उम्मीद, वादे पीछे छूटे सिर्फ मोदी इश्यू!

 

 

(श्रुति व्यास)

हम फिर चुनावी मूड में हैं। मगर मुझे याद नहीं है कि हम पिछली बार कब चुनाव याकि चुनावी मूड से बाहर थे? 2014 से भारत लगातार एक के बाद एक चुनाव में ही तो सांस ले रहा है। चुनावों का न खत्म होने वाला सिलसिला। कभी किसी विधानसभा का चुनाव तो कभी किसी का। कभी उपचुनाव तो कभी स्थानीय निकायों के चुनाव तो कभी पंचायतों के चुनाव। चुनावों के हल्ले, उसके शगल ने, उन पर लगी मोदी-शाह की प्रतिष्ठा ने हमें पांच साल लगातार चुनावों में बांधे रखा है। तभी सवाल है आगामी मई 2019 में जो चुनाव होने वाला है उसे वाकई चुनाव ही माने? चुनाव के नाते उस पर क्या अलग सोचे?

इसकी उधेडबुन में मैं पुराने पत्रकारों, नेताओं और आम आदमी को कुरेदती रही हूं कि चुनाव 2019 को ले कर क्या सोचते है? जवाब में कोई चुनाव पर सोचता नहीं मिलता। सबके दिल-दिमाग में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी है। हां, निश्चित ही केवल और केवल नरेंद्र मोदी।

मतलब राग चुनाव नहीं है बल्कि राग नरेंद्र मोदी है। चुनाव मतलब सबकी धुन, सबका अब्सिशन मोदी है। या तो मोदी को जीताने के लिए या हराने के लिए। संदेह नहीं कि यह अब्सिशन 2014 से चला आ रहा है।

तब नरेंद्र मोदी परिघटना, अनहोने नायक थे। वे भारत की आवाज बने थे। भारतीयों के सपनों और उम्मीदों का वे राग अलापते-अलपाते हुए थे। तब लगता था कि मोदी की आवाज ताजा, मजबूत और दृढ़सकल्पी है। राजनैतिक और शाब्दिक दोनों अर्थों में दमदार व सच्ची। आवाज जनता के सपनों को साकार कर देगी। मोदी की आवाज तब बुलंद बनी थी लघुकायी याकि डिमिन्यटिव, थके हारे याकि हेगर्ड, बुझे से उस अलोकप्रिय नेतृत्व की मौन भद्रता पर हावी हो कर। मनमोहनसिंह की शिष्ट-भद्र- सकुचाई वाणी के विपरित नरेंद्र मोदी की छप्पन इंची आवाज ने तब लोगों को उम्मीदों के झूले पर झूमकर ऐसा झुलाया था कि वे सर्वमान्य, सर्वव्यापी हो गए और उनके आगे तमाम दूसरे नेताओं की जुबां चिपकती गई।

शिष्ट, भद्र मगर बुर्जुग, थके नेताओं की कमान के भ्रष्टाचार के किस्सों से आजिज आ चुकी जनता तब तमाम उम्मीदों में पूरी तरह नरेंद्र मोदी की शरण में थीं। हालांकि भारत में उम्मीद बेतुका व धुंधला अर्थ लिए होती है। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी ने जनता को जिस अंदाज में समझाया, जनता पर जैसे डोरे डाले उसने मतदाता में विश्वास बनाया कि वोट देना है तो इस व्यक्ति को देना है। तभी 2014 में वोट पार्टी को नहीं था, आईडिया को नहीं था, विचारधारा को नहीं था बल्कि नरेंद्र मोदी नाम के एक नेता को था। नरेंद्र मोदी की कहानियों में लोग कविताई अंदाज में जैसे मुरीद और संतुष्ट हुए, उसने अपने आप नरेंद्र मोदी का छप्पर फाड़ बहुमत बनवा दिया। तभी से मोदी नाम है और उससे दिवानगी सा नाता बनाएं, धुन पाले, आकर्षण में धुनियों का अब्सिशन है।

