(हरी शंकर व्यास)
लालू प्रसाद की पार्टी आज जिस दौर से गुजर रही है, बहुजन समाज पार्टी उस दौर से पांच साल पहले गुजरी थी। पांच साल पहले लोकसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। यह भी एक इतिहास था। इस बार लोकसभा में लालू प्रसाद की पार्टी का एक भी सांसद नहीं है तो पिछली लोकसभा में मायावती की पार्टी का एक भी सांसद लोकसभा में नहीं था। ऐसा क्यों हुआ था? मायावती और लालू के साथ ऐसा बिल्कुल एक कारण से हुआ था।
मायावती ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले दलित-मुस्लिम भाईचारे का नारा दिया था। उन्होंने अपने तमाम नेताओं और प्रदेश कोऑर्डिनेटर इस काम में लगा दिए कि वे मुसलमानों के साथ भाईचारा बनाएं। उन्होंने रिकार्ड संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। उनको लग रहा था कि खराब से खराब स्थिति में भी उनके सांसदों की संख्या दहाई में रहेगी। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने असर वाले इलाकों में जाटव और मुस्लिम वोट के सहारे सीटें जीतने की उम्मीद पाली थी। पर वे एक भी सीट नहीं जीत पाईं।
सोचें, जिस पार्टी ने 2012 तक राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई हो वह दो साल बाद लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाए तो इसे क्या कहेंगे? 2012 तक उत्तर प्रदेश में मायावती का राज था। उन्होंने यह राज सर्वजन की राजनीति करके हासिल किया था। उनकी पार्टी दलित-ब्राह्मण भाईचारा बना कर चुनाव लड़ती थी। इसी वजह से वे 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर पाईं और 2009 के लोकसभा चुनाव में 19 सीटें हासिल कीं। दलित-ब्राह्मण भाईचारे के जरिए उन्होंने सर्वजन की राजनीति साधी थी। अन्य पिछड़ी जातियां भी उनके साथ जुड़ी थीं और दूसरे सवर्ण भी साथ जुड़े थे।
भाजपा के उभार और उसके साथ सवर्णों व अन्य पिछड़ी जातियों के जाने की चिंता में मायावती ने अपना बना बनाया फार्मूला खराब किया। उन्होंने दलित और मुस्लिम भाईचारे का नारा दिया और दावा किया कि इस भाईचारे से उत्तर प्रदेश में क्रांति हो जाएगी। पर उलटा हो गया। उनकी पार्टी का सफाया हो गया। इससे उन्होंने कोई खास सबक नहीं लिया। तभी 2019 के चुनाव में उन्होंने दलित, यादव और मुस्लिम समीकरण बनाने का दांव चला। यह दांव भी उन्हें कुल मिला कर लोकसभा की दस सीट दिला पाया। उनकी सहयोगी समाजवादी पार्टी सिर्फ पांच सीट जीत पाई और जाट राजनीति का दम भरने वाले अजित सिंह की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई।
ध्यान रहे अजित सिंह की पार्टी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजबूत आधार है और उनको भरोसा था कि जाट व मुस्लिम समीकरण में अगर दलित भी जुड़ जाएं तो वे तीन-चार सीटें जीत सकते हैं। पर लगातार दूसरे चुनाव में उनकी पार्टी एक भी सीट जीतने से वंचित रह गई। उन्होंने न तो नतीजों से र्कोई सबक लिया था और न पुराने राजनीतिक इतिहास को ध्यान में रखा था। इस इलाके का राजनीतिक इतिहास यह है कि जब भी उनकी पार्टी भाजपा के साथ मिल कर लड़ती है तो उनको फायदा होता है। 2009 के चुनाव में वे भाजपा के साथ लड़े तो अपने हिस्से की पांचों सीटें जीती थीं। बहरहाल, उनके लिए मौजूदा बदलाव एक बड़ा सबक है।
चाहे सपा हो या बसपा और रालोद उत्तर प्रदेश की तीनों क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बड़ा सबक यह है कि उनको अपना ऊपर लगा मुस्लिमपरस्त राजनीति का ठप्पा हटाना होगा। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि सभी पार्टिया जय श्रीराम के नारे लगाने लगें और कट्टर हिंदुत्व की बात करें। उनको सिर्फ इतना करना है कि वे इस सचाई को स्वीकार करें कि मुस्लिम अब मुख्यधारा की राजनीति के लिए एक मजबूत वोट बैंक नहीं हैं। दूसरे, यह भी समझना होगा कि अगर वे पुराने ढर्रे पर ही राजनीति करते रहे तो इससे भाजपा के लिए ज्यादा अवसर बनेंगे और वह दायरा बड़ा होता जाएगा। तीनों पार्टियों को यह सोचना होगा कि भाजपा को हिंदू वोटों का एकमात्र दावेदार नहीं बनने दें।
(साई फीचर्स)

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