मीठे गीतों में कड़वी होकर विचरती रही शैलेंद्र की जिंदगी

 

 

(राहुल पाण्डेय)

फिल्म गाइड का गाना- आज फिर जीने की तमन्ना है हो, या फिर अभी तक हर किसी की जुबान पर चढ़ा फिल्म यहूदी फिल्म का गाना- ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर हो, या फिल्म श्री 420 का गाना दृ मेरा जूता है जापानी हो, आज भी मशहूर गीतकार शैलेंद्र के यह गाने कभी हमें हंसाते हैं, कभी गुदगुदाते हैं तो कभी गहरे सोचने पर मजबूर करते हैं। भारतीय फिल्मी इतिहास में अब तक के सबसे मीठे गाने लिखने वाले चोटी के गीतकारों में शैलेंद्र प्रमुख हैं। बॉलिवुड के पहले शोमैन कहलाने वाले राज कपूर के साथ उन्होंने फिल्म तीसरी कसम बनाई थी। इसी फिल्म के लिए उन्होंने एक गाना लिखा था- चलत मुसाफिर मोह लियो रे, पिंजरे वाली मुनिया। यह गाना आज भी उतना ही जवान है, जितना तब था। 30 अगस्त को शैलेंद्र का जन्मदिन था और इस मौके पर हम पाते हैं कि शैलेंद्र सिर्फ पैदा हुए थे। वे कभी मरे नहीं। वे मर भी नहीं सकते। भले ही उनका शरीर हम सबके बीच मौजूद नहीं है। लेकिन शैलेंद्र की आत्मा उनके गीतों में ही विचर रही है और उन्हें वक्त दर वक्त और मीठा बनाती जा रही है।

आज अगर शैलेंद्र जिंदा होते तो उनकी उम्र 96 साल होती। उनका जन्म तीस अगस्त को पाकिस्तान में हुआ, जिसके बाद वे उत्तर प्रदेश के मथुरा में रहने के लिए आ गए। शैलेंद्र का बचपन बेहद गरीबी और तंगहाली में बीता। उनके पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र बताते हैं कि इसी गरीबी के चलते बचपन में ही उनकी मां और बहन का इंतकाल हो गया। वे बीमार हुईं और उनका इलाज ही नहीं हो पाया। शैलेंद्र पढ़ने में बहुत अच्छे थे। उनके अंदर शिक्षा पाने की बड़ी चाहत थी लेकिन पैसे नहीं थे। जब उनके हेडमास्टर ने यह सब देखा तो उन्होंने शैलेंद्र को गोद ले लिया। उन्होंने ही शैलेंद्र को पढ़ाया लिखाया और शैलेंद्र ने भी उनकी उम्मीदों को नहीं तोड़ा। शैलेंद्र ने उत्तर प्रदेश में इंटरमीडिएट की परीक्षा न सिर्फ पास की बल्कि पूरे राज्य में उनकी तीसरी रैंक रही।

शैलेंद्र के हृदय में कविता की कोपलें बचपन में ही अंगड़ाइयां लेने लगी थीं। मथुरा के रेलवे स्टेशन पर वे घंटो बैठे रहते और आती-जाती गाड़ियों को देखते। उनके पुत्र दिनेश शंकर बताते हैं कि वहां बैठने की मुख्य वजह यह भी थी कि रेलवे स्टेशन पर किताबों की एक दुकान थी, जिसके मालिक शैलेंद्र को अक्सर कई तरह की किताबें पढ़ने के लिए देते थे, जिन्हें वे वहीं स्टेशन पर ही बैठे-बैठे पढ़ जाते थे। भारत के आजाद होने के साल भर पहले ही शैलेंद्र ने तय किया कि वे बंबई जाएंगे। वे बंबई पहुंचे और वहां उन्होंने सेंट्रल रेलवे की माटूंगा वर्कशॉप में बतौर अप्रेंटिस जाइन कर लिया। कुछ दिन तक तो वे पारेल के रेलवे क्वार्टर्स में रहे। लेकिन बाद में उन्होंने माहिम में किराए पर एक कमरा लिया। माहिम में वे किन्नरों की बस्ती में रहा करते थे। उनके घर के अगल-बगल, सभी किन्नर ही थे।

फिल्मों के काम के दौरान उनके दो बड़े अच्छे दोस्त बने। पहले पार्श्वगायक मुकेश थे और दूसरे थे राज कपूर। वही राज कपूर, जिनके साथ मिलकर उन्होंने अपने सपनों की फिल्म बनाई और नाम दिया- तीसरी कसम। फिल्म चली नहीं और शैलेंद्र तबाह हो गए। उन पर खासा कर्ज चढ़ गया और कर्ज से ही उपजी टेंशन ने पहले तो उन्हें अस्पताल पहुंचाया और फिर वहां पर उन्हें सशरीर निगल गई। उनके पुत्र दिनेश शंकर बताते हैं कि पार्श्व गायक मुकेश ही थे, जो सबसे पहले उनकी बीमारी की खबर सुनकर बंबई के नॉर्थकोटे नर्सिंग होम पहुंचे थे। उस वक्त शैलेंद्र की हालत लगातार खराब होती जा रही थी और डॉक्टर भी निराश हो चुके थे। शैलेंद्र की पत्नी, उनके बच्चे बाहर गलियारे में खड़े थे, सिर्फ मुकेश को ही अंदर जाने की इजाजत दी गई।

अस्पताल में काम करने वाले लगातार उनके कमरे से अंदर-बाहर हो रहे थे, माहौल में खासा भारीपन था। अकेले मुकेश ही थे, जिन्होंने अपने सबसे अच्छे दोस्त को आखिर में जीवन से हारते देखा। शैलेंद्र की मौत के महज दो दिन बाद ही उन्हें उधार देनेवालों ने घर की मेज कुर्सी तक नीलाम कर डाली। शैलेंद्र की मौत उन्हीं तकलीफों में गुजरते हुए हुई, जिनसे गुजरते हुए भारत के अधिकतर साहित्यकार अंतगति को प्राप्त होते हैं। यहां पर यह मेरी व्यक्तिगत टिप्पणी है कि भारतीय न तो अच्छा साहित्यकार डिजर्व करते हैं और न ही अच्छा साहित्य। अच्छी चीजों की कीमत देनी होती है और अधिकतर भारतीय बेहद कंजूस होते हैं। बहरहाल, भारतीयों की कंजूसी भी शैलेंद्र की प्रतिभा को कभी नहीं मार पाई। शैलेंद्र तब भी जिंदा थे, अब भी हैं और हमेशा रहेंगे।

(साई फीचर्स)