पाकिस्तान से नहीं बन सकते सहज रिश्ते

 

 

(बलबीर पुंज)

तीस मई को नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रधानमंत्री पद और गोपनीयता की शपथ ली। जैसे ही भव्य कार्यक्रम में बिम्सटेक देशों के शीर्ष प्रतिनिधियों सहित देशभर से लगभग छह हजार अतिथियों की उपस्थिति में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा मोदी को शपथ दिलाई गई, वैसे ही वे स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे पहले राजनेता बन गए, जिन्होंने बतौर विशुद्ध गैर-कांग्रेसी राजनीतिज्ञ- लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत प्राप्त करते हुए देश का नेतृत्व फिर से अगले पांच और वर्षों के लिए संभाला है।

इस अभूतपूर्व घटनाक्रम का भारत सहित शेष विश्व के प्रकांड पंडित और बुद्धिजीवी अपने-अपने वैचारिक चश्मे और संबंधित चिंतन के खांचे में रहकर विश्लेषण कर रहे है। इसी जमात में दुनिया के वह विश्लेषक भी शामिल है, जो भारत-पाकिस्तान संबंधों के आकलन में भी व्यस्त हो गए है कि बालाकोट एयर-स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में और पुनः प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान से संबंध सुधारने की आगामी दिशा क्या होगी? इस प्रकार के असंख्य प्रश्नों का उत्तर- पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रमों में छिपा है, जो दोनों देशों के बीच तनाव के मूल कारण और उसे प्रोत्साहित करने वाली विकृत मानसिकता को पुनः स्पष्ट कर रहा है। क्या भारत द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को निमंत्रण नहीं भेजने की दूरदर्शी नीति और पाकिस्तान के पंजाब-सिंध प्रांत के हालिया मामलों में कोई संबंध है?

पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत में ईशनिंदा के आरोप में एक हिंदू पशु चिकित्सक रमेश कुमार को बीते सोमवार को गिरफ्तार कर लिया गया। स्थानीय मस्जिद के मौलवी इशाक नोहरी ने चिकित्सक के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। आरोप है कि रमेश ने कथित रूप से पवित्र पुस्तक के पन्ने फाड़कर उसमें मौलवी को दवा लपेटकर दी थी। यह अलग बात है कि इस संबंध में कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं करवाया गया है। इसके बाद क्षेत्र में काफी बवाल हुआ और हिंदुओं के घरों-दुकानों को चिन्हित कर उन्हे निशाना बनाया गया।

पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक के तानाशाही शासनकाल में इस्लामी कानून शरीयत के अंतर्गत ईशनिंदा को काफी सख्त कर दिया गया था। इस कानून के अंतर्गत मजहबी सभा में बाधा पैदा करना, कब्रगाह का अतिक्रमण, पैगंबर मोहम्मद और इस्लामी आस्थाओं के अपमान, पूजास्थल या उससे संबंधित सामग्री को नुकसान पहुंचाना अपराध माना गया है। आरोप सिद्ध होने पर दोषी को आजीवन कारावास या फिर सजा-ए-मौत का प्रावधान है। ईशनिंदा के तहत पाकिस्तान में अधिकतर अल्पसंख्यकों पर ही दर्ज किए जाते हैं और आसिया बीबी का मामला इसका मूर्त रूप है।

वास्तव में, यह स्थिति पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान का प्रतिबिंब है। इस इस्लामी देश के डी.एन.ए. में मजहब आधारित उस सत्तातंत्र का संकल्प है, जो भारत की बहुलतावादी और सनातनी संस्कृति को नकारने के साथ उसे जड़ से खत्म करने की प्रतिबद्धता को दोहराता है। इसमें केवल इस्लाम के प्रति सम्मान और गैर-इस्लामी संस्कृति, परंपरा, सभ्यता, वस्तु, कृति और जीवंत प्रतीकों के प्रति घृणा का भाव है। इसी कारण पाकिस्तान का मूल दर्शन उसे निरंतर उस कट्टरपंथ की ओर खींचता है, जिसका उद्देश्य संपूर्ण व्यवस्था का किसी भी माध्यम (हिंसा और आतंकवाद सहित) तालिबानीकरण और दारुल-हरब शेष विश्व (भारत सहित) को पूर्ण रुप से दारुल-इस्लाम में परिवर्तित करना है।

पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की संख्या विभाजन के समय 24 प्रतिशत से घटकर दो प्रतिशत से नीचे पहुंच गई है। सात दशकों के मजहबी शोषण, जबरन मतांतरण और सामूहिक हत्या के बाद, जो हिंदू अल्पसंख्यक पाकिस्तान में शेष बचे भी है, उसका एक बड़ा हिस्सा सिंध प्रांत में ही निवास करता है। यही कारण है कि राजनीतिक संरक्षण में हिंदुओं को ईशनिंदा के फर्जी मामलों को फंसाकर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा उनके उत्पीड़न और मतांतरण का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की एक अन्य हालिया घटना पर मैं बिल्कुल भी हैरान नहीं हूं, किंतु उस समाचार से दुखी अवश्य हूं। पाकिस्ताएनी पंजाब की प्रांतीय राजधानी लाहौर से लगभग 100 किलोमीटर दूर नारोवाल में ऐतिहासिक गुरु नानक महल को इस्लामवादियों द्वारा स्थानीय प्रशासन के समर्थन से क्षति पहुंचाने की खबर है। बकौल पाकिस्ताकन मीडिया स्थाानीय लोगों ने गुरुनानक महल के बड़े हिस्सेट को ध्वतस्ती कर और उसकी कीमती खिड़कियों और दरवाजों को बेच दिया गया है। इस चार मंजिला भवन की दीवारों पर सिख पंथ के संस्था पक गुरुनानक देव जी के अतिरिक्त हिंदू शासकों की तस्वीलरें लगी हुई थीं। इस ऐतिहासिक स्थल पर भारत सहित दुनियाभर से सिख आया करते हैं।

चार शताब्दी पूर्व गुरु नानक महल का निर्माण किया गया था, जिसमें 16 कमरे थे। प्रत्येक कमरे में कम से कम 3 दरवाजे और कम से कम 4 रोशनदान थे। पाकिस्तानी मीडिया ने उपायुक्त से लेकर इमारत में रहने वाले परिवार तक कई लोगों से बात करने की कोशिश की ताकि यह पता लगाया जा सके कि इस भवन की कानूनी स्थिति क्या है, इसका मालिक कौन है और कौन-सी सरकारी एजेंसी इसका रिकॉर्ड रखती है- किंतु कोई जानकारी हाथ नहीं लगी।

नारोवाल उपायुक्त वहीद असगर के अनुसार, यह इमारत ऐतिहासिक प्रतीत होती है, लेकिन राजस्व रिकॉर्ड में इसका कोई उल्लेख नहीं है। ईटीपीबी सियालकोट के रेंट कलेक्टर राणा वहीद ने कहा है, उनकी टीम गुरु नानक महल बाटनवाला के संबंध में जांच कर रही है। यदि यह संपत्ति ईटीपीबी की है, तो इसमें तोड़फोड़ करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

घटना पर भले ही स्थानीय प्रशासन लाख दावे करें, किंतु इसमें अतातायियों को प्रशासनिक अधिकारियों की मौन सहमति प्राप्त थी। बकौल मीडिया, स्थानीय नागरिक मोहम्मद अशरफ कहते है, औकाफ विभाग को इस बारे में बताया गया था कि कुछ प्रभावशाली लोग इमारत में तोड़फोड़ कर रहे हैं, लेकिन किसी भी अधिकारी ने न ही कोई कार्रवाई की और न ही कोई इसकी सुद लेने पहुंचा।

