई बस्तुयें हमारे लिये अपरिहार्य हैं ,तब क्या चायना बायकाट का नारा धरातल पर संभव हो सकेगा ? यदि संभव भी होगा तो उस पर आत्मनिर्भर बनने में हमें सालों लग जायेगे क्या ऐसे में चीन के साथ वर्तमान तनाव समाप्त हो जायेगा?
भारत जैसे भावनात्मक देश में किसी भी नारे को आगे लाना बहुत आसान होता है और ऐसा सभी उन देशों में आसान हो जाता है जो संवेदशील होते हैं। ऐसा ही एक नारा बाइकाट चाइना का नारा है। चीन की विस्तारवादी नीतियों और धोखेबाजी के कारण दुनिया के कई देशों में यह ज्वार उठता रहता है। किंतु चीन की रणनीतिक घेराबंदी क्यों नहीं हो पा रही है , इन कारणों पर हमें विचार करना होगा।
मैंने विगत दिनों एक चीनी कंपनी द्वारा भारतीय मजदूरों को बालाघाट में नौकरी से निकालने जैसे मुद्दे को उठाया था तो पता चला कि उस कंपनी को टनल खोदने का ठेका मैग्नीज की खदानों में दिया गया था ।क्या यह काम हमारे मजदूर नहीं कर सकते थे ?,जबकि हम अंग्रेजों के जमाने से मायनिंग कर रहे हैं।हम भी कर सकते हैं लेकिन तकनीकी कार्यों में जितनी लाभोन्मादी भारतीय कंपनियां होती हैं उतनी चीनी नहीं। इसलिए वे प्रतिस्पर्धा में हमसे आगे निकल जाती हैं और किफायती होने के कारण समर्थन पा जातीं हैं। हम भावुक होते हुए भी केवल नारा लगाते रह जाते हैं। दिवाली के फटाकों, लड़ियों का बहिष्कार कर क्या हम चीन को घेरने के उद्देश्य में सफल हो सकते हैं? शायद नहीं।ऐसे कई चीनी उत्पाद है जो.हमारे लिये अनावश्यक हैं जैसे धार्मिक मूर्तियां,लाफिंग बुद्धा,डांसिंग गणेश ,बच्चो के खिलौने,नेल कटर,टूथ ब्रश,फर्नीचर आदि।लेकिन कुछ ऐसी भी चीनी बस्तुयें हैं जो हमारे लिये अपरिहार्य हैं जैसे दवाईयों का कच्चा माल और इलेक्ट्रानिक कलपुर्जे,रासायनिक खाद आदि।आज चीन को घेरने की शासन के स्तर पर ना तो कोई रणनीति है ना ही ऐसा कोई उद्देश्य ।केवल राजनीतिक उकसावे के लिए बस नारे उछाले जाते हैं ।
भारत और चीन के बीच में घाटे का व्यापार है ।लगभग 8600 करोड़ डॉलर का हम चीन से आयात करते हैं और 7030 करोड़ डॉलर का निर्यात करते हैं लगभग 15 00 करोड़ डॉलर का व्यापार घाटा चीन के साथ हमें होता है क्योंकि चीन ने ऐसे क्षेत्रों में स्पर्धा करने की क्षमता पैदा कर ली है जिनमें आगे बढ़ने का हम प्रयास ही नहीं कर रहे हैं ।स्पर्धा से हम डरते हैं और मोनोपोली का लाभ उठाते हैं यही हमारी कमी है। अभी-अभी जारी हुई गेटवे हाउस रिपोर्ट बताती है कि भारत के 30 सफल स्टार्टअप में से 18 में चीनियों का निवेश है । 10 करोड़ डालर से अधिक का निवेश लेने वाली स्टार्टअप यूनीकार्न्स में चीनी लोगों ने जमकर निवेश किया है और खतरा भी उठाया है ।इसी कारण धीरे धीरे दुनिया में उन्होंने व्यावसायिक वरीयता प्राप्त की है ।
