इकलौता मुस्लिम एमपी, नेहरू से अटल तक मिला प्रेम

 

 

(विवेक शुक्ला)

तो फिलहाल सिकंदर बख्त का रिकॉर्ड टूटने की कोई संभावना नहीं है। दिल्ली ने 1952 से अब तक सिर्फ एक मुसलमान को लोकसभा के लिए निर्वाचित किया है। यह उपलब्धि सिकंदर बख्त के खाते में 1977 में गई थी। उन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत कांग्रेस के साथ की थी। वे दिल्ली में मुस्लिम लीग की पाकिस्तान के पक्ष में की जा रही मांग का कसकर विरोध करने वालों में थे। कांग्रेस के टिकट पर 1952 में ही नगर निगम के लिए चुने गए। कांग्रेस में 1969 में टूट हुई तो वे कांग्रेस (ओ) के साथ चले गए। उन्हें भी इमरजेंसी में 19 माह तक जेल में यातनाएं दी गईं। इमरजेंसी हटने के बाद जनता पार्टी का गठन हुआ। उन्हें 1977 के लोकचुनाव चुनाव में चांदनी चौक से टिकट मिला।

बेहतरीन वक्ता बख्त साहब मजे से चुनाव जीत गए। मोरारजी देसाई सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। नेताओं के आपसी टकराव के कारण जनता पार्टी तार-तार हुई तो बख्त साहब बीजेपी में चले गए। फिर अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों वाली सरकार में विदेश मंत्री और केरल के राज्यपाल भी रहे। सियासत से हटकर बात करें तो सिकंदर बख्त की शख्सियत बहुआयामी थी। कुरैशी बिरादरी से संबंध रखने वाले बख्त साहब ने देश के विभाजन के तुरंत बाद अपनी मित्र राज शर्मा से विवाह किया। वे भी सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थीं। उस विषाक्त समय में भी दिल्ली में उस अंतरधार्मिक विवाह का कहीं विरोध नहीं हुआ था। विवाह के बाद सिकंदर बख्त ने अपने जामा मस्जिद के घर को छोड़कर करोल बाग के बस्ती हरफूल सिंह में रहना शुरू कर दिया था। वहां पर ही उनके राजनीतिक मित्र आते-जाते थे।

सिकंदर बख्त बेहद शानदार हॉकी खिलाड़ी भी थे। वे दिल्ली यूनिवर्सिटी और दिल्ली की टीम की तरफ से लंबे समय खेलते भी रहे। वे तेज-तर्रार फारवर्ड थे। उनकी हॉकी के मैदान में लय, ताल और गति देखते ही बनती थी। पर राजनीति में व्यस्त होने के कारण हॉकी पीछे छूट गई थी। बहरहाल, आजादी के बाद दिल्ली का सबसे असरदार मुसलमान नेता मीर मुश्ताक अहमद को ही माना जाएगा। वे लंबे समय तक महानगर परिषद के सदस्य रहे। दिल्ली के मुख्यकार्यकारी पार्षद भी रहे। मुख्य कार्यकारी पार्षद को आज के मुख्यमंत्री के समकक्ष माना जा सकता है। मीर मुश्ताक अहमद समाजवादी विचारधारा से प्रेरित थे। उन्हें कांग्रेस ने कभी लोकसभा के लिए टिकट नहीं दिया। वे अक्खड़ मिजाज के इंसान थे। किसी की सुनते नहीं थे। शायद इसलिए ही उन्हें उनका वाजिब हक नहीं मिला।

(साई फीचर्स)