मगर 2014 के बाद जो हुआ वह भी अकल्पनीय था। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद वह किया जिससे राग मोदी का विपरित ऐसा विलाप मोदी बना है कि 2019 के मोदी बिल्कुल अलग है। 2014 वाली जनता की दिवानगी धीरे-धीरे सर्दपन में तब्दील होती गई। कोई आश्चर्य नहीं कि हर कोई आज मानता है कि 2014 जैसा मूड 2019 में नहीं है। नरेंद्र मोदी के लिए कड़ा मुकाबला है। 2014 के नरेंद्र मोदी को 2019 में कई गुना अधिक कड़ी लड़ाई लड़नी होगी।

हां, 2019 का अगला चुनावी महाभारत बिल्कुल अलग तरह का है। राजनैतिक पंडित कुछ भी कहें। वह भाजपा बनाम विपक्ष नहीं है। न नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी में मुकाबला है। बल्कि मुकाबला होगा नरेंद्र मोदी बनाम नरेंद्र मोदी के बीच! नरेंद्र मोदी 2014 बनाम नरेंद्र मोदी 2019 के बीच!

2014 में मोदी ने चौदहवें प्रधानमंत्री के रूप में जब सत्ता की कमान संभाली थी तो अपनी पार्टी का 278 सीटें जीतने का रिकार्ड बना कर। वह इतिहास दोहराता नहीं दिख रहा। हालांकि वे अपनी सफलता के दावों का ढोल जरूर पीट रहे हैं, लेकिन लोग मन ही मन कुछ और ही राय बनाए हुए है। 2014 में मोदी को कोई 17 करोड़ वोट मिले थे। इनमें से 11 करोड वोट भाजपा के परंपरागत थे। इतने तब भी थे जब लालकृष्ण आडवाणी 2009 में दावेदार थे या वाजपेयी चुनाव जीते थे। सो नरेंद्र मोदी को मिले अतिरिक्त 6 करोड़ वोट नए थे और वे मोदी के नाम पर थे। ये छह करोड नए वोट मोदी के जादू की झप्पी में अच्छे दिन, उन्मीदों के सुनहले सपनों में अंधे हो कर, आंख मूंद भरोसा करने की बदौलत थे।

वह तस्वीर, उन अभाजपाई तटस्थ वोटों के ख्यालों का गुलाबीपन आज गड़बड़ाया हुआ है। न तो आंकड़े और न तस्वीर पहले जितनी चमकदार है। मामला फीका पड़ चुका है। पिछले पांच साल में इन छह करोड़ मतदाताओं को नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी और महंगाई के कई झटके लगे हैं। निश्चित ही इन लोगों के लिए भ्रष्टाचार, रफाल ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है जितना विपक्ष बनाने की कोशिश में है। यह तबका भ्रष्टाचार को लेकर उतना परेशान और चिंतित नहीं है जितना कि मोदी की उन नीतियों से है जिनकी वजह से पांच साल में समस्याओं का अंबार लगा है, लोगों का जीना हराम हुआ है। जेब की तंगी, व्यापार-धंधे में बदहाली और बेरोजगारी के हर दिन के अनुभव ने लोगों के दिल-दिमाग को इतना झिंझोड़ा है कि नरेंद्र मोदी की आश्वस्त करने की तमाम कोशिशों के बावजूद ये भरोसा बनाने का तैयार नहीं है।

समस्याएं एक हो तो बताई जाए। कई कारोबारियों, उद्मियों से सुनने को मिला है कि उनका स्टार्टअप चौपट है। जीएसटी रिटर्न में अटका उनका पैसा रिफंड नहीं हो रहा है। नौजवान नौकरियों के लिए भटक रहा है। किसान बार-बार सड़कों पर उतरने को मजबूर है तो 2014 में मोदी के सबसे बड़े वोटर, नौजवान बेरोजगारी से आज सर्वाधिक घायल है। इसी सात फरवरी को दिल्ली में देश् भर से आए छात्रों ने रैली कर रोजगार और गुणवत्ता वाली शिक्षा की मांग करते हुए सवाल किये कि कहां हैं वे दो करोड़ रोजगार जो हर साल बन रहे हैं? जब हम उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं तो हमें पकोड़े क्यों बेचने चाहिए?