पाकिस्तान में यह कोई पहला मामला नहीं है, अपितु इसका एक लंबा और काला इतिहास है। इस प्रकार की घटनाओं में अक्सर शरारती तत्वों का हाथ बताकर मामले को स्थानीय कानूनी व्यवस्था से जुड़ा घोषित कर दिया जाता है। नारोवाल की घटना को लेकर भी ऐसा ही किया जा रहा है। क्या इस कुचक्र के पीछे वह विषाक्त इस्लामी दर्शनशास्त्र जिम्मेदार नहीं, जिसने सात दशक पहले वामपंथियों और ब्रितानियों के बौद्धिक समर्थन से पाकिस्तान को जन्म दिया था और अब वहां अल्पसंख्यकों- विशेषकर हिंदू-सिखों को प्रताड़ित करने की प्रेरणा देता है?

वर्ष 2003 में मुझे बतौर राज्यसभा सांसद, साफमा प्रतिनिधिमंडल के साथ पाकिस्तान जाने का अवसर मिला था। इस दौरान मेरी जिज्ञासा लाहौर सहित अन्य स्थानों पर प्राचीन मंदिरों और गुरुद्वारों को देखने की थी। परंतु मुझे यह देखकर निराशा हुई कि लाहौर की जिन गलियों में मैंने हिंदू-सिख धर्मस्थलों के बारे पढ़ा था और सुना था, मुझे उसका कोई नामोनिशान नहीं मिला। अवशेषों का सरकारी संरक्षण करने के प्रतिकूल स्थानीय लोगों या व्यापारियों को हिंदुओं की आस्था को कलंकित और अपमानित करने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। लाहौर स्थित चार मंजिला कुक्कू नेस्ट रेस्टोरेंट इसका उदाहरण है, जहां हिंदू देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियों की भरमार है। विभाजन से पूर्व लाहौर में हिंदू, सिख और जैन समाज के कई भव्य प्रतीक थे। वर्ष 1892 में सैयद मोहम्मद लतीफ द्वारा लिखित और प्रकाशित पुस्तक लाहौर में उस कालखंड के कई शिवालयों, मंदिरों और गुरुद्वारों का विस्तार से वर्णन है। इसमें वजीर खान मस्जिद के उत्तरी दिशा में स्थित शिवालय, तत्कालीन कोतवाली के पास बना दो मंजिला मंदिर, मोती बाजार स्थित हनुमान मंदिर, चाकला बाजार में बना तीन मंजिला बैकुंठ दास का ठाकुरवाड़ा, दीवान शंकरनाथ का शिव मंदिर, मोहल्ला तलवारा स्थित माता वैष्णों देवी का मंदिर, प्रसिद्ध वच्चो वाली मंदिर (रामद्वार), काली मां का मंदिर, चुन्नी मंडी बाजार के पास स्थित गुरुराम दास गुरुद्वारा, बाबा खुदा सिंह का प्राचीन गुरुद्वारे सहित अनेकों हिंदुओं और सिखों के पूजास्थल शामिल थे। रोचक बात तो यह है कि यह पुस्तक मैंने पाकिस्तान की यात्रा के दौरान ही खरीदी थी। किंतु उसमें वर्णित किसी भी हिंदू और सिखों के पूजास्थलों का अस्तित्व आज के लाहौर में मौजूद नहीं है।

सच तो यह है कि पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान के साथ वहां के जनमानस का बहुत बड़ा भाग (भारतीय मुस्लिमों के एक वर्ग सहित) स्वयं को उन इस्लामी आक्रांताओं का वंशज समझता है, जिसने मजहबी उन्माद में सदियों पहले भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था। जब तक पाकिस्तान अपनी उस जिहादी मानसिकता का त्याग नहीं करता है, तब तक तेजी से विकास पथ पर बढ़ रहे भारत से न ही उसके संबंध सुधर सकते है और न ही वैश्विक समुदाय- विशेषकर चीन के टुकड़े पर लंबे समय तक आश्रित रह सकता है।

(साई फीचर्स)