(डॉ. वेद प्रताप वैदिक)
केरल के मलयाला मनोरमा समारोह का उदघाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वही बात कह दी, जो पिछले साठ साल से मैं कहता रहा हूं और करता रहा हूं। उन्होंने कहा कि हम भारतीय लोग यदि अन्य भारतीय भाषाओं का एक शब्द भी रोज़ सीखें तो उस भाषा के साल में 300 शब्द सीख सकते हैं। यदि भारत के लोग बहुभाषी बन जाएं तो वह भारत की एकात्मता को सुद्दढ़ बना देगी।
भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं बोली जातीं लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि औसत पढ़ा-लिखा भारतीय अपनी मातृभाषा के बाद कोई अन्य भाषा सीखना चाहे तो वह बस अंग्रेजी सीखता है। कोई भी विदेशी भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है। मैंने खुद अंग्रेजी के अलावा रुसी, फारसी और जर्मन सीखी है।
अपनी चीन-यात्राओं के दौरान चीनी भाषा के इतने शब्द रट लिये हैं कि यदि दुभाषिया या सुरक्षाकर्मी साथ न हो तो भी मेरा काम धक जाता है। इंदौर में जन्मे और पढ़े होने के कारण संस्कृत, मराठी और गुजराती का ज्ञान सहज रहा और केरल के प्रोफेसरों की वजह से मलयालम से भी परिचय हो गया। देवेगौड़ाजी को हिंदी पढ़ाने के चक्कर में कन्नड़ के बहुत-से शब्द मुझे कंठस्थ हो गए। लेकिन औसत हिंदीभाषियों का हाल क्या है?
हम हिंदीभाषी लोग आमतौर से कोई भी अन्य भारतीय भाषा प्रेम से नहीं सीखते, जबकि करोड़ों मलयाली, तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और बंगाली हिंदी धाराप्रवाह बोलते हैं। मराठी और गुजरातियों की हिंदी तो कभी-कभी हमसे भी बेहतर होती है। भारतीय भाषाओं के बीच सदभाव पैदा करने के लिए ही मैंने भारतीय भाषा सम्मेलन की स्थापना की है लेकिन आप यह बात पुख्ता तौर पर समझ लीजिए कि भारतीय भाषाओं को उद्धार तब तक नहीं होगा, जब तक भारत में अंग्रेजी के नाजायज रुतबे को चुनौती नहीं दी जाएगी। यह बात महर्षि दयानंद, गांधी और लोहिया से मैंने सीखी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संर संघचालक और मेरे परम मित्र श्री कुप्प सी सुदर्शन ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में मेरे साथ काम किया है और उक्त मंतव्य को वे दोहराते रहे हैं। प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भय्या) जो बाद में सरसंघचालक भी बने मेरी पुस्तिका अंग्रेजी हटाओः क्यों और कैसे? की हजारों प्रतियां बांटते रहे हैं। लेकिन क्या भारत में कभी कोई ऐसा प्रधानमंत्री पैदा होगा, जो अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती दे सकेगा? मुश्किल है।
उसके लिए वह नेता गांधी, लोहिया और सुभाष की तरह पढ़ा-लिखा होना चाहिए। कहां से लाएंगे, ऐसा नेता। चलो, फिर भी संतोष की बात है कि मोदी ने कम से कम भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने की बात तो कही। अब तक किसी प्रधानमंत्री के दिमाग में यह बात आई ही नहीं। इमरान खान चाहे तो मोदी की तरह अपने लोगों से पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलूच और सराइकी सीखने के लिए कह सकते हैं।
(साई फीचर्स)
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