इन छोटी-बड़ी बातों का अर्थ है कि 2014 में मोदी के लिए जो हवा थी, जो लहर थी वह 2019 में आज सपाट है। मोदी की पांच सालों की सत्ता का अर्थ यही बना है कि उनके वादे पीछे छूट चुके हैं। लोगों की उम्मीदें खत्म हो गई हैं। और इस सब पर उनके पास कोई जवाब नहीं है सिर्फ सभाओं और रैलियों में यह कहने के कि कांग्रेस का सत्यानाश हो। जबकि लोगों को ध्यान है कि 2014 में नरेंद्र मोदी ने कहां था कि यदि आपने कांग्रेस को हरा कर मुझे वोट दिया तो मैं अगले 60 महिनों में आपकी तकदीर, तस्वीर बदल दूंगा। वह नहीं हुआ। उलटे 60 महिनों में लोग अधिक बदहाल हुए है। असंतोष और गुस्सा कम-ज्यादा सब तरफ बना है। लोग उम्मीद छोड़ घर के खिड़की-दरवाजे बंद किए हुए है। वे मोदी को सुनना नहीं चाहते है लेकिन नरेंद्र मोदी जबरदस्ती, हर तरह से वह हर संभव काम कर रहे है जिससे उनका राग थिरकता रहे। उनसे अब्सिशन बना रहे ताकि अंततः लोग यही सोचने को मजबूर हो कि नरेंद्र मोदी के अलावा दूसरा चारा नहीं है।

उम्मीदों, वादों वाले 2014 के मोदी पांच साल के अनुभव की कसौटी में फेल है लेकिन 2019 वाले मोदी नया तुरूप कार्ड बना रहे है कि वे नहीं तो दूसरा कौन? आंतकी हमले, पुलवामा की घटना के बाद इस कोशिश को नया बल मिला है। नरेंद्र मोदी 2019 का अपना नया संस्करण गढ़ते हुए अतिराष्ट्रवादी डिजाईनिंग कर डाल रहे है। आंतकी हमले से हिला जनसामान्य दुख, गुस्से से अतिराष्ट्रवादी नैरेटिव में भभक रहा है तो नरेंद्र मोदी कूद पडे है अपने को रक्षक जतलाने के लिए। वे ही है पाकिस्तान से बचा सकने वाले रक्षक! तभी चुनाव में एक तरफ 2014 के मोदी होंगे, उनके वादे, उम्मीदों में धोखे वाले नैरेटिव को विपक्ष लिए हुए होगा तो दूसरी तरफ मोदीः 2019 संस्करण कहता मिलेगा मैं हूं देश का रक्षक, मैं हूं देश का जोश! याद है नरेंद्र मोदी और उनके भक्तो ने हाइपरराष्ट्रवाद में राग मोदी चलवाने के लिए ऊरी फिल्म से यही हाउ इज द जोश वाला जुमला ही तो चलवाया!

यह फर्क है 2014 के मोदी और 2019 के मोदी का। तब लोगों के होश के बीच उन्हे उम्मीदों, वादों में बांधा था आज होश अव्यवस्था, बदहाली से जब घायल है तो दिल में जोश फूंकते हुए रक्षक के रोल में चुनाव लड़ने की तैयारी है।

तभी चुनाव 2019 होश की हकीकत बनाम हवा-हवाई जोश की फील में ही लड़ा जाता लगता है। इसमें नायक भी मोदी है और खलनायक भी मोदी।

(साई फीचर्स)

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