अपनी नई पार्टी बनाकर मैं तनहा हो गया था : प्रणब मुखर्जी

 

 

अप्रैल 1986 में कांग्रेस से निष्कासन के बाद मैंने खुद अपनी पार्टी बनानी चाही। इसका नाम राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस रखा। मंशा थी कि कांग्रेस से सभी असंतुष्टों को एक मंच पर लाया जाए। इस पार्टी के साथ जुड़ने वालों में कुछ अहम नाम थे- पूर्व केंद्रीय मंत्री और गवर्नर एपी शर्मा, महाराष्ट्र के पूर्व गवर्नर प्रकाश मेहरोत्रा, कर्नाटक के पूर्व सीएम आर गुंडूराव, उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम श्रीपति मिश्रा, कमलापति त्रिपाठी के पुत्र मायापति त्रिपाठी आदि। पश्चिम बंगाल कांग्रेस के कई नेता भी हमारे साथ आए। इन सभी नेताओं के कांग्रेस छोड़कर हमारे साथ जुड़ने के अपने कारण थे। सभी का मानना था कि राजीव गांधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस में उनकी उपेक्षा हो रही है। इसके अलावा वे अपने-अपने राज्यों में पार्टी के अंदर फैली अव्यवस्था से भी नाराज थे। हालात में कोई सुधार होता नहीं देख अंततः इन सभी ने कांग्रेस छोड़कर हमसे जुड़ने का फैसला लिया था। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के रूप में उन्हें एक ऐसा मंच मिला था जहां से वे अपनी भावना को व्यक्त कर सकते थे। हमने जनवरी 1987 में एक कन्वेंशन का आयोजन किया। इस मीटिंग में 16 पॉइंट अजेंडा तय किया गया। साथ में राजीव गांधी के काम करने के रवैये के प्रति गहरी निराशा जताई गई। 1986 और 1987 में मेरा पूरा समय पश्चिम बंगाल में नई पार्टी को मजबूत करने में बीता। इसके बाद हमारी मीटिंग बंगलोर में हुई जिस गुंडूराव ने आयोजित किया था। यह सफल मीटिंग थी। महाराष्ट्र में ए आर अंतुले ने शुरू में कांग्रेस से नाराजगी जताते हुए हमसे जुड़ने की मंशा दिखाई। मैं उनसे मिला भी लेकिन बाद में उनका मन बदल गया और वे हमारे साथ नहीं आए। इसे बड़ा धक्का यह लगा कि मई 1987 में गुंडूराव और ए पी शर्मा का कांग्रेस से निष्कासन समाप्त हो गया। वे 1989 में कांग्रेस से लोकसभा में चुने भी गए।

जब चुनाव में मिली हार : हमारी पार्टी 1987 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उतरी थी। हमने लगभग 200 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए लेकिन हमारी कोशिश फ्लॉप रही। हमारा एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। हालत यह रही कि चार-पांच बार कांग्रेस के टिकट से जीते नेता भी हमारी पार्टी से खड़े होकर बड़े अंतर से हारे। लगभग सभी की जमानत जब्त हो गई। लेफ्ट 244 सीट जीतकर विजेता बनी। कांग्रेस को सिर्फ 40 सीटें मिली थीं। मैं खुद चुनाव नहीं लड़ रहा था लेकिन मैंने अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार को लीड किया था। इस बड़ी हार के बाद मेरी पार्टी भी गुम हो गई। मेरे अधिकतर साथी दोबारा कांग्रेस में शामिल हो गए।

मैं बुरी तरह टूट गया था। राजनीति से दूर जाने की कोशिश करने लगा। अप्रैल 1987 से जनवरी 1988 के बीच सार्वजनिक जीवन से दूर हो गया। हालांकि जुलाई 87 तक मैं राज्यसभा सांसद था लेकिन बिरले ही मैं वहां सक्रिय रहा। बजट पर मैंने कुछ बोला और बाकी समय वहां भी खामोश रहा। मैंने अपने पुराने साथियों से नाता तोड़ लिया। मैं सेंट्रल हॉल में तनहा बैठने लगा। सिर्फ दो व्यक्तियों ने मुझसे संपर्क रखने की कोशिश की। वे थे- नजमा हेपतुल्ला और जी के मूपनार। अंततः 2 फरवरी 1988 को मेरी कांग्रेस में वापसी हुई जब मैं त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में पार्टी के चुनाव प्रचार में उतरा। बाद में मुझे पता चला कि संतोष मोहन देव और शीला दीक्षित ने मुझे दोबारा कांग्रेस में लाने के लिए राजीव गांधी से बहुत वकालत की थी। शीला दीक्षित का सपोर्ट मेरे लिए हैरान करने वाला था क्योंकि तब उन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता था। मैं उन्हें बस उमाशंकर दीक्षित की बहू के रूप में जानता था।

फिर कांग्रेस में खुले दरवाजे : संतोष मोहन देव 1978 से हमारे परिचित थे। संतोष ने राजीव गांधी को समझाने में सफलता पाई कि त्रिपुरा में मेरी अच्छी पकड़ है और कांग्रेस को मेरा उपयोग करना चाहिए। इसके बाद दिलचस्प वाकया हुआ। राजीव गांधी ने संतोष मोहन देव से कहा कि वह त्रिपुरा के प्रभारी हैं और उन्हें जिस नेता की जरूरत लगती है उसका उपयोग करना चाहिए। संतोष ने कहा कि चूंकि प्रणब कांग्रेस से निष्कासित हैं तो पश्चिम बंगाल के जनरल सेक्रेटरी को इसे वापस लेने का फैसला औपचारिक तौर पर लेना चाहिए। इस पर राजीव गांधी हंसने लगे और बोले- निष्कासन का कोई रिकार्ड ही नहीं है। उस पर कभी हस्ताक्षर हुए ही नहीं थे। फिर भी संतोष ने राजीव गांधी से कहा कि चूंकि उन्होंने प्रणब की सार्वजनिक मंच से शिकायत की हुई है, औपचारिक तौर पर उन्हें दोबारा शामिल करना चाहिए। हालांकि इससे उलझन बनी रही। पत्रकार जब पूछते कि किस हैसियत से मैं त्रिपुरा में प्रचार कर रहा हूं तो पार्टी का स्टैंड था कि सिर्फ कांग्रेस के नेता ही प्रचार कर रहे। मैं खुद भी कांग्रेस में लौटना चाहता था, जाहिर है उठ रहे सवाल पर मैं चुप ही रहा।

इसी चुनाव प्रचार के दौरान पूरे चार साल बाद मेरी राजीव गांधी से पहली मुलाकात हुई। उन्होंने मुझसे पूछा कि कैसा चुनाव प्रचार चल रहा है तो मैंने बताया कि किस तरह पार्टी वर्करों को बुरी तरह पीटा जा रहा है। राजीव यह सुनकर हैरान थे। संतोष मोहन देव ने वहां आतंकियों से मुकाबले के लिए सेना के उपयोग पर मुझसे राय मांगी। मैंने सतर्कता से उनका जवाब दिया। कांग्रेस में बड़े तबके का तब यह मानना था कि पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में प्रेसीडेंट रूल लगाकर ही लेफ्ट से मुकाबला जीता जा सकता है। मैं इससे पूरी तरह सहमत नहीं था। लेकिन यहां से पार्टी के अंदर मेरे खिलाफ दोबारा अभियान शुरू हो गया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मेरी लेफ्ट से सीक्रेट डील है। लेफ्ट ने मेरी मदद राज्यसभा चुनाव जीतने में की तो बदले में मैंने उनकी सरकार को राष्ट्रपति शासन से बचाया।

(साई फीचर्स)