(प्रणव प्रियदर्शी)
झड़ गई पूंछ, रोमांत झड़े, पशुता का झड़ना बाकी है!
ऊपर-ऊपर तन संवर चुका, मन अभी संवरना बाकी है!!
दिनकर जी की ये पंक्तियां मैंने सबसे पहले बचपन में अंत्याक्षरी खेल के दौरान सुनी थीं। दीदी, चाचा, नानी. . . सबको ये पंक्तियां याद थीं और टीम की जरूरत के अनुसार जिसे भी पहले मौका मिलता, सुना देता था। तब दिनकर का मैंने नाम भी नहीं सुना था, लेकिन ये पंक्तियां अंदर धंस चुकी थीं। पूंछ और रोओं का झड़ना, तन का संवरना मेरी कल्पना में पूरी तरह साकार होता था। पशुता का झड़ना और मन का संवरना अमूर्त चीज थी जिसे समझने की कोशिश कामयाब नहीं हो पाती। हारकर दीदी की शरण ली, पूंछ झड़ गई तो पशुता क्यों नहीं झड़ी? और ये होती कहां पर है? कैसे पता लगता है कि पशुता अभी नहीं झड़ी है? दीदी कुछ पढ़ रही थी, पर मेरी मूढ़ता पर अपनी मुस्कराहट नहीं रोक पाई।
फिर दया करते हुए मुझे ज्ञान दिया, पशुता मन में होती है और जब आदमी का मन संवरेगा तभी पशुता दूर होगी। मेरा अगला सवाल तैयार था, मन कब संवरेगा? इतना टाइम नहीं था दीदी के पास मुझ मतिमंद के लिए, सो कहा, मुझे नहीं पता। परेशान मत करो मुझे, पढ़ने दो अब। फिर भी सूत्र तो मिल ही गया था मुझे, आदमी के मन में होती है पशुता और यह तभी झड़ेगी जब मन संवरेगा। अब मन के संवरने का इंतजार करने लगा। उम्मीद थी कि जैसे-जैसे मैं बड़ा होता जाऊंगा मेरा और बाकी लोगों का भी मन संवरता जाएगा। पहला बड़ा झटका लगा 84 के दंगों की खबर सुनकर। दिल्ली की सड़कों पर दिन-दहाड़े लोगों को जिंदा जलाया जाना, इससे ज्यादा पशुता और बर्बरता क्या होगी?
जवाब मिला 1992 में, जब एक भीड़ ने संविधान और कानून अपने हाथ में लेते हुए अपनी आस्था के नाम पर दूसरों के श्रद्धास्थान को मटियामेट कर दिया। 84 की हिंसा गुडों-अपराधियों की अगुआई में हुई थी, कोई उसके नेतृत्व का दावा नहीं कर रहा था। लेकिन यहां तो बाकायदा एक राजनीतिक नेतृत्व था। और जो लोग अगुआई कर रहे थे, उनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं निकला जो इस पर अफसोस जताए। इससे बुरा क्या होगा? जवाब फिर दस साल बाद मिला, 2002 में जब एक आपराधिक घटना की प्रतिक्रिया में अलग-अलग शहरों में रह रहे सर्वथा निर्दाेष लोगों के खिलाफ हिंसा और बर्बरता की इंतिहा दर्शाई गई। अफसोस जताना तो दूर इस बार उस पर गौरव यात्रा निकाली गई। इसके बाद मैंने यह सवाल पूछना छोड़ दिया कि इससे बुरा क्या होगा। यह उम्मीद भी कि मन धीरे-धीरे संवरता जाएगा। लेकिन सवाल न पूछें तो क्या दुनिया काम करना छोड़ देगी? सो बिना पूछे ही समय-समय पर जवाब मिलते रहते हैं। कभी खाकी वर्दी की बर्बरता में तो कभी काले कोट की अराजकता में।
(साई फीचर्स)

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