लेफ्ट के इको-सिस्टम में फंसी हुई ममता

 

 

(बलबीर पुंज)

देश के प्रत्येक आपराधिक मामलों में हिंदू-मुस्लिम कोण ढूंढने और उसे विकृत तथ्यों के आधार पर स्थापित करने का प्रयास कौन और क्यों कर रहा है- वह पश्चिम बंगाल के हालिया घटनाक्रम से स्पष्ट हो जाता है। भले ही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा सभी मांगें माने जाने के बाद प्रदेश से प्रारंभ हुई डॉक्टरों की देशव्यापी हड़ताल खत्म हो गई हो, किंतु इस दौरान जो कुछ हुआ, उसने तीन तथ्यों की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। पहला- प्रदेश की स्थिति वामपंथियों के हिंसक शासन की तुलना, अधिक रसातल में पहुंच गई है। दूसरा- इस्लामी कट्टरवाद और स्थानीय गुंडों को राज्य सरकार का परोक्ष-प्रत्यक्ष अब भी समर्थन प्राप्त है। और तीसरा- लोकसभा चुनाव के नतीजों और प्रदेश में अपने हालिया प्रदर्शन से तृणमूल कांग्रेस ने सबक नहीं लिया है।

निःसंदेह, किसी भी सभ्य समाज में ऐसे किसी भी प्रदर्शन या आंदोलन का समर्थन नहीं किया जा सकता, जिसमें किसी निरपराध के प्राण पर संकट आ जाए। किंतु कटु सत्य यह भी है कि प.बंगाल के इस मामले को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिनके अधीन प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्रालय भी है- वे डॉक्टरों पर हमला करने वालों पर सख्त कार्रवाई करके आसानी से सुलझा सकती थीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्या इस मामले में पुलिस की अकर्मण्यता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा हठधर्मिता का परिचय देने का एकमात्र कारण हमलावरों और पीड़ित के मजहबी पहचान में नहीं छिपा है?

आखिर पूरा मामला क्या है? गत 10 जून को नीलरत्न सरकार मेडिकल कॉलेज में उपचार हेतु भर्ती 75 वर्षीय मोहम्मद शाहिद की मौत हो गई। बताया जा रहा है कि उनकी मृत्यु ह्रदयघात के कारण हुई थी। इस पर गुस्साए मृतक के परिजन सहित 200 की संख्या में विशेष समुदाय के लोग, अस्पताल परिसर में पहुंच गए और देर रात वहां कार्यरत डॉक्टरों के साथ हाथापाई शुरू कर दी। जब अस्पताल द्वारा स्थानीय थाने को इसकी सूचना दी गई, तब पुलिस खुलकर कोई ठोस कार्रवाई करने में इसलिए असमर्थ रही, क्योंकि हमलावर सभी मुस्लिम समुदाय से थे। टकराव बढ़ने से दो डॉक्टर घायल हो गए, जिसमें एक प्रशिक्षु चिकित्सक डॉ. परिबाह मुखोपाध्याय के सिर की हड्डी तक टूट गई। परिणामस्वरूप, प्रदेश के अधिकतर डॉक्टर हड़ताल पर चले गए और एक दर्जन सरकारी अस्पतालों के 700 से अधिक डॉक्टरों के सामूहिक इस्तीफा दे दिया। देखते ही देखते शेष भारत में 10 लाख डॉक्टर भी अपना विरोध जताते हुए हड़ताल में शामिल हो गए।

समय की मांग थी कि प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी डॉक्टरों की संवेदनाओं को समझतीं, उनके आत्मसम्मान की रक्षा करने का भरोसा देतीं और हमलावरों पर सख्त कार्रवाई का निर्देश देकर नैतिकता का परिचय देते हुए व्यक्तिगत रूप से घायल चिकित्सकों का हालचाल जानती। क्या ऐसा हुआ? नहीं। प्रतिकूल इसके मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हड़ताली डॉक्टरों को भाजपा का एजेंट बताकर उनपर मढ़ दिया कि भाजपा के कहने पर वह मुस्लिम मरीजों का उपचार करने से इनकार कर रहे है।

अब यदि इस आरोप को आधार भी बनाया जाएं- तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, डॉक्टरों की हड़ताल में अपने भतीजे आबेश बनर्जी और कोलकाता नगर निगम के महापौर व तृणमूल नेता फिरहाद हकीम की पुत्री डॉक्टर शब्बा हकीम के शामिल होने पर क्या कहेंगीं? वास्तव में, पूरा मामला अस्पतालों में डॉक्टरों को सुरक्षा देने और स्थानीय कानून-व्यवस्था से जुड़ा था, किंतु यह मुस्लिम समुदाय में कट्टरपंथी वर्ग और संबंधित शरारती-तत्वों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए उन्हे संरक्षण देना और प्रोत्साहित करना था।

सनातन भारत के इतिहास में पश्चिम बंगाल का विशिष्टस स्थान रहा है, जो इसे एक प्रसिद्ध वाक्य जो आज पश्चिम बंगाल सोचता है, वह शेष भारत कल सोचता है चरितार्थ भी करता है। आधुनिक दौर में जिस धरती को स्वामी विवेकानंद ने सनातनी विचार दिए, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सुभाषचंद्र बोस आदि ने राष्ट्रवादी, तो बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय व रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने साहित्यिक पहचान दी, उसकी जड़ों को वामपंथियों ने सर्वप्रथम अपने हिंदू विरोधी मानस और हिंसक मार्क्सवादी विचारधारा के माध्यम से 34 वर्षों (1977-2011) तक काटने का प्रयास किया।

हिंसा और असहमति के अधिकार का गला घोंटना- मार्क्सवादी राजनीति के केंद्रबिंदु में है। इसी के अंतर्गत, योजनाबद्ध तरीके से पहले स्थानीय गुंडो और अराजक तत्वों को संरक्षण दिया गया और फिर उन्ही के माध्यम से मार्क्सवादियों ने प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा सहित अन्य राष्ट्रवादी संगठनों और उसके कार्यकर्ताओं को नियंत्रित और प्रताड़ित करने का प्रपंची जाल बुना। यही कारण है कि वामपंथी शासन में सार्वजनिक रूप से न केवल राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा मिला, साथ ही जो लोग किसी भी कारण उनका सहयोग देने में असमर्थता प्रकट करते, उन्हे भी कोपभाजन का शिकार बना दिया जाता।

वामपंथियों की वैचारिक असहिष्णुता से छुटकारा पाने के लिए प्रदेश की जनता ने तृणमूल कांग्रेस पर विश्वास किया, परिणामस्वरूप- ममता बनर्जी वर्ष 2011 और 2016 के विधानसभा के चुनाव में विजयी होकर लगातार दो बार मुख्यमंत्री बनीं। स्वाभाविक रूप से लोगों को प.बंगाल की स्थिति में परिवर्तन की आशा थी और अपेक्षा थी कि वामपंथियों से मुक्ति के बाद प्रदेश में गुंडों का राज ना होकर कानून का राज और सुशासन होगा। परंतु जनता की अपेक्षाएं धूल-धूसरित हो गई।

वामपंथी शासन में प्रदेश में जो गुंडे मार्क्सवादियों की केंचुली पहनकर घूमा करते थे, वे रातोंरात तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता बन गए। अर्थात प्रदेश की सत्ता केंद्रित राजनीति, जो पहले से रक्तरंजित और हिंदू विरोधी थी- वह न केवल अपरिवर्तित रही, अपितु उसे और अधिक बल भी मिलने लगा। राजनीतिक विरोधियों की हत्या या उनपर हमलों के साथ प.बंगाल के मुख्य पर्व- दुर्गापूजा और सरस्वती पूजा तक को बाधित करने की कोशिश की गई।

तृणमूल कांग्रेस की राजनीति भी अपने पूर्ववर्ती वामपंथियों की तरह हिंसक और सनातन संस्कृति विरोधी है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के आशीर्वाद से उसके कार्यकर्ता और स्थानीय नेता, भाजपा को समर्थन देने वालों- विशेषकर अति-निर्धन और वंचितों को निशाना बना रहे है। प्रदेश में भाजपा के उभार के बाद 2016 से अबतक 100 से अधिक भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। हाल ही में प्रदेश के कूचबिहार स्थित मारूगंज कठालतला में भाजपा कार्यकर्ता आनंदपाल की हत्या कर दी गई है। मृतक के बड़े भाई के अनुसार, कुछ समय पहले ही आनंदपाल तृणमूल छोड़कर भाजपा से जुड़ा था। इससे पहले, लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के अगले दिन 24 मई को नादिया में भाजपा कार्यकर्ता संतू घोष, तो 27 मई को उत्तर 24 परगना में पार्टी समर्थक चंदन शॉ को मौत के घाट उतार दिया था।

इस स्थिति और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बौखलाहट का कारण प्रदेश में भाजपा का लगातार बढ़ता जनाधार है। गत वर्ष पंचायत चुनाव और उप-चुनावों में भाजपा का मतप्रतिशत बढ़ने के बाद इस लोकसभा चुनाव में उसे प्रदेश की 42 में 18 सीटों के साथ 40 प्रतिशत से अधिक मत भी प्राप्त हुए है। रोचक बात तो यह है कि 34 वर्षों तक बंगाल पर अबाधित शासन करने वाले वामपंथियों का इस बार यहां खाता भी नहीं खुला है और 7 प्रतिशत मतों पर सिमट गई है।

प्रदेश में खिसकते जनाधार को बचाने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उन्हीं दशकों पुराने सांप्रदायिक जुमलों का उपयोग कर रही है, जिसे जनता 2014 के बाद से लगातार खारिज कर रही है। मरीज की मौत पर उग्र मुस्लिम भीड़ द्वारा डॉक्टर की पिटाई और विरोधस्वरूप देशभर में चिकित्सकों की हड़ताल पर ममता की टिप्पणी- भाजपा के उकसाने पर डॉक्टर मुस्लिम मरीजों का इलाज नहीं कर रहे है- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

अक्सर, भाजपा विरोधियों के चुनावी गणित में बार-बार स्थापित करने का प्रयास किया जाता है कि भाजपा मुस्लिम विरोधी है, इसलिए मुसलमान भाजपा के पक्ष में कभी वोट नहीं करेगा। क्या इस मिथक को पहले 2014, फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने गलत सिद्ध नहीं किया है? क्या यह सत्य नहीं कि समाज के सभी वर्गों के समर्थन के साथ भाजपा को मुस्लिम समुदाय का भी वोट प्राप्त हुआ है? सीएसडीएस पोल सर्वे के अनुसार, 2014 की भांति इस बार भी भाजपा को 8 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिला है।

पिछले पांच वर्षों में यह पहला अवसर नहीं है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से विरोध के नाम पर देश की हर छोटी-बड़ी घटनाओं में मुस्लिम शोषण को ढूंढने का प्रयास हुआ है। अखलाक, जुनैद, कठुआ आदि मामलों में वामपंथी समर्थित टुकड़े-टुकड़े गैंग सहित स्वयंभू सेकुलरिस्टों ने ऐसा ही किया था। तब इस जमात ने देश की बहुलतावादी छवि और सहिष्णु चरित्र को भी कलंकित करने से गुरेज नहीं किया।

भारत सहित शेष विश्व में आज वामपंथी वैचारिक कारणों से अप्रासंगिक हो चुके है। यदि तृणमूल कांग्रेस- विशेषकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मार्क्सवादियों द्वारा स्थापित हिंसक और अराजक पारिस्थितिकी तंत्र (इको-सिस्टम) से बाहर नहीं निकली, तो उनके दल का भी हश्र वही होगा, जो आज भारतीय वामपंथियों का है।

(साई फीचर्स)