कांग्रेस का ऐसा कमजोर नेतृत्व

 

 

 

 

(प्रकाश भटनागर)

कांग्रेस नेता राशिद अल्वी का गुस्सा जायज है। पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा की चिंता भी सही प्रतीत होती है। भाई लोग कई दिनों से पार्टी की उधड़ती बखिया पर पैबंद लगाने का रोजगार कर रहे थे। भले ही कहा जाए कि राहुल गांधी ने घबराकर पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ा, लेकिन अल्वी-खुर्शीद सियासी साज पर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की तरह यही राग अलाप रहे थे कि राजा से फिर युवराज की भूमिका में लौटने वाला यह कदम महान त्याग की मिसाल है। किंतु सलमान खुर्शीद ने इस भाट विरुदावली को शोक गीत में तब्दील कर दिया। साफ-साफ शब्दों में गांधी के निर्णय का विरोध कर गुजरे। अब पार्टी में भूचाल की स्थिति है

यूं तो ऐसा पहले से ही चल रहा था, कांग्रेस की जमीन तो सन 2014 से ही कांप रही थी, किंतु खुर्शीद के कथन ने साक्षात भूकम्प ला दिया है। वह ऐसा सच कह गये हैं, जिसे 10 जनपथ को ही असली जन, गण और मानने वाले अन्य पार्टीजन चाटूकारिता वाली खौलती चाशनी में डाल चुके थे। किंतु चम्चत्व वाले इस थीगड़े की तुरपन को पार्टी के वरिष्ठ अल्पसंख्यक चेहरे ने अपने पैने तर्कों की नोक से उधेड़ कर रख दिया है।& तो अब उघड़ी हुई जांघ पर जो छिपाये गये दाग नुमाया हुए हैं, उन पर विश्लेषण जरूरी हो गया दिखता है।

कुछ समय पहले तक राहुल के खास लोगों में शामिल होते ज्योतिरादित्य सिंधिया भी चिंतन की जरूरत पर जोर देकर चिंता और चिता के बीच वाले फर्क को पाटने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा गये हैं। कांग्रेस में जब भी नेतृत्व कमजोर हुआ है, ऐसे हालात सामने आते देर नहीं लगती है। राहुल बतौर राजनेता कितने कमजोर हैं, यह तथ्य रह-रहकर सामने आता जा रहा है। गांधी-नेहरू की जन्मघूंटी पीने मात्र से जो ताकत उन्हें मिली, उसे देश की आवाम ने अधिकांश मौकों पर किसी कमजोरी की तरह खारिज कर दिया। सोनिया गांधी; ने पूरी ऊर्जा के साथ पार्टी अध्यक्ष पद से विदा ली थी।

इस यकीन से परिपूर्ण होकर कि कांग्रेस में विक्रमादित्य के सिंहासन जैसे अध्यक्ष पद को टेका-बल्ली देने वाली पुतलियां उनके चिरंजीव को संभाल ही लेंगी। ऐसा नहीं हुआ। उधर सोनिया गांधी अवकाश के दौरान गोवा में सायकिल की सैर करती दिखीं, इधर दिल्ली में उनके पुत्र मोह ने पार्टी की सायकिल के चक्के से रही-सही हवा भी बाहर निकाल दी। मामला तब भी नहीं बिगड़ता। इस कुर्सी पर प्रियंका वाड्रा को सुशोभित करना चुटकियों का खेल था। लेकिन मुए मतदाताओं का कोई क्या करे। उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव के नतीजे को कांग्रेस के लिए उसने शोकसभा में तब्दील कर दिया। प्रियंका का गुब्बारा ऐसा फुस्स हुआ कि सारे चाटूकारों की हवा बंद हो गयी।

जाहिर हो गया कि जो बंद मुट्ठी बरसों से लाख की बतायी जा रही थी, वह दरअसल खाक वाली भी नहीं थी। इसलिए मजबूरी में सोनिया गांधी को एक बार फिर पार्टी की कमान संभालना पड़ी। सर्वथा प्रतिकूल हालात में मजबूरीवश स्वीकार की गयी यह जिम्मेदारी सोनिया पुरानी ऊर्जा के साथ नहीं निभा पा रही हैं। इसका सीधे-सीधे पार्टी के प्रदर्शन पर असर हो रहा है। यही वजह है कि खुर्शीद और सिंधिया जैसे स्वर पूरी बुलंदी के साथ हवा में तैर गये और अब ये दोनो नेता जिस मुकाम पर हैं, उसे बगावत की आरंभिक अवस्था कहा जा सकता है। दो राज्यों में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले हुआ यह घटनाक्रम निश्चित ही वहां पार्टी की संभावनाओं पर बुरा असर डालेगा। सच तो यह है कि राहुल सहित तमाम चम्मच पार्टी के हालात पर खालिस शुतुरमुर्गी आचरण कर रहे हैं। उस बिल्ली की तरह दिख रहे हैं, जो दूध पीते समय यह सोचकर आंख बंद कर लेती है कि उसे ऐसा करते कोई नहीं देख पाएगा। जबकि वक्त की मांग है कि पार्टी अपने हालात का ईमानदारी से क्रूर विश्लेषण करे। राशिद अल्वी ने कहा है कि कांग्रेस को दुश्मनों की जरूरत नहीं है। उनके इस कथन के आईने को गौर से देखिए। उसमें आपको खुर्शीद और सिंधिया नहीं, बल्कि वे कई चेहरे नजर आ जाएंगे, जिन्हें आप रोजाना दस जनपथ की ड्योढ़ी पर सजदा करते देखते चले आ रहे हैं।

(साई फीचर्स)