पूरे के पूरे देश चीन से नफरत करते हुए भी उनके उत्पादों का पूर्ण बहिष्कार नहीं कर पा रहे हैं। जब ज़्यादातर अमरीकी कंपनियां भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश कर रही थीं, तब चीनियों ने टेक स्टार्टअप्स में पैसा लगाया। अलीबाबा ,बाइक डांस, टेशेंट जैसी कंपनियों ने 92 भारतीय स्टार्टअप को पैसा दिया है ,जिसमें पेटीएम बाईजूस, ओयो और ओला जैसे यूनिकॉर्न शामिल है। देश की कंपनियों के रिकॉर्ड में चीनी निवेश न दिखाई पड़े इसके लिए उन्होंने दूसरे देशों के माध्यम से भी निवेश करने की चतुराई की है ।अलीबाबा ने पेटीएम में सीधे निवेश ना करके अपनी ही सिंगापुर की कंपनी अलीबाबा सिंगापुर होल्डिंग्स के माध्यम से निवेश किया है। फॉसून कंपनी ने ग्लैंन फार्मा में लगभग 110 करोड़ डालर, एमजी मोटर्स में 30करोड़ डालर का निवेश है ।चीनी कंपनियों ने निवेश के क्षेत्र में रिस्क उठाने की क्षमता दिखाई है और वे कामयाब हो गये हैं। शुरुआत में पेटीएम को 3690 करोड़ का घाटा हुआ इसी तरह फ्लिपकार्ट को 3837 करोड़ का घाटा हुआ लेकिन चीनी निवेशकों ने पैर पीछे नहीं हटाये और वह भारतीय व्यापार पर बहुत हद तक कब्जा करने में सफल हो गये। क्या ऐसे चतुर निवेशक से बिना रणनीति के निपटा जा सकता है ?
सरकार को ऐसे रोड मेप के साथ सामने आना चाहिए जिसमें भारत में दवा बनाने के लिए प्रयुक्त एपीआई का देश में ही उत्पादन हो सके, रसायन उद्योग को बढ़ावा मिले, पॉलीमर और अन्य रसायन प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों पर उत्पादित किए जाएं सरकार इन कंपनियों में रिस्क उठाये और नीतिगत समर्थन दे। कमलनाथ सरकार जब फार्मा सेक्टर की कंपनियों से निवेश की चर्चा कर रही थी तब बहुत सी नीतिगत खामियां सामने आईं थीं जिन्हें उन्होने तत्काल दूर किया किंतु ऐसी नीतियां अन्य राज्यों में भी बाधक बनीं है।
सेमीकडक्टर,एम्बेडेड टेक्नालाजी,चिप,और मेमोरी मीडिया के क्षेत्र में हमें उतरना पड़ेगा और प्रतिस्पर्धात्मक जुनून के साथ भी तब कहीं यह घेराबंदी सफल हो सकती है।
चीन का ऐसा विरोध केवल भारत में नहीं हो रहा है बल्कि फिलीपीन,वियतनाम और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी पूर्ण बहिष्कार के नारे लगाते हैं किंतु क्या बजह है कि हम केवल नारा लगा रहे हैं और वियतनाम सफल होता दिख रहा है। सोचिये कि हम लगभग 800करोड़ रुपये की केवल अगरबत्ती का काड़ी का आयात करते हैं चीन से यह धंधा वियतनाम ने छीन लिया है।चीन ने हमें सिल्क में,गार्लिक में पीछे धकेल दिया है जबकि हमारा सिल्क सदियों से दुनिया की पसंद रहा है ? क्या हमारी प्रशासनिक व्यवस्था भ्रष्टाचार छोड़कर जुनूनी भावना से इसे वापिस छीन सकती है?
हम भी उसे घेर सकते हैं पटक सकते हैं मगर कोरोना की भीषण त्रासदी में भी निजी भंडार भरने वाली मशीनरी के सामने यही बड़ी चुनौती है।अगर जुनून है तो आइये इसका सामना करें यही सच्चा राष्ट्रवाद है।
(साई फीचर